इंटरनेशनल मॉनिटरी फंड (आईएमएफ) की एक ताजा रिपोर्ट बताती है कि 52 देशों के आवासीय बाजारों में भारत में कीमतों में सबसे ज्यादा 9.1% की गिरावट आयी है।
यह गिरावट वित्तीय संकट से जूझ रहे यूरोपीय देशों से भी ज्यादा है। ये आँकड़े साल 2013 की अंतिम तिमाही के आधार पर हैं। पर ऐसा नहीं है कि साल 2014 में स्थिति बहुत बदली है। जानकार बता रहे हैं कि साल 2014 की पहली छमाही भी ठंडी ही रही है। एक तरफ ऊँची कीमतें हैं, दूसरी तरफ आवास ऋण (होम लोन) पर ब्याज दरें भी ऊँची हैं। इन दो बातों के चलते बिक्री सुस्त है।
लेकिन क्या मोदी सरकार बनने के बाद बदले हुए माहौल में जमीन-जायदाद के बाजार में कुछ चमक लौटी है? क्या इस बार त्यौहारी मौसम में खरीदारों की भरमार दिखेगी और बिक्री में सुधार देखने को मिलेगा?
प्रीमिया ग्रुप के सीएमडी तरुण सिंह कहते हैं कि ‘बीता एक साल खरीदारों और डेवलपरों, दोनों के लिए बहुत असमंजस वाला रहा है। इसका कारण बहुत सीधा है। भारत का रियल एस्टेट क्षेत्र राजनीतिक स्तर पर हुए बदलाव के चलते पैदा उत्साह और जमीनी हकीकत के बीच संतुलन बना रहा है।'
आम तौर पर त्यौहारों के समय निर्माता (बिल्डर या डेवलपर) कीमतों में छूट या उपहारों के जरिये ग्राहकों को आकर्षित करने की कोशिशें करते हैं और इस बार भी ऐसा दिख रहा है। जानकारों के अनुसार निर्माता छूट के जरिये ग्राहकों को लुभाने में जुटे हैं। लेकिन अभी ग्राहकों का उत्साह जरा हल्का ही है।
जेएलएल इंडिया के चेयरमैन अनुज पुरी कहते हैं कि त्योहारों के अवसर पर माँग में बहुत बड़ा सुधार दिखने की उम्मीद नहीं है। हालाँकि त्यौहारी बिक्री पर उनकी खास नजर इस लिहाज से है कि निर्माताओं (डेवलपरों) की ओर से दिये जाने वाले ऑफरों की भरमार और भविष्य की सकारात्मक उम्मीदों के मद्देनजर इस त्यौहारी मौसम से भविष्य की माँग के स्तरों का भी अंदाजा मिलेगा।
निर्माताओं से बात करने पर तस्वीर का अलग ही पहलू दिखता है। रहेजा डेवलपर्स के सीनियर वीपी हरिंदर ढिल्लों कहते हैं कि अब यह रुझान पलट रहा है और कीमतों में स्थिरता आ रही है। उनके मुताबिक अब तो कीमतें बढऩे का रुझान दिख रहा है। इस त्यौहारी मौसम से उन्हें अच्छी उम्मीदें हैं। वे कहते हैं, ‘यह त्यौहारी मौसम रियल एस्टेट क्षेत्र के लिए निश्चित रूप से अच्छे दिनों का अग्रदूत होगा। पहले से ही माँग में तेजी दिखने लगी है और आने वाले दिनों में यह रुझान और स्पष्ट हो जायेगा। निश्चित रूप से इस बार त्यौहारी माँग में पिछले वर्षों की तुलना में एक उछाल दिखेगी।' हालाँकि बीते एक साल के बारे में उनका भी यही कहना है कि इस दौरान रियल एस्टेट क्षेत्र धीमेपन से गुजरा है।
हालाँकि तरुण सिंह इस बात को ही जरा नकारते हैं कि कीमतों में कमी आयी है। वे कहते हैं, ‘कीमतों में कमी बस एक ऐसी इच्छा है, जो अक्सर रियल एस्टेट क्षेत्र के अर्थशा को नकारती है। यहाँ जमीन समेत सभी कच्चे माल की लागत निरंतर बढ़ रही है और एक निर्माता के लिए कीमतों को स्थिर रखना ही एक चुनौती है। बेशक, एक कंपनी की स्थिति दूसरी कंपनी से अलग हो सकती है। मीडिया में आने वाली खबरों में यह नजरअंदाज कर दिया जाता है कि कीमत में कमी आना क्या है और मजबूरी में बिक्री (डिस्ट्रेस सेल) क्या है। मजबूरी में की जाने वाली कुछ गिनी-चुनी बिक्री को मीडिया में कीमत में कमी के रूप में दिखाया जाता है, जबकि कीमत में कमी सभी पर लागू होने वाली बात है जो बाजार के रुझान का संकेत देती है।'
यानी इस सुस्त माहौल में भी कीमतों में कमी को लेकर एक अजीब-सी विडंबना वाली स्थिति है। रियल एस्टेट बाजार पर खास नजर रखने वाले रवि सिन्हा बताते हैं कि बीते एक साल में जमीन-जायदाद की कीमतें घटी भी हैं और नहीं भी। ट्रैक 2 मीडिया के सीईओ रवि सिन्हा के अनुसार यह विरोधाभास इसलिए है कि जहाँ निर्माताओं (डेवलपरों) ने आम ग्राहकों के लिए कीमतों को लेकर बड़ा सख्त रवैया अपनाये रखा, वहीं अंडरराइटरों और संस्थागत निवेशकों के लिए उन्होंने हर तरह के विकल्प खुले रखे। इसलिए हो सकता है कि एक आम ग्राहक अगर अपार्टमेंट खरीदने के लिए सीधे निर्माता के पास जाये तो शायद उसे बाजार की वास्तविक कीमत से ज्यादा महँगे दाम मिलें।
रियल एस्टेट बाजार की यह विसंगति भी जारी है कि माँग और कीमत में कोई साफ संबंध नजर ही नहीं आ रहा। सलाहकार फर्म नाइट फ्रैंक की एक ताजा रिपोर्ट बताती है कि पिछले साल माँग में 14% की गिरावट आयी थी। साल 2014 की पहली छमाही में पिछले साल की पहली छमाही से 25% गिरावट आयी है।
यह रिपोर्ट आगे बताती है कि मुंबई मेट्रोपोलिटन क्षेत्र के बाजार में माँग और आपूर्ति के बीच का अंतर जारी रहने के चलते अनबिके घरों की संख्या 2,13,742 आवासीय इकाइयों पर पहुँच गयी है।
लेकिन इसके बावजूद कीमतों में दबाव जैसी स्थिति कम-से-कम कागज पर नजर नहीं आती। नाइट फ्रैंक की इसी रिपोर्ट के अनुसार मुंबई के 20 चुनिंदा क्षेत्रों में से केवल 3 क्षेत्रों में साल भर पहले की तुलना में कीमतें घटी हैं, बाकी 17 क्षेत्रों में कीमतें बढ़ गयी हैं। केंद्रीय उपनगर (सेंट्रल सबअर्ब) के घाटकोपर में साल भर पहले की तुलना में 24% और पोवई में 20% मूल्य वृद्धि इस रिपोर्ट के अनुसार हो चुकी है। पश्चिमी उपनगर (वेस्टर्न सबअर्ब) के बांद्रा पश्चिम में 16% और दहिसर में 13% की वृद्धि दर्शायी गयी है।
दिल्ली-एनसीआर के बारे में नाइट फ्रैंक की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि बीते तीन सालों से अनबिके घरों की संख्या 15% सालाना औसत दर से बढ़ते हुए 2014 की पहली छमाही के अंत में लगभग 1,67,000 हो गयी है। साल 2014 की पहली छमाही के दौरान मकानों की खपत में 37% गिरावट आयी और इस माहौल में नयी परियोजनाओं की शुरुआत में 43% की कमी दर्ज की गयी।
मगर इतने ठंडे माहौल का कीमतों पर असर नहीं! इसी रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली-एनसीआर के 18 चुनिंदा इलाकों में से एक में भी 2013 की पहली छमाही की तुलना में कीमतें घटी नहीं हैं। हालाँकि यहाँ मुंबई की तुलना में कीमतों में धीमी वृद्धि नजर आती है। नोएडा के विभिन्न सेक्टरों में मूल्य-वृद्धि केवल 0-2% तक दिखती है। ग्रेटर नोएडा में यह वृद्धि 1-8% तक है। गाजियाबाद में एनएच-24 के क्षेत्र में 8% और राज नगर एक्सटेंशन में 10% तक की वृद्धि दर्ज की गयी है।
कीमतें बढऩे या स्थिर रहने की कहानी जेएलएल इंडिया की रिपोर्ट में भी दिखती है। इसकी सितंबर 2013 की मासिक रिपोर्ट में गुडग़ाँव के गोल्फ कोर्स रोड पर मकानों की कीमतें 12,000-16,000 रुपये प्रति वर्ग फुट बतायी गयी थीं। सितंबर 2014 की रिपोर्ट के अनुसार ये कीमतें बढ़ कर 13,000-19,000 रुपये प्रति वर्ग फुट हो गयी हैं। एनसीआर के ही इंदिरापुरम इलाके में साल भर पहले कीमतें 4200-5000 रुपये प्रति वर्ग फुट दर्शायी गयी थीं, जो ताजा रिपोर्ट के अनुसार 4500-5300 रुपये प्रति वर्ग फुट पर हैं।
नोएडा-ग्रेटर नोएडा एक्सप्रेव पर कीमतें इस दौरान 4000-6100 रुपये से बढ़ कर 4300-6500 रुपये प्रति वर्ग फुट पर हैं। नोएडा में मकानों की कीमतें साल भर पहले 4700-6000 रुपये प्रति वर्ग फुट के बीच दर्शायी गयी थी, जो सितंबर 2014 की ताजा रिपोर्ट के अनुसार उन्हीं स्तरों पर ठहरी हुई हैं। खैर, कुछ जानकार जरूर यह स्वीकार करते हैं कि 2014 की पहली छमाही में दिल्ली-एनसीआर में कम माँग के चलते कीमतें घटी हैं। सीबीआरई का आकलन है कि एनसीआर में कीमतें 4-8% तक घटी हैं।
अब इन आँकड़ों को देख कर आप पूछ सकते हैं कि यह कैसी उलझन है - कभी तो कहा जाता है कि दाम घट रहे हैं, कभी कहा जाता है कि दाम बढ़े हैं। हकीकत क्या है? हकीकत यह है कि भारत का समूचा रियल एस्टेट बाजार ऐसी पर्दादारी से घिरा है, जिसमें पारदर्शिता एक अजूबा शब्द है।
कोई आश्चर्य नहीं कि एक अमेरिकी रियल एस्टेट कंसल्टेंसी की ओर से तैयार ग्लोबल रियल एस्टेट ट्रांसपैरेंसी इंडेक्स-2014 में भारत के शहरों का स्थान पारदर्शिता के मामले में 102 देशों की सूची में 40वें से 50वें स्थान तक पर है, यानी इन्हें बस अद्र्ध-पारदर्शी कहा जा सकता है।
पारदर्शिता की इस कमी का दंश बीते सालों के दौरान खास तौर पर दिल्ली-एनसीआर के ग्राहकों ने भुगता है। ग्रेटर नोएडा और नोएडा की तमाम परियोजनाएँ कानूनी विवादों में फँसी हैं। कहीं जमीन अधिग्रहण को लेकर किसानों से विवाद का पेंच फँसा तो कहीं निर्माता द्वारा बिना पर्याप्त स्वीकृति के निर्माण करने के चलते निवेशक-ग्राहक अधर में लटक गये। ओखला पक्षी विहार के 10 किलोमीटर के दायरे में आने वाली 49 परियोजनाएँ नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के एक आदेश के बाद अटक गयी हैं।
इनमें जेपी, आम्रपाली, सुपरटेक, पैरामाउंट और एटीएस समेत तमाम निर्माताओं की परियोजनाएँ शामिल हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने हाल में सुपरटेक की एक महत्वाकांक्षी परियोजना एमराल्ड कोर्ट के दो टावरों को गिराने का आदेश पारित किया। हालाँकि इसके बाद सुपरटेक ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है। इस बीच न्यायालय ने सुपरटेक को इस परियोजना के ग्राहकों को 14% ब्याज समेत उनके पैसे लौटाने का आदेश भी दिया है। लेकिन ग्राहकों का अपने एक अदद आशियाने का सपना तो फिलहाल टूटता ही दिख रहा है।
आने वाले दिनों में अर्थव्यवस्था की स्थिति बेहतर होने के चलते जमीन-जायदाद के कारोबार में भी सुधार आने की उम्मीदें जरूर बनती हैं। लेकिन अभी इस क्षेत्र के खिलाडिय़ों को उस जमीनी हकीकत को स्वीकार करना होगा, जिसे वे धीमेपन के बीते कई सालों के दौरान नकारते रहे हैं। हकीकत यह है कि मकानों की कीमतें एक आम खरीदार की जेब के दायरे से बाहर जा चुकी हैं।
भवन निर्माताओं की सोच यह है कि ऊँची ब्याज दरों के चलते खरीदार कम हैं। तरुण सिंह कहते हैं, ‘आवासीय श्रेणी में स्थिरता के लिए जरूरी है कि महँगाई दर पर नियंत्रण हो सके, ब्याज दरें घटें और रोजगार संबंधी स्थिरता आये।‘ उनके मुताबिक अगले साल तक ये स्थितियाँ बनने के बाद आवासीय श्रेणी में तेजी आयेगी। अनुज पुरी कहते हैं, ‘महँगाई के दबाव में कमी आने और उसके बाद आवास-ऋण (होम लोन) में कमी होने पर मध्यम श्रेणी के मकानों की माँग उभरने की उम्मीद रहेगी।'
लेकिन क्या एक आम नौकरीपेशा व्यक्ति अपनी मासिक कमाई से 50 लाख या एक करोड़ रुपये के मकान की ईएमआई चुकाने की स्थिति में है? ऐसे में जो निर्माता यह सोच कर अनबिके घरों की पोटली पर बैठे हुए हैं कि ब्याज दरें घटते ही चमत्कार हो जायेगा और फिर से खरीदारों की कतारें लग जायेंगी, वे क्या भारी मुगालते में नहीं हैं? अगर किसी को मकान खरीदने के लिए 50 लाख रुपये का आवास ऋण (होम लोन) लेना हो, तो 10.4% ब्याज दर पर 30 साल के लिए ईएमआई बैठेगी 45,364 रुपये। अगर यह ब्याज दर घट कर 10% पर आ जाये, तो ईएमआई 43,879 रुपये होगी, यानी केवल करीब डेढ़ हजार रुपये का फर्क आयेगा।
अगर यह ब्याज दर और भी घट कर 9% हो जाये, तो भी ईएमआई घट कर होगी 40,231 रुपये। क्या करीब 45,000 रुपये की ईएमआई घट कर करीब 40,000 रुपये हो जाने से बिक्री में चमत्कारी बदलाव आ जायेगा? जिस व्यक्ति की मासिक आय ही 40-50 हजार रुपये हो, उसके लिए ये दोनों ही आँकड़े उसकी सोच से बाहर के हैं। इसलिए सबसे पहली जरूरत यह है कि खुद कीमतें ऐसे वाजिब स्तरों पर आयें, जहाँ खरीदार उनके बारे में सोचने का हौसला जुटा सके।
हालाँकि भवन-निर्माता ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए उन्हें सावधान करने में जुटे हैं कि आने वाले समय में मकानों के दाम बढ़ जायेंगे। ढिल्लों कहते हैं कि अगले 12 महीनों में माँग तेजी पकड़ेगी, जिसके चलते कीमतें ऊपर जाती नजर आयेंगी। तरुण सिंह की राय में खरीदार भी समझते हैं कि कीमतें एक या दो तिमाहियों बाद इन्हीं स्तरों पर नहीं रुकी रहेंगी। लेकिन अनुज पुरी हकीकत को इन शब्दों में सामने रखते हैं, ‘कीमतें माँग में सुधार के साथ धीरे-धीरे बढ़ेंगी, लेकिन मोटे तौर पर छोटी अवधि में तुलनात्मक रूप से स्थिर ही रहेंगी।‘
(निवेश मंथन, अक्टूबर 2014)