इंजीनियरिंग प्रथम वर्ष के एक छात्र को पिता ने गिटार खरीदने के पैसे नहीं दिये तो उसने अपनी बचत के पैसे से शेयरों में खरीद-बिक्री की और उसके मुनाफे से गिटार खरीद ली।
आज वह छात्र जेरोधा नाम की ब्रोकिंग फर्म का संस्थापक सीईओ है और जेरोधा कारोबार के लिहाज से भारत की कुछ सबसे बड़ी ब्रोकिंग फर्मों में से एक है। जेब-खर्च में से बचाये महज 2,000 रुपये से शेयर बाजार में शुरुआत करके इस मुकाम तक पहुँचने की अपनी कहानी बयान कर रहे हैं जेरोधा के संस्थापक नितिन कामत।
जेरोधा की शुरुआत तो साल 2009 में हुई, लेकिन मैंने शेयरों की खरीद-बिक्री 16-17 साल की उम्र में ही शुरू कर दी थी। दरअसल मेरे पिता खुद भी शेयरों की कुछ खरीद-बिक्री किया करते थे और रोजाना शेयरों पर नजर रखते थे। मैंने जो शेयरों की खरीद-बिक्री शुरू की, उसका कारण गिटार था। मैं इंजीनियरिंग के पहले साल में था और गिटार बजाया करता था। मुझे एक गिटार खरीदने के लिए पैसे चाहिए थे। लेकिन मेरे पिता ने कहा कि वे मुझे केवल पढ़ाई के लिए पैसे देंगे। तो मेरे पास जो थोड़ी-बहुत बचत के पैसे थे, उनसे मैंने शेयरों की खरीद-बिक्री शुरू कर दी, जिससे गिटार के लिए पैसे जमा हो सकें।
तब मैंने शालीमार एग्रो नाम के एक छोटे से शेयर को खरीदा था। मेरी किस्मत अच्छी थी और मैंने इसे करीब 30 पैसे के भाव पर खरीद कर बहुत कम समय में 1.40 रुपये के भाव पर बेचा था। ये जो पहला सौदा था, वह एकदम ही किस्मत की बात थी। यह एक जुआ था। लेकिन जब मैं बाजार को समझने लगा तो मैं इस तरह के छोटे शेयरों से एकदम दूर हो गया। केवल पहले साल के दौरान ही मैंने ऐसे छोटे शेयरों में खरीद-बिक्री की। इस तरह मैंने पहली बार गिटार खरीदने के लिए शेयर खरीदा-बेचा, लेकिन उसके बाद मैंने शेयरों में सौदे करना जारी रखा। जब एक बार आपको पैसा दिख जाये तो उससे अलग रहना मुश्किल होता है।
तब मैं इंजीनियरिंग कॉलेज कम जाता था और शेयर बाजार की खरीद-बिक्री में ही ज्यादा समय गुजारने लगा था। उस समय बेंगलूरु विश्वविद्यालय में एक सेमेस्टर के विषय को अगले सेमेस्टर में ले जाने की सुविधा मिली हुई थी। मेरा बैच ऐसी सुविधा पाने वाला आखिरी बैच था! इसलिए मेरी किस्मत अच्छी थी कि मुझे शेयर बाजार में खरीद-बिक्री के चलते कोई साल नहीं गँवाना पड़ा। इससे मेरी पढ़ाई पर तो असर पड़ा ही था, क्योंकि कॉलेज में रहने के बदले मैं दिन भर शेयर बाजार में लगा रहता था।
दरअसल इंजीनियरिंग में मैंने अपने माता-पिता के दबाव में दाखिला लिया था। आपको पता है कि दक्षिण भारत में इंजीनियरिंग को लेकर कैसी दीवानगी है। मैं हमेशा व्यापार के क्षेत्र में जाना चाहता था।
इंजीनियरिंग की पढ़ाई 2001 में पूरी हो गयी। तब तक मैंने शेयरों की खरीद-बिक्री से ही 2-3 लाख रुपये की ठीक-ठाक पूँजी जमा कर ली थी। महज 2000 रुपये से ये सब कुछ शुरू हुआ था। ट्रेडिंग यानी खरीद-बिक्री और अब ब्रोकिंग में मैंने जो भी बनाया है, वह सब इसी बाजार से बना है, कुछ भी बाहर से नहीं आया है।
साल 2001 में 2-3 लाख रुपये की रकम कम नहीं थी। लेकिन 2001 और 2002 में बाजार में जब डॉट कॉम बुलबुला फूटने से जो गिरावट आयी, उसमें मैं फँस गया। तब न केवल मेरी सारी पूँजी डूब गयी जो मैंने पिछले चार साल में कमायी थी, बल्कि उल्टे मेरे ऊपर ब्रोकर का उधार भी चढ़ गया क्योंकि मैं उधारी वाले सौदे भी करता था। मैंने अपने पास के करीब तीन लाख रुपये गँवा दिये और साथ में ब्रोकर का उधार करीब 40,000 रुपये का हो गया। उस समय के तीन लाख रुपये को आज के हिसाब से सोचें तो यह शायद दस लाख रुपये के बराबर होगा। एक मध्यमवर्ग के व्यक्ति के लिए यह बड़ी रकम थी।
जब मेरे पास शेयर खरीदने-बेचने के पैसे नहीं बचे तो मुझे नौकरी तलाशनी पड़ी। मैंने मणिपाल इन्फोकॉम के कॉल सेंटर में नौकरी कर ली। यह शायद दिसंबर 2001 का समय था या 2002 की शुरुआत थी। जब मैं कॉलेज में था, उस समय तो कक्षा न जा कर शेयर बाजार में रहना संभव था। नौकरी में काम पर न जा कर शेयर बाजार में सौदे करना संभव नहीं था। लेकिन मैं रात में नौकरी करता था और सुबह में शेयरों के सौदे करता था। इस तरह मेरी डबल शिफ्ट चलती थी। लगभग तीन साल तक इस तरह एक संघर्ष चलता रहा। सप्ताहांत में भी मैं बाजार के बारे में पढ़ता रहता था और खरीद-बिक्री की रणनीति बनाता था।
तब मैं एकदम युवा था, शायद इसलिए यह संभव हो पाया कि शेयर बाजार में अपनी सारी कमाई डुबा देने के बाद भी मैं वापस बाजार में सक्रिय हो पाया। अगर ऐसी कोई बात आज होती तो शायद मैं खुद को भावनात्मक रूप से दोबारा शेयर बाजार में उतरने के लिए तैयार नहीं कर पाता। लेकिन मुझे हमेशा यह पता था कि मुझमें शेयरों के सौदे से पैसे कमाने की खूबी है। इसलिए 2001-2002 में होने वाले नुकसान से तनाव जरूर हुआ, लेकिन मेरे आत्मविश्वास पर असर नहीं पड़ा। मैंने बाद में अपनी इस गलती को समझा कि मुझे उस समय उधारी वाले सौदे नहीं करने चाहिए थे। मैंने वह सबक सीख लिया था।
अब मैंने 40,000 रुपये की उधारी के साथ दोबारा शुरुआत की। इस नौकरी में मेरा वेतन करीब 14,000 रुपये था, लेकिन मैं सेल्स में था इसलिए प्रोत्साहन राशि वगैरह मिला कर मुझे 20,000-25,000 रुपये तक मिल जाते थे। मैं अपने माता-पिता के साथ था, इसलिए मेरे खर्च कुछ ज्यादा थे नहीं। इसलिए मेरे वेतन के ज्यादातर पैसे बच जाते थे, जिनसे मैं शेयरों में रोजमर्रा की खरीद-बिक्री करता था। इसमें यह योजना बनानी मुश्किल होती है कि आप कितने पैसे डालेंगे, क्योंकि यह निवेश नहीं था। लेकिन मैंने 2001 से यह सबक सीख लिया था कि आप हर सौदे में एक जैसी रकम के साथ नहीं उतर सकते। बहुत-से लोग यही गलती कर बैठते हैं। अगर उनके खाते में एक लाख रुपये हैं तो वे हर सौदा समूचे एक लाख रुपये का करते हैं। अपने सौदों की स्थिति को सँभालना महत्वपूर्ण है। आपको यह पता होना चाहिए कि किस सौदे में आपको केवल 1,000 रुपये लगाने हैं और किस सौदे में पूरी रकम लगा देनी है। अगर आप हर सौदे में एक जैसी रकम लगाते रहेंगे तो घाटे वाला कोई सौदा आपको मार डालेगा।
इसलिए मैंने एक तो यह नियम बनाया था कि आम तौर पर किसी भी सौदे में 10% से ज्यादा पूँजी नहीं लगानी है। यह नियम 90% से ज्यादा सौदों में रहा। लेकिन कभी-कभी मैं बड़ा दाँव जरूर लगा देता था, जब मुझे पूरा भरोसा होता था। लेकिन ऐसे बड़े दाँव भी एकमुश्त नहीं होने चाहिए। हम इसे पिरामिड की तरह रखते हैं। अगर आपकी रणनीति ठीक चल रही है तो आप सौदे की रकम बढ़ाते रहते हैं।
एक और बात यह थी कि मैं स्टॉप लॉस यानी घाटा काटने के स्तर तय करके नहीं चलता था। रोजमर्रा के सौदों में स्टॉप लॉस आपको कतर सकता है। अगर आपका सौदा काफी बड़ा हो, तभी स्टॉप लॉस की चिंता करनी चाहिए। हर सौदे में दो ही स्थितियाँ हो सकती हैं - या तो आप सही हैं या आप गलत हैं। अगर आपको लगता है कि आप सही हैं तो सौदे में बने रहें। अगर लगता है कि गलती हो गयी है तो निकल जायें। आज एक ब्रोकर के रूप में मैंने 20,000-25,000 ग्राहकों को देखा है। मैं कह सकता हूँ कि स्टॉप लॉस नहीं रखना नौसिखिये लोगों को मारता है, पर पेशेवर रूप से सक्रिय कारोबारियों को स्टॉप लॉस मार डालता है। दरअसल लोग स्टॉप लॉस के स्तर को बहुत ज्यादा तवज्जो दे देते हैं। कोई शेयर 100 रुपये से 99 रुपये पर आ गया, इसलिए यह जरूरी नहीं है कि आपका सौदा गलत है। मैं कुछ नियमों को देख कर किसी सौदे में प्रवेश करूँगा और उससे बाहर निकलूँगा। जैसे कुछ तकनीकी पहलुओं को देख कर अगर मैंने सौदा किया तो स्थितियाँ बदलने पर उनके हिसाब से मैं फैसला करूँगा, चाहे सौदा घाटे में हो या फायदे में।
उसी समय मेरे लिए एक अच्छी बात यह हुई कि वायदा (फ्यूचर और ऑप्शन) कारोबार की शुरुआत की गयी। पहले आप केवल शेयरों में सौदे कर सकते थे। निफ्टी में कारोबार करने से फायदा कमाने की संभावना काफी बढ़ गयी। जब आप किसी शेयर में सौदे करते हैं तो ऐसे काफी लोग होते हैं जो कंपनी के बारे में हमेशा आपसे ज्यादा जानकारी रखते हैं। निफ्टी में सौदे करते समय तरलता भी ज्यादा रहती है और किसी अंदरुनी या भेदिया (इनसाइडर) खबर की आशंका भी नहीं रहती।
साल 2002 से लेकर 2005 तक करीब तीन साल शेयर कारोबार के लिहाज से काफी अच्छे रहे। उस समय एक खास बात हुई। मेरी आदत कसरत के लिए जिम जाने की रही है। एक दिन जिम में मेरी मुलाकात अमेरिका से लौटे एक व्यक्ति से हुई, जिनका नाम प्रकाश है। वे काफी पैसे कमा कर लौटे थे और वे इस पैसे के निवेश के बारे में सोच रहे थे। अगल-बगल के ट्रेड मिल पर दौडऩे के दौरान हमारा आपस में परिचय हो गया। शायद किसी शनिवार को हम दोनों उनके घर पर साथ बैठे। वहीं गपशप के दौरान मैंने अपने ट्रेडिंग खाते में लॉगिन किया और वह उन्हें भी दिखाया। तब मैं आईसीआईसीआई डायरेक्ट के जरिये कारोबार करता था। मेरे ट्रेडिंग खाते में जो प्रदर्शन था, उसे देख कर वे काफी प्रभावित हुए। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि उन्होंने उसी रात मुझे एक चेक काट कर दे दिया और कहा कि आप मेरे लिए भी काम करें।
अगले दिन मैंने कॉल सेंटर की नौकरी छोड़ दी। यह साल 2005 का समय था। मैंने कामत एसोसिएट्स नाम से एक फर्म शुरू की, जो सलाहकार सेवाओं और पोर्टफोलिओ सँभालने के लिए थी। प्रकाश मेरे पहले ग्राहक थे। उन्होंने मुझे 20 लाख रुपये का पहला चेक दिया था। उस समय तक मेरा अपना कारोबारी खाता भी 15-20 लाख रुपये का हो चुका था। करीब 40,000 रुपये के उधारी से दोबारा शुरुआत करने के बाद से तब तक निफ्टी ऑप्शन के सौदों ने मुझे इस स्तर पर ला दिया था। एक-दो ऐसे सौदे रहे जिन्होंने मुझे जबरदस्त फायदा पहुँचाया था, जिसमें मैंने अपने भरोसे के चलते सौदा बनाये रखा। मई 2004 में चुनावी नतीजों के आने के समय ऐसा ही हुआ था।
(नितिन अब एक शेयर कारोबारी से सलाहकार बन गये, लेकिन शून्य ब्रोकरेज के साथ भारत में डिस्काउंट ब्रोकिंग का चलन लाने का चरण तो इसके बाद आना था। आगे की कहानी अगले अंक में।)
(निवेश मंथन, दिसबंर 2012)