महेश उप्पल, निदेशक, कॉम फस्ट इंडिया :
टेलीकॉम क्षेत्र में जिस महत्वपूर्ण और कठिन सुधार से अभी तक राजनीतिज्ञ और अफसर हिचकिचा रहे थे, वह काम न्यायालय ने कर दिया है। इसके लिए हमें अदालत का आभार मानना चाहिए। पहले आओ पहले पाओ नीति के बारे में दो चीजें हैं।
एक तो राजा ने उस नीति को तोड़ा-मरोड़ा। दूसरे एक मंत्री के रूप में उनका काम नीति का अनुसरण करना नहीं, नीति बनाना था। यदि पिछली नीति गलत थी, तो उसको जारी रखना ज्यादा बड़ी गलती थी। मैंने खुद पता नहीं कितने लेख लिखे थे कि वे जिस ढंग से स्पेक्ट्रम मैनेजमेंट कर रहे थे उसका कोई तुक नहीं था, क्योंकि उस समय स्पेक्ट्रम की माँग आपूर्ति से कई गुना ज्यादा हो गयी थी।
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 2003 में जो सलाह स्वीकार की थी, उसमें बहुत साफ कहा गया था कि भविष्य में लाइसेंस नीलामी के माध्यम से दिये जायेंगे। लेकिन आपने तुरंत उसी समय एक बड़ा फैसला लिया था और दो महीने बाद ही किसी ने आवेदन किया, तो उस पर सुविचार करके एक नजरिया अपना सकते थे। आप कह सकते थे कि अभी तो स्थिति कुछ खास नहीं बदली, इसलिए हम अभी नीलामी की इतनी बड़ी प्रक्रिया नहीं करना चाहते। तकनीकी रूप से उसमें गलतियाँ रही होंगी।
राजा से पहले दयानिधि मारन और अरुण शौरी के कार्यकाल में करीब 40-50 लाइसेंस दिये गये थे।मैंयूनिफाइडऐक्सेसपरशौरीसाहबकेफैसलेसेपूरीतरहसहमतनहींथा।इसकेबावजूदउनकेसमयकेलाइसेंसकेसंदर्भमेंमेरामाननाहैकिकोईव्यक्तिअगरविवेककाप्रयोगकरता है तो उसका सम्मान करना चाहिए, क्योंकि वे लाइसेंस (पिछले फैसले के) कुछ हफ्तों या कुछ महीनों के अंदर ही दिये गये थे। पिछले आठ साल में अभी तक किसी ने यह मामला नहीं उठाया है कि उनके समय में पक्षपात करके किसी को लाइसेंस दिये गये। कोई यह भी नहीं कह सकता है कि अक्टूबर-नवंबर 2003 में हालात इतने बदल गये थे कि इन लाइसेंसों को ऊँची कीमत पर देना चाहिए था और टाटा या जिसको भी उन्होंने लाइसेंस दिये वह उसका फायदा उठा ले गया। इस बारे में कपिल सिब्बल का अगर यह कहना है कि पहले आओ, पहले पाओ गलत है, तो मैं उससे सहमत हूँ। पर यह कहना गलत है कि राजा साहब की गलतियाँ उसी स्तर की हैं, जैसी शौरी जी की हैं।
पर हमारी टेलीकॉम सेवाओं के बाजार में 2002-2003 के आसपास बड़ी उछाल आयी थी। साल 2004 तक यह बड़ा साफ था कि स्पेक्ट्रम की माँग बढ़ती ही जायेगी। जब मारन संचार मंत्री थे तो 2006 में उन्होंने टेलीविजन पर कहा था कि ऑपरेटर ग्राहकों की संख्या बढ़ा-चढ़ा कर बता रहे हैं, जिससे वे स्पेक्ट्रम हड़प पायें। ऐसे में राजा साहब का टीआरएआई से समीक्षा नहीं कराना उनकी बड़ी गलती थी, जिसके लिए उनको जिम्मेदार होना पड़ेगा।
इस फैसले के बाद जनवरी 2008 से पहले के लाइसेंसों पर तलवार लटकने की बात कही जा रही हैं। लेकिन आदर्श स्थिति अच्छी स्थिति की शत्रु नहीं होनी चाहिए। हम आदर्श स्थिति लाने के चक्कर में सब कुछ तहस-नहस कर दें, उसका कोई खास तुक नहीं। हाँ, यदि वास्तव में कोई ऐसा पक्ष है जिसके साथ नाइंसाफी हुई है, तो अदालत उसमें न्याय दे।
एक खास बात यह है कि 1999 के बाद नीलामी के तरीके में कई किस्म के महत्वपूर्ण बदलाव आये हैं। सरकार को 2001 की या 3जी की नीलामी के पैसों में एक चव्वनी भी बाकी नहीं हैं। जहाँ तक प्रक्रिया की बात है, आज तक एक भी मुकदमा 2001 की नीलामी से संबंधित नहीं हुआ है। उस नीलामी ने हमेशा के लिए दो-तीन धारणाएँ गलत साबित कर दीं। पहली यह कि नीलामी करने से कंपनियाँ पहले बदमाशी करके बाद में कटोरा लेकर सरकार के सामने खड़ी हो जाती हैं। दूसरे, यह कि नीलामी से कंपनियाँ उठा-उठा कर ऐसी ऊँची बोलियाँ लगा देती हैं, जिनको बाद में वो सँभाल नहीं पातीं। तीसरे, नीलामी में कंपनियों के ज्यादा पैसे लगने से सेवाओं के दाम बढ़ जाते हैं।
कुछ कंपनियाँ कहेंगी कि उन्हें बिना किसी गलती के सजा मिली। कुछ अपवादों में संभव है कि अदालत उन्हें बेगुनाह पाये। पर जिस आदमी की जेब में दो घंटे के अंदर 1600 करोड़ रुपये का ड्राफ्ट हो, उसे भी तो बताना पड़ेगा ना यह कैसे हुआ। आप किसी-न-किसी तरीके से थे मिलीभगत में थे ना।
अदालत ने यह आरोप बेबुनियाद नहीं माना है कि सभी कहीं-न-कहीं मिले हुए थे। आइडिया, टाटा वगैरह कुछ कंपनियों के आवेदन पहले से थे और कहा जा सकता है कि उनकी स्थिति कुछ अलग है। शायद कोई कंपनी ज्यादा दोषी हो और कोई कंपनी कम दोषी हो, और यह बात अदालत तय करेगी। अगर कुछ ऐसे लोग हैं जो साबित कर सकें कि वे दोषी नहीं थे तो ठीक है। लेकिन यह उनके लिए आसान नहीं होगा।
(बातचीत पर आधारित)
(निवेश मंथन, फरवरी 2012)