राजीव रंजन झा :
भारत सरकार लंबे इंतजार के बाद नीतियाँ बनाने के मोर्चे पर हरकत में आयी और केंद्रीय मंत्रिमंडल ने दो बड़े फैसले कर लिये। इसने कंपनी विधेयक पर मुहर लगा दी और साथ ही खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के दरवाजे भी खोल दिये। केवल एक ब्रांड वाले खुदरा कारोबार के लिए 51% एफडीआई की अनुमति पहले से ही थी, जिसमें अब 100% एफडीआई की अनुमति दे दी गयी है।
मतलब यह कि कोई विदेशी ब्रांड अगर भारत में खुद अपने स्वामित्व वाली खुदरा दुकानों की श्रृंखला खोलना चाहता है तो उसे किसी भारतीय कंपनी या व्यक्ति को अपने साथ लेने की जरूरत नहीं है।
लेकिन उद्योग जगत इससे ज्यादा बेताबी से इंतजार कर रहा था कई ब्रांडों वाले खुदरा कारोबार में एफडीआई की अनुमति का। अभी इसमें एफडीआई के लिए दरवाजे पूरी तरह बंद थे। आपको वालमार्ट वगैरह जो विदेशी नाम दिखने शुरू हो गये थे, वे केवल कैश एंड कैरी व्यापार के लिए थे। हालाँकि कैश एंड कैरी व्यापार को भी सीधे खुदरा कारोबार में तब्दील करने के कई प्रयोग दिखते रहे, लेकिन यह सब सीमित रूप में ही चला। अब आपको अपने किसी नजदीकी मॉल में बिग बाजार के बगल में विश्व की सबसे बड़ी खुदरा कंपनी वालमार्ट का स्टोर भी दिख सकता है। या हो सकता है कि एक मॉल में सबसे बड़ा स्टोर बिग बाजार का हो और उसके बगल के दूसरे मॉल का मुख्य आकर्षण वालमार्ट हो।
बीते 5-10 सालों में भारत में संगठित खुदरा कारोबार काफी बढ़ा है और करीब 10-12 बड़े खिलाड़ी तो स्थापित हो ही गये हैं। इन सभी बड़े खिलाडिय़ों ने यह आस लगा रखी थी कि जब विदेशी निवेश की अनुमति मिलेगी तो हम अपनी हिस्सेदारी विदेशी कंपनियों को बेच कर अपने शुरुआती निवेश पर मोटा मुनाफा कमायेंगे। उनकी यह उम्मीद पूरी होने का रास्ता खुल गया है। लेकिन एक बात जरा हैरान करती है। भारतीय उद्योग जगत खुदरा क्षेत्र में सीधे 51% एफडीआई की अनुमति देने की पुरजोर वकालत करता रहा है। सवाल यह है कि पहले केवल 26% या 49% हिस्सेदारी क्यों नहीं? भारतीय बाजार में कदम रखने वाली विदेशी कंपनी को सीधे बड़ी हिस्सेदारी क्यों? ध्यान रखें कि 49.99% और 50.01% में गणित के हिसाब से भले ही केवल 0.02% का फर्क हो, लेकिन यह फर्क कंपनी पर नियंत्रण को बदल देता है। तर्क यही दिया जाता रहा कि जब तक विदेशी कंपनी को नियंत्रण नहीं मिलेगा, तब तक वह इस बाजार में आयेगी ही नहीं और आयेगी भी तो उस पैमाने पर निवेश नहीं करेगी जितनी जरूरत है। तर्क यह है कि एक विदेशी कंपनी भले ही नियंत्रण अपने हाथ में रखे और भारतीय साझेदार छोटे भाई की भूमिका में आ जाये, लेकिन भारतीय साझेदार को अपने उस कारोबार की कुल कीमत में होने वाली जबरदस्त बढ़त का फायदा तो मिलेगा ही। इस समय करीब 28 अरब डॉलर यानी लगभग 1.45 करोड़ रुपये का संगठित खुदरा (रिटेल) क्षेत्र 2020 तक नौ दस गुना हो जाने का अनुमान लगाया जाता है। विदेशी कंपनियों के हाथ में नियंत्रण सौंपने के बाद भी भारतीय साझेदार इस जबरदस्त बढ़त का फायदा तो उठायेंगे ही।
लेकिन अगर यह नियंत्रण एक विदेशी कंपनी के लिए इतना महत्वपूर्ण होता है, तो खुदरा क्षेत्र के हमारे भारतीय दिग्गज इतनी आसानी से इसे छोडऩे के लिए क्यों राजी हैं? केवल राजी नहीं है, बल्कि उतावले हैं और इस पर बेहद खुश हैं। भारतीय कंपनियों को यह बात समझ में आती है कि अगर केक का आकार बड़ा हो रहा है तो इस बात से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता कि आपको उसका 49% मिल रहा है या 51% हिस्सा। तो क्या वे यही बात अपने संभावित विदेशी साझेदारों को नहीं समझा सकती थीं? आखिर अगर एक विदेशी कंपनी को भारत जैसे बढ़ते बाजार में कदम रखने का मौका मिल रहा हो, तो वह नियंत्रण की जिद क्यों करती? लेकिन भारत सरकार ने नियंत्रण जैसी महत्वपूर्ण चीज उन्हें पहले ही थाल में सजा कर दे दी है।
हालाँकि सभी भारतीय कंपनियाँ इतनी आसानी से छोटा भाई बनने को तैयार नहीं होंगी। अगर आप फ्यूचर समूह के प्रमुख किशोर बियानी से पूछें कि क्या वे किसी विदेशी कंपनी को 51% हिस्सेदारी देने के लिए तैयार होंगे या बड़ा हिस्सा अपने पास रखना चाहेंगे, तो वे इस सवाल पर अटक जाते हैं। कहते हैं कि अभी इस पर कुछ कहना जल्दी है। हाल में एक अखबार से बातचीत में उन्होंने कहा है कि वे अपने खुदरा कामकाज के कुछ हिस्सों में एफडीआई लाना चाहेंगे, लेकिन सब में नहीं। उन्होंने यह भी संकेत दिया है कि उन्हें अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा से डर नहीं है। उन्हें भारतीय बाजार में अपनी मजबूती का भरोसा है। लेकिन जिन्हें यह भरोसा नहीं है, वे छोटा भाई बनने के लिए बेताब दिख रहे हैं।
(निवेश मंथन, दिसंबर 2011)