शिवानी भास्कर :
आर्थिक सुधारों और वैश्वीकरण की जिस प्रक्रिया को वित्त मंत्री के तौर पर डॉ मनमोहन सिंह ने 1991 में शुरू किया था, वह हाल में अटक सी गयी थी। जानकारों ने कहना शुरू कर दिया था कि सरकार नीतिगत रूप से लकवाग्रस्त हो गयी है। लेकिन सरकार जब हरकत में आयी और इसने सालों से लंबित कुछ महत्वपूर्ण फैसले किये तो साथ ही विवादों का पिटारा भी खुल गया।
यूपीए-2 की सरकार ने हाल में 24 नवंबर को बहुल-ब्रांड खुदरा (मल्टीब्रांड रीटेल) कारोबार के दरवाजे विदेशी खिलाडिय़ों के लिए खोल दिये। इसके साथ ही एक ब्रांड वाले खुदरा कारोबार में 100% प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) और नये कंपनी विधेयक को भी केंद्रीय मंत्रिमंडल की मंजूरी मिल गयी। इन फैसलों में सबसे महत्वपूर्ण और विवादित है बहुल-ब्रांड खुदरा कारोबार में 51% विदेशी निवेश की मंजूरी, क्योंकि इस फैसले से भारत के खुदरा कारोबार का चेहरा और चरित्र, दोनों पूरी तरह बदल जायेंगे। लेकिन फिलहाल सरकार का यह फैसला ही बदलता दिखरहा है।
भारत का खुदरा बाजार कुल करीब 400 अरब डॉलर का आंका गया है, जिसमें संगठित खुदरा बाजार की हिस्सेदारी केवल करीब 28 अरब डॉलर की है। लेकिन 2020 तक संगठित खुदरा बाजार मौजूदा स्तर से 10 गुना हो जाने का अनुमान है। माना जा रहा है कि अगले पाँच वर्षों में खुदरा कारोबार में संगठित क्षेत्र की भागीदारी 16-18% तक हो जायेगी, जो करीब 75 अरब डॉलर की होगी। औद्योगिक नीति एवं संवद्र्धन विभाग (डीआईपीपी) ने खुदरा क्षेत्र में एफडीआई को अनुमति देने वाले प्रस्ताव पर जो चर्चा पत्र प्रस्तुत किया है, उसके मुताबिक इस क्षेत्र में कुल 2.51 करोड़ लोगों को रोजगार मिला हुआ है। गैर-कृषि तंत्र का कुल 41.8% हिस्सा खुदरा क्षेत्र के तहत आता है। जीडीपी में व्यापारिक क्षेत्र की हिस्सेदारी 15% है, जिसमें से 8% केवल खुदरा क्षेत्र के कारण है। स्वाभाविक तौर पर वॉलमार्ट, कैरफर और टेस्को जैसी विश्व की विशालतम खुदरा कंपनियाँ अपने कारोबार को बढ़ाने के लिए भारत के विशाल बाजार को एक जबरदस्त टॉनिक की तरह देखरही हैं।
अमेरिकी कंपनी वॉलमार्ट दुनिया की सबसे बड़ी खुदरा कंपनी है। इसके कामकाज की विशालता का अनुमान इसी एक तथ्य से लगाया जा सकता है कि इसकी एक साल की वैश्विक आमदनी भारत के कुल विदेशी मुद्रा भंडार से भी करीब सवा गुना ज्यादा है। मार्च 2011 में खत्म हुए वित्त वर्ष के दौरान वॉलमार्ट की कुल आय 422 अरब डॉलर रही थी और इसका मुनाफा 15.4 अरब डॉलर था। दूसरी सबसे ज्यादा आमदनी वाली रीटेल कंपनी फ्रांस की कैरफर ने पिछले साल करीब 121 अरब डॉलर की कमाई की, जबकि इसका मुनाफा करीब 58 करोड़ डॉलर रहा। ब्रिटेन की टेस्को विश्व में आमदनी के लिहाज से तीसरी और मुनाफे के लिहाज से दूसरी सबसे बड़ी खुदरा कंपनी है। इसकी आमदनी 2010-11 के दौरान करीब 82 अरब डॉलर थी, जबकि मुनाफा 3.6 अरब डॉलर। ये कंपनियाँ कई मायनों में भारतीय खुदरा कारोबार की दशा और दिशा बदल देने की क्षमता रखती हैं। इसी को लेकर राजनीतिक तौर पर तमाम तरह की आशंकाएँ जतायी जा रही हैं। कहा जा रहा है कि इनके आने से गली-मोहल्ले के किराना दुकानदारों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा। यह आशंका निर्मूल नहीं कही जा सकती। इन वैश्विक कंपनियों के कारोबार की मात्रा इतना विशाल होगी कि ये बहुत ही कम मार्जिन पर काम करने में सफल रहेंगी। इसका फायदा सस्ते उत्पादों के तौर पर उपभोक्ताओं को तो मिलेगा, लेकिन ज्यादा मार्जिन पर माल बेचने वाले छोटे दुकानदारों के लिए जरूर अस्तित्व का सवाल उठ खड़ा होगा।
कैबिनेट ने बहुल ब्रांड खुदरा कारोबार में आने वाली विदेशी कंपनियों के लिए कुछ शर्तें जरूर तय की हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण शर्त यह है कि इन कंपनियों को अपने कुल निवेश का कम-से-कम 50% अपने बैक-एंड इन्फ्रास्ट्रक्चर यानी खेतों या उत्पादकों से अपने स्टोर तक माल पहुँचाने की आपूर्ति व्यवस्था (सप्लाई चेन) पर खर्च करना होगा। विदेशी कंपनियों को इस क्षेत्र में कदम रखने के लिए कम-से-कम 10 करोड़ डॉलर का निवेश करना अनिवार्य होगा। इस तरह हर ऐसी विदेशी कंपनी को कम-से-कम 5 करोड़ डॉलर यानी करीब 250 करोड़ रुपये अपने बुनियादी ढांचे पर खर्च करने होंगे।
इस फैसले के महत्व को समझने के लिए कुछ आँकड़ों पर गौर करना लाजिमी होगा। भारत में अनाज रखने के लिए ढंके हुए भंडारों की कुल क्षमता केवल 4.2 करोड़ टन है, जबकि इस साल जून तक देश में हुआ कुल अनाज उत्पादन रिकॉर्ड 23.59 करोड़ टन रहने की उम्मीद है। केंद्र सरकार अगले दो साल में ढंके हुए भंडारों की क्षमता में 1.5 करोड़ टन का इजाफा करने की योजना बना रही है, जिस पर कुल 70-80 अरब रुपये का खर्च आने का अनुमान है। लेकिन इतने निवेश के बाद भी हमारे पास अपने अनाज उत्पादन का केवल 25% हिस्सा ही सुरक्षित ढंग से रख पाने की व्यवस्था होगी। अनुमान है कि भारत में पैदा होने वाले कुल फलों और सब्जियों का 30% हिस्सा शीतभंडार (कोल्ड स्टोरेज) की सुविधा नहीं होने के कारण भी बर्बाद हो जाता है। सरकार के आँकड़े बताते हैं कि कोल्ड स्टोरेज की पर्याप्त व्यवस्था न हो पाने के कारण हर साल करीब 58,000 करोड़ रुपये के अनाज की बर्बादी होती है। इसी आधार पर सरकार और एफडीआई समर्थकों का मानना है कि इन विशाल खुदरा कंपनियों की ओर से बैक एंड इन्फ्रास्ट्रक्चर पर अरबों रुपये का निवेश इस नुकसान को रोकेगा और इससे अनाज, फल एवं सब्जियों की महँगाई रोकने में भी मदद मिलेगी।
साथ ही सरकार ने किसानों से खरीद का पहला अधिकार अपने पास रखा। तर्क यह है कि इस नियम के चलते खुदरा कंपनियाँ सीधे किसानों से केवल उतना ही कृषि उत्पाद खरीद सकेंगी, जो सरकार न खरीदना चाहे। इस फैसले यह आशंका खत्म करने की कोशिश की गयी है कि विदेशी कंपनियाँ भारतीय अनाज के सुरक्षित भंडार के लिए खतरा बन कर राष्ट्रीय सुरक्षा को जोखिम में डाल सकती हैं। इसके अलावा गरीबों के लिए चलायी जाने वाली सार्वजनिक वितरण प्रणाली और भविष्य में लागू किये जाने वाले राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक के कार्यान्वयन में भी किसी तरह का जोखिम नहीं रहेगा।
यह भी शर्त जोड़ी गयी कि बहुल ब्रांड खुदरा कारोबार में विदेशी नियंत्रण वाली कंपनियाँ केवल उन्हीं शहरों में अपने स्टोर खोल सकेंगी, जहाँ कम-से-कम 10 लाख की जनसंख्या हो। पूरे देश में 2011 की जनसंख्या के आधार पर ऐसे केवल 53 शहर हैं। इनमें रहने वाली संख्या देश की कुल शहरी आबादी का 42% फीसदी है। शहरी आबादी कुल जनसंख्या का 31% है। यानी 31% शहरी आबादी का 42% ही विदेशी खुदरा कंपनियों के कारोबारी दायरे में आ सकेगा। इस लिहाज से वॉलमार्ट, कैरफर, टेस्को और दूसरी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ देश की कुल जनसंख्या के केवल 13% हिस्से को अपना माल बेच सकेंगी। इस आधार पर एफडीआई समर्थकों का कहना है कि पूरे देश के छोटे कारोबारियों की आर्थिक मौत हो जाने का डर अतिशयोक्तिपूर्ण विश्लेषण है।
इसके साथ ही यहाँ आने वाली विदेशी खुदरा कंपनियों को अपनी घरेलू जरूरतों का कम-से-कम 30% छोटे-मँझोले उद्योगों (एसएमई) से लेना होगा। इससे 10 लाख की आबादी वाले शहरों और उनके अगल-बगल बसे छोटे-मँझोले उद्योगों का कारोबार काफी बढ़ सकता है।
बहुल ब्रांड खुदरा कारोबार के साथ ही एक ब्रांड वाले खुदरा कारोबार में 100% विदेशी निवेश को मंजूरी मिलने से देश में महँगे सामानों के खुदरा कारोबार (लग्जरी रिटेल) को काफी फायदा होने की उम्मीद है। ज्वैलरी, फाइन डाइनिंग, लग्जरी रियल एस्टेट, ग्लोबल ब्रांडेड अपैरल, याट जैसे उत्पादों और सेवाओं में विश्व के सबसे प्रतिष्ठित ब्रांड उतरने की होड़ करेंगे। इससे स्थानीय उपभोक्ताओं के साथ-साथ छोटे उद्योगों को फायदा हो सकता है। नवंबर 2011 के आखिरी हफ्ते में सरकार का यह फैसला अचानक नहीं आया है। आर्थिक सुधारों के पैरोकार और उद्योग जगत पिछले 15 वर्षों से इस फैसले की मांग करते रहे हैं। इसकी शुरुआत हुई थी 1997 में, जब एच डी देवेगौड़ा के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा की सरकार ने कैश एंड कैरी के थोक कारोबार (होलसेल ट्रेड) में 100% प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की अनुमति दी थी। उस समय भी सरकार के इस कदम का पुरजोर विरोध हुआ और इसे पिछले दरवाजे से खुदरा क्षेत्र में विदेशी कंपनियों का प्रवेश करार दिया गया।
इसके नौ साल बाद जनवरी 2006 में इस दिशा में एक और महत्वपूर्ण कदम तब उठा, जब संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) के पहले कार्यकाल में एक ब्रांड वाले खुदरा कारोबार में विदेशी कंपनियों को बहुमत नियंत्रण लायक 51% हिस्सेदारी के साथ निवेश की अनुमति दे दी गयी। उसके बाद बहुल ब्रांड खुदरा में एफडीआई की इजाजत देने की लगातार मांग की जाती रही, लेकिन राजनीतिक दबाव में सरकार इस ओर आगे नहीं बढ़ सकी।जब मई 2009 में यूपीए सरकार ने अपनी दूसरी पारी शुरू की, तो इस बात की प्रबल संभावना बनी कि सुधारों का दौर जोर-शोर से फिर शुरू होगा, क्योंकि यह सरकार वाम मोर्चा के समर्थन पर नहीं टिकी थी। लेकिन ऐसा हो नहीं सका और खुद अपने अंतर्विरोधों और लगातार भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण सरकार एकदम बेदम नजर आने लगी।
हाल में विश्व अर्थव्यवस्था की कमजोरी और नीतियों में ठहराव के करण विदेशी निवेश में भी धीमापन दिखने लगा।जहाँ 2008-09 में 35 अरब डॉलर का एफडीआई भारत में आया, वहीं 2009-10 में 33.1 अरब डॉलर का ही विदेशी निवेश हुआ। अगले साल 2010-11 में यह और कम हो कर केवल 29.4 अरब डॉलर रह गया। रिलायंस इंडस्ट्रीज और बीपी के 7.2 अरब डॉलर के सौदे के कारण 2011-12 की पहली छमाही में निवेश में कुछ बढ़ोतरी देखी गयी है। लेकिन अभी इस पर भी सवालिया निशान लगे हैं। इसी बीच यूरो संकट ने भी पूरी भयावहता के साथ एक बार फिर सिर उठाया है। पश्चिमी अर्थव्यवस्था मंदी की गर्त में फिसलती दिख रही है। इसका असर भारत की विकास दर पर भी दिखने लगा है। कहाँ तो सरकार दहाई अंक में विकास दर की ओर बढऩे की बातें कर रही थी, लेकिन अब विकास दर 7% के भी नीचे आ गयी है। दूसरी तिमाही में भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर केवल 6.9% रही है।सरकारी घाटे का जो लक्ष्य पूरे साल के लिए रखा गया था, उतना घाटा तो आधा वित्त वर्ष बीतते-बीतते ही दिख चुका है।
अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी एसएंडपी ने हाल में अमेरिका की रेटिंग घटायी थी। इसके बाद भारत पर भी ऐसा जोखिम मंडराने लगा। सरकारी कामकाज पर कोई नकारात्मक टिप्पणी करने से बचने वाले दिग्गज उद्योगपतियों ने सुधारों के मोर्चे पर खुल कर सरकार की लानत-मलानत करनी शुरू कर दी। यहाँ तक कि विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) ने भी भारत के घरेलू विकास की बहुचर्चित कहानी पर संदेह जताना शुरू कर दिया। रेटिंग एजेंसियों ने कोई बड़ा कदम न उठाये जाने पर विकास दर 6% से भी नीचे खिसकने की अटकलें जाहिर करनी शुरू कर दीं। ऐसे में सरकार ने कंपनी विधेयक के मसौदे और खुदरा कारोबार में एफडीआई को मंजूरी दे कर दुनिया भर के निवेशकों को एक मजबूत संकेत देना चाहा। लेकिन आधी-अधूरी तैयारी के चलते सरकार का यह कदम उल्टा पड़ गया।
(निवेश मंथन, दिसंबर 2011)