राजेश रपरिया, सलाहकार संपादक:
वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी संभवत: आज देश के सबसे हैरान-परेशान व्यक्ति होंगे। आगामी वित्त वर्ष का बजट बनाते समय उन्हें अनेक लक्ष्य साधने हैं। विडंबना यह है कि आर्थिक तंगी से उनके दोनों हाथ बुरी तरह बंधे हुए हैं और उन्हें ऐसे में बजट की नैया पार लगानी है। चालू वित्त वर्ष 2011-12 हर किसी के लिए भयावह रहा है। अर्थव्यवस्था के हर मोर्चे पर केवल बुरी खबरों का डेरा था।
बजट 2011-12 के सभी आकलन विफल साबित हुए हैं। मंद अर्थव्यवस्था, महँगाई, राजस्व संग्रह में कमी, उम्मीद से अधिक सब्सिडी (सरकारी सहायता), बेकाबू राजकोषीय घाटा आदि को लेकर बजट के सारे अनुमान धराशायी हो गये हैं। पिछले बजट भाषण में वित्त मंत्री ने बड़े आत्मविश्वास के साथ 9% विकास दर की भविष्यवाणी की थी। लेकिन चालू वित्त वर्ष में तिमाही-दर-तिमाही यह विकास दर अपने लक्ष्य से पिछड़ती चली गयी और अब यह पिछले सालों के न्यूनतम स्तर पर है। चालू वित्त वर्ष में विकास दर 7% को छू ले तो गनीमत होगी।
गिरती विकास दर का सीधा असर राजस्व संग्रह पर पड़ा है। बजट में 18% राजस्व वृद्धि का अनुमान लगाया गया था। लेकिन अप्रैल-दिसंबर के दरम्यान यह वृद्धि लगभग 12% ही रही। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर संग्रह दोनों ही वित्त मंत्री को मुँह चिढ़ा रहे हैं। विनिवेश को लेकर 40,000 करोड़ रुपये का लक्ष्य रखा गया था। लेकिन जनवरी 2012 तक इस मद में महज 1,145 करोड़ रुपये ही आ सके थे। आनन-फानन में हुए ओएनजीसी के विनिवेश से 12,666 करोड़ रुपये और मिल जायेंगे। फिर भी 26,000 करोड़ रुपये का टोटा रह जायेगा।
दूसरी ओर सरकारी व्यय में भारी बढ़ोतरी हुई है। मॉर्गन स्टैनले की एक रिपोर्ट के अनुसार सरकारी व्यय में 13.9% की वृद्धि हुई, जबकि बजट का आकलन 3.4% बढ़ोतरी का ही था। बढ़ते व्यय और उम्मीद से कम राजस्व संग्रह ने सरकारी घाटे को बेलगाम कर दिया, जिससे वित्त मंत्री की नींद उड़ी हुई है। अब तक सरकार लक्ष्य से 52,000 करोड़ रुपये का ज्यादा कर्ज ले चुकी है। अनुमान है कि राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 5.5-5.6% के स्तर पर पहुँच जायेगा, जबकि बजट में यह आकलन 4.6% था। राजकोषीय घाटे का यह स्तर किसी भी पैमाने पर बेहद खतरनाक है। अमर्यादित घाटे से महँगाई के भड़कने का खतरा सदैव बना रहता है। लागत बढ़ती है, ब्याज दरों पर दबाव बना रहता है। नतीजतन इनसे कंपनियों का मुनाफा घटता है, जिसका सीधा असर निजी क्षेत्र के निवेश पर होता है।
ब्रिक देशों (ब्राजील, रूस, भारत, चीन) में भारत का सरकारी घाटा अभी सबसे ज्यादा है। इससे विदेशी निवेश में गिरावट आ रही है, जो यूपीए सरकार की विकास गाथा को धूमिल कर रही है। इस घाटे को पाटने के लिए दो ही विकल्प हैं - राजस्व बढ़ाया जाये और खर्च कम किये जायें। राजनीतिक रूप से डाँवाडोल यूपीए सरकार में व्यय घटाने का साहस नहीं है। खाद और ईंधन पर सरकारी सहायता (सब्सिडी) को कम करने का साहस वित्त मंत्री इस बजट में कितना दिखा पायेंगे, यह एक बड़ा सवाल है। लेकिन डीजल की कीमतों को नियंत्रण से मुक्त करने के लिए यूपीए सरकार के पास अब केवल यही बजट बाकी बचा है, क्योंकि 2014 में लोकसभा के चुनाव हैं। इसलिए 2014 के चुनाव से ठीक पहले के बजट में यानी अगले साल कोई अलोकप्रिय कदम उठाने का सवाल ही नहीं होगा।
कुल मिला कर अभी व्यय घटाने की गुंजाइश कम है। जाहिर है कि वित्त मंत्री आय बढ़ा कर ही सरकारी घाटे को काबू में करने की कोशिश करेंगे। उत्पाद शुल्कों में बढ़ोतरी तय है। सेवा कर का दायरा भी बढऩा तय है। विनिवेश की लक्ष्य बढ़ाने की तरकीब भी वित्त मंत्री इस्तेमाल करेंगे। वे आर्थिक सुधारों को कितना वजन इस बजट में दे पायेंगे, बाजार की निगाहें इस पर टिकी हैं। आय कर छूट की सीमा बढऩे की भी उम्मीदें बन रही हैं। अगर वित्त मंत्री ने घाटे को विश्वसनीय ढंग से काबू में कर लिया और ब्याज दरों में कमी आने के मजबूत संकेत मिले तो शेयर बाजार चहक सकता है। पर बाजार और बजट के युद्ध में स्वास्थ्य, शिक्षा और खाद्य सुरक्षा जैसे बुनियादी मुद्दे पीछे रह जायेंगे।
(निवेश मंथन, मार्च 2012)