राजेश रपरिया :
सहारा-सेबी की लंबी कानूनी जंग में सर्वोच्च न्यायालय ने सहारा समूह के मुखिया सुब्रत रॉय को देश की सबसे बड़ी जेल तिहाड़ की हवा खिला दी
। उनके विश्वासपात्रों और अंधभक्तों को सपने में भी यह तनिक आशंका नहीं थी कि इस कानूनी जंग में उन्हें सलाखों के पीछे जाना पड़ेगा। इन लोगों का यह अटूट विश्वास अकारण नहीं था। पिछले 15-20 सालों में सुब्रत रॉय पर विश्वास करने वाले लोगों ने देखा था कि उन्होंने देश की प्रशासनिक शक्तियों को कई बार ललकारा और उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाया। उनका कारोबारी साम्राज्य कानून से आँख-मचौली करता हुआ अबाध रूप से बढ़ता चला गया।
एशिया के सबसे अधिक रंगबाज पूँजीपतियों में शुमार सुब्रत रॉय का शाही अंदाज पुराने जमाने के राजा-महाराजाओं की याद दिलाता है। लखनऊ के 278 एकड़ में उनका भव्य सहारा शहर फैला हुआ है। अपना पेट्रोल पंप है, थिएटर है, 5,000 आलीशान सीटों वाला ऑडिटोरियम है। खुद सहारा समूह के अनुसार उसके पास तकरीबन 1.50 लाख करोड़ रुपये की संपदा है, जो देश-विदेश में फैली हुई है। इनमें न्यूयार्क और लंदन के दो बहुमूल्य होटल शामिल हैं। सहारा समूह की नेटवर्थ (कुल परिसंपत्तियों में देनदारी घटा कर यह आँकी जाती है) 68,000 करोड़ रुपये है। इन दावों के अनुसार वह निजी क्षेत्र का सबसे बड़ा नियोक्ता है, जिसके तकरीबन 12 लाख कर्मी हैं। उनकी शहंशाही ठाट-बाट के अनगिनत किस्से सहारा समूह के पुराने विश्वासपात्र कर्मियों से सुने जा सकते हैं।
यह समय की बिडंबना है कि अकूत संपत्ति के मालिक, गरीबों के स्वयंभू मसीहा, सहारा परिवार की करीब 4,500 कंपनियों के प्रणेता सहारा श्री की जमानत के लिए आवश्यक राशि (5,000 करोड़ रुपये) जुटाने के लिए उनके विश्वासपात्रों और शुभचिंतकों को हाथ पसारने पड़ रहे हैं।
ग्वालियर के एक गुस्साये वकील ने 4 मार्च को ही सर्वोच्च न्यायालय जाते समय सहारा श्री के चहरे पर स्याही फेंक दी। लेकिन सहारा श्री की साख पर भी उस दिन कालिख पुत गयी, जब सर्वोच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीश के. एस. राधाकृष्णन और जे. एस. खेहड़ ने उनके वकीलों की तमाम दलीलों और सहारा श्री की ‘मानवीय सेवा’ को खारिज कर दिया और उन्हें जेल भेज दिया। अब सहारा श्री मौजूदा विवाद की जड़ लगभग 3 करोड़ निवेशकों के 24,000 करोड़ रुपये लौटाने की पुख्ता और स्वीकार्य भुगतान योजना पेश करने के बाद ही रिहा हो पायेंगे। सहारा श्री की ओर से यह भीमकाय रकम लौटाने की जो योजना पेश की गयी, उसे सर्वोच्च न्यायालय ने अपमानजनक कह दिया है।
सहारा श्री सुब्रत रॉय ने 4 मार्च को जिरह के दौरान माननीय न्यायाधीशों से आग्रह किया कि मैं अपने 12 लाख कर्मचारियों की ओर से अपील करता हूँ। मानवीय मूल्यों को लेकर हमारा अतीत शानदार रहा है। आप यह सब जानेंगे तो आप भी हमसे प्यार करेंगे। पर माननीय न्यायाधीशों ने कहा कि हम आपसे तभी प्यार कर पायेंगे, जब आप हमारे आदेशों का पालन करेंगे और निवेशकों का पैसा लौटा देंगे।
यह दृश्य बेहद विस्मयकारी था। जो सहारा श्री बड़े-बड़े अखबारी विज्ञापनों के जरिये बार-बार प्रशासनिक और नियामक संस्थाओं को हड़काया करते थे, वे निवेशकों की रकम लौटाने का एक और मौका देने के वास्ते माननीय न्यायाधीशों के आगे गिड़गिड़ा रहे थे। पर उन्हें दो टूक जवाब मिला कि आप झूठे आश्वासन नहीं दें, बकाया रकम चुकायें। न्यायालय को गंभीरता से लीजिए और कानून की ताकत का सम्मान कीजिए।
सहारा श्री के सारे रसूख धरे रह गये। जिसके दरबार में कमोबेश हर दल के कई छोटे-बड़े नेता हाजिरी लगाते हों, अनेक अधिकारी सिर झुकाते हों, देश के नामी गिरामी क्रिकेटर लोट लगाते हों, बॉलीवुड के बड़े-बड़े स्टार थिरकने को बेताब हों उसके ये ‘मानवीय मूल्य’ कुछ काम न आये और कानून की ताकत ने अपना काम कर दिखाया।
1978 में महज 2,000 रुपये से अपना कारोबार शुरू करने वाले सुब्रत रॉय की कहानी मामूली नहीं है। यह कदम-कदम पर अनेक रहस्यों और किंवदंतियों से भरी पड़ी है। विलक्ष्ण प्रतिभा के धनी श्री रॉय ने शुरुआती दौर में अनेक बार मेहनतकशत जनता से धन जमा करने का धंधा शुरू किया। कानूनी बाधाओं के कारण बार-बार उन्हें धंधा बंद करना पड़ा। लेकिन हार न मानने वाले सुब्रत रॉय का धंधा 1980 से चल निकला, जो 2008 तक बिना किसी विशेष बाधा के दिन दूनी रात चौगनी गति से बढ़ता रहा। सहारा श्री का कारोबार रियल एस्टेट, उड्डयन, होटल, अस्पताल और खेल आदि क्षेत्रों में फैल गया। उनके राजनीतिक संपर्क किसी से छुपे नहीं हैं। ऐसा कहा जाता है कि सहारा श्री के कारोबार को नयी-नयी बुलंदियों तक पहुँचाने में राजनीतिक संपर्कों का अहम योगदान है। सब कुछ निर्बाध रूप से आगे बढ़ रहा था - सहारा समूह का कारोबारी साम्राज्य भी और दरबार भी।
लेकिन 2008 में सहारा समूह और उसके मुखिया के बुलंद सितारों पर भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की शनि दृष्टि पड़ गयी, जिससे सहारा समूह के कारोबार की दशा-दिशा दोनों ही बदल गयीं। आरबीआई ने सहारा इंडिया फाइनेंशियल कॉर्पोरेशन पर बाजार से जमा राशि लेने पर प्रतिबंध लगा दिया। इस समूह के साम्राज्य और शानो-शौकत की मूल नींव जनता से उगाही राशि पर खड़ी थी। इस नकद प्रवाह को बनाये रखना सहारा समूह के लिए नितांत आवश्यक था। इसके लिए सहारा समूह को ऐसे वित्तीय संसाधनों की जरूरत थी, जो आरबीआई के अधिकार क्षेत्र से बाहर भी हो और नकद प्रवाह का अनवरत क्रम भी बना रहे। इसी आवश्यकता ने ओएफसीडी (ऑप्शनली फुली कन्वर्टिबल डिबेंचर्स) की गाथा को जन्म दिया। यही बाद में सहारा साम्राज्य के दुर्भाग्य का कारण बना।
सहारा समूह ने सहारा इंडिया स्टेट कॉर्पोरेशन (एसआईईसीएल) और सहारा हाउसिंग इन्वेस्टमेंट कॉर्पोरेशन (एसएचआईसीएल) के तहत अलग-अलग निजी निवेश के जरिये ओएफसीडी लाने का निर्णय लिया। इसके लिए इसने रजिस्ट्रार ऑफ कंपनीज में प्रस्ताव दाखिल कर इन डिबेंचरों के जरिये 20,000 करोड़ रुपये जुटाने की अनुमति माँगी। इस कार्यालय ने बिना किसी बुनियादी पड़ताल के डिबेंचरों को लाने की अनुमति इन दोनों कंपनियों को दे दी। अनुमति के समय इन दोनों कंपनियों की नेटवर्थ 10 लाख रुपये से भी कम थी। सामान्य आदमी के मन में सवाल आता है कि जब 40,000 रुपये महीने कमाने के बाद भी बैंक उसे 40 लाख रुपये का कर्ज देने को तैयार नहीं होता है तो कुल केवल 20 लाख रुपये की नेटवर्थ पर इन दो कंपनियों को हजारों करोड़ रुपये के डिबेंचर जारी करने की अनुमति कैसे मिल गयी?
बहरहाल, सहारा समूह के अनुसार लगभग तीन करोड़ निवेशकों से उसने इन डिबेंचरों के माध्यम से तकरीबन 19-20 हजार करोड़ रुपये एकत्रित किये। यहाँ तक सहारा समूह को कोई दिक्कत नहीं हुई, बल्कि समूह के हौसले पुन: बुलंद हो गये। सहारा श्री ने पहले से अधिक कीमत पर एयरटेल को पछाड़ कर भारतीय क्रिकेट टीम को प्रायोजित किया। आईपीएल में पुणे वारियर्स टीम खरीदने के लिए सहारा समूह ने 1,500 करोड़ रुपये की बोली लगा कर इसके अधिकार हासिल किये। पुणे में सहारा श्री ने अपने नाम से एक विशाल क्रिकेट स्टेडियम भी बनवाया। इसके अलावा लंदन और न्यूयार्क जैसे महँगे शहरों में महँगी संपत्तियाँ खरीद कर सहारा समूह ने देश के कॉर्पोरेट जगत के स्वनामधन्य खरबपतियों को चौंका दिया।
पर अब यह कहा जा सकता है कि 2009 में सहारा समूह ने अपने एक निर्णय से अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली। इस साल सहारा समूह की एक अन्य कंपनी सहारा प्राइम सिटी ने सार्वजनिक निर्गम (आईपीओ) के जरिये धन एकत्रित करने को सेबी से अनुमति माँगी। इसके लिए इस कंपनी ने 30 सितंबर 2009 को सेबी कार्यालय में मसौदा विवरणिका (ड्राफ्ट प्रॉस्पेक्टस) दाखिल किया। इसमें दी गयी जानकारियों से सेबी के संज्ञान में आया कि समूह ने एसआईईसीएल और एसएचआईसीएल कंपनियों के माध्यम से भारी मात्रा में धन एकत्रित किया है।
सेबी के पूर्णकालीन निदेशक और आईएएस अधिकारी के. अब्राहम ने इसकी गहरी छानबीन शुरू की और सहारा समूह से पूछताछ भी की गयी। लेकिन सहारा समूह की दलीलें श्री अब्राहम के गले नहीं उतरीं, जो बाद में कानूनी जंग का सबब बनीं। सेबी का तर्क था कि दोनों कंपनियों को धन एकत्रित करने के लिए सेबी से अनुमति लेनी चाहिए थी, क्योंकि निवेशकों की संख्या 50 से अधिक है (सहारा समूह के अनुसार लगभग 3 करोड़ निवेशक)। सहारा समूह का तर्क था कि उन्हें सेबी से अनुमति लेने की कोई जरूरत नहीं थी, क्योंकि कंपनियों ने प्राइवेट प्लेसमेंट के जरिये यह राशि एकत्रित की थी। साथ ही उसका कहना था कि ये दोनों कंपनियाँ लिस्टेड (सूचीबद्ध) नहीं हैं, इसलिए वे सेबी के दायरे से बाहर हैं। प्राइवेट प्लेसमेंट में कानूनन 50 से अधिक निवेशक नहीं हो सकते हैं।
सेबी ने सहारा समूह की दलीलों को खारिज कर दिया और 24 नवंबर 2010 को अंतरिम आदेश पारित कर निवेशकों की पूरी रकम ब्याज समेत वापस करने के लिए कहा। इस संदर्भ में सेबी ने अंतिम आदेश भी पारित किया। सहारा समूह ने सिक्योरिटीज अपीलेट ट्रिब्यूनल (सैट) में सेबी के इस आदेश को चुनौती दी। लेकिन सैट ने भी 18 अक्टूबर 2011 को दिये निर्णय में सेबी के आदेश को उचित ठहराया। इस निर्णय के खिलाफ सहारा समूह ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने सहारा समूह की दलीलें नहीं मानी और सहारा समूह को निवेशकों का पैसा लौटाने के लिए ब्याज समेत 24,000 करोड़ रुपये सेबी के पास जमा कराने को कहा। बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने तीन किस्तों में यह रकम जमा कराने की राहत सहारा समूह को दी और पहली किस्त में 5,120 करोड़ रुपये जमा तुरंत जमा कराने को कहा। सहारा समूह ने पहली किस्त जमा भी करा दी। लेकिन बाकी दोनों किस्तों को जमा कराना सहारा समूह ने मुनासिब नहीं समझा, बल्कि दावा किया कि उसने 20,000 करोड़ रुपये निवेशकों को लौटा दिये हैं। सेबी के खिलाफ अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन देकर उस पर हल्ला बोल दिया और कहा कि सेबी आधारहीन आरोप लगा रहा है। कहा गया कि सेबी ही निवेशकों का पैसा लौटाने में विलंब कर रहा है।
सहारा समूह ने तीन करोड़ निवेशकों को सीधे भुगतान करने के कथित कागजात 127 ट्रकों में 31,000 से अधिक कार्टूनों में बंद करके सेबी के पास भेज दिये। इन कागजों को सिलसिलेवार करने में ही सेबी को एक बड़ी फौज लगानी पड़ी। उसने तमाम पतों पर पत्र भेजे, लेकिन अधिकांश पत्र वापस लौट आये। बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि ये कागज फर्जी, मनगढ़ंत और कल्पित हैं।
सहारा समूह सेबी और सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों की अवहेलना करता रहा। नतीजतन 26 फरवरी 2014 को न्यायालय में सहारा श्री के उपस्थित नहीं होने पर गैर जमानती वारंट जारी कर दिया गया। उन्हें 4 मार्च 2014 को अदालन में उपस्थित करने को कहा गया।
मार्च 2008 से ही, जब डिबेंचरों का मामला प्रकाश में आया, तब से सहारा समूह की दलीलें न केवल विरोधाभाषी रहीं बल्कि कानून-सम्मत भी नहीं थीं। सेबी के वकील अरविंद दातार का यह वक्तव्य गौरतलब है कि हर सुनवाई पर वे (सहारा समूह) एक नयी कहानी लेकर आते हैं। हम उसे खारिज कर देते हैं। अगली सुनवाई पर वे फिर एक नयी कहानी लेकर आते हैं। ऐसा करके सहारा समूह लगातार न्यायालय का समय बरबाद कर रहा है। माननीय न्यायाधीशों ने साफ शब्दों में कहा कि सहारा समूह ने जो शपथ पत्र दिये हैं, वे फौरी तौर पर उनकी रिफंड थ्योरी (निवेशकों को नकद पैसा लौटाने वाली बात) को मिथ्या ठहराते हैं और कथित निवेशकों के अस्तित्व पर गहरा संदेह पैदा करते हैं। न्यायाधीश खेहड़ ने अगस्त 2012 में जो टिप्पणी की, उससे मामला काफी साफ हो जाता है। मार्च 2008 से इन डिबेंचरों का अभिदान शुरू होने के समय से ही अपीलकर्ता-कंपनियों (सहारा समूह) की असलियत पर शक खड़ा हो गया। निश्चित रूप से यह शक सुस्थापित है और यह निष्कर्ष निकालने के लिए पर्याप्त है कि यह पूरा प्रकरण संदेहास्पद, संदिग्ध और प्रश्न करने योग्य है। यदि यह सही साबित होता है, तो इसके नतीजे हिला देने वाले होंगे।
माननीय न्यायाधीशों ने साफ कर दिया है कि अगर असली निवेशकों की पहचान नहीं हुई तो यह सारी रकम सरकारी खजाने में जमा करा दी जायेगी। माननीय न्यायाधीशों का कहना है कि राष्ट्रहित और देश के विकास के लिए बाजार की सुरक्षा बेहद महत्वपूर्ण है। निवेशकों का विश्वास बनाये रखने के लिए बाजार की अक्षुण्णता और उसके दुरुपयोग पर अंकुश जरूरी है।
इस पूरी जंग में राजनीति दलों की बहरी चुप्पी राजनीति और कारोबारी जगत की सांठ-गांठ को उजागर करती है। देश के प्रमुख आर्थिक पत्र मिंट ने सवाल उठाया है कि सहारा क्या भारत का स्विस बैंक है, जहाँ देश के ताकतवर और बड़े लोग काला धन जमा करते हैं और उनको लाखों छोटे निवेशकों का नाम भाड़े पर दिया जाता है? सहारा श्री वास्तव में गरीबों का सहारा हैं या काले धन को सफेद करने के मँझे हुए खिलाड़ी हैं? इस पर अभी फैसला आना बाकी है।
(निवेश मंथन, अप्रैल 2014)