उद्यम
अब मैं मोबाइल के धंधे में आ गया। मैंने मोबाइल ऑपरेटरों से कहा कि कुछ और करें आपके लिए? उन्होंने (मजाक में) कहा कि अच्छा, अब डायरेक्टरी नहीं बनानी है आपको! मैंने उनसे कहा कि क्रिकेट पर कुछ करता हूँ आपके लिए। इंटरनेट के अनुभव से मुझे पता था कि क्रिकेट बहुत चलता है और खबरें बहुत चलती हैं। उस समय मैंने यह भी समझा कि एसएमएस सेवा कम चलती है, आवाज संबंधी सेवाएँ ज्यादा चलती हैं।
ज्यादा लोगों को एसएमएस लिखना आता नहीं था। इसके बदले कहें कि नंबर लिखो, डायल करो 901, तो लोग ये काम कर लेते थे। एक दिन एयरटेल ने मुझे बुलाया और कहा कि हमें लाइव पंडितजी चाहिए। मैंने पूछा कि लाइव पंडितजी का मतलब? उन्होंने बताया कि हमारी एक सेवा है और उसमें हमें अपने साझेदार बदलने हैं। इस सेवा में पंडितजी बैठते हैं उनके दफ्तर में और एक खास नंबर पर आने वाली कॉल हम उन लोगों को फॉरवर्ड कर देते हैं। मैं तैयार था, क्योंकि मुझे तो इन लोगों के साथ काम करना था। उन्होंने पूछा किस हिसाब से पैसे लोगे तो मैंने कहा कि पहले भी 50-50 था, उसी हिसाब से आप पैसे दे दें। इस सेवा के लिए चार रुपये की प्रीपेड कॉल थी और पांच रुपये की पोस्टपेड कॉल। तो हमारा समझौता यह हुआ कि दो रुपये प्रीपेड पर और ढाई रुपये पोस्टपेड पर मिलेंगे।
अब मेरे सामने सवाल था कि पंडितजी कहाँ मिलेंगे। उन्होंने साथ में यह भी कहा था कि कंप्यूटर तुम्हें लगाने पड़ेंगे, फोन तुम्हें खरीदने पड़ेंगे और पंडित जी भी तुम्हारी नौकरी पर रहेंगे। मुझे इन सबके बारे में कुछ भी मालूम नहीं था। पुरानी वाली सेवा में उन्होंने फोन-कंप्यूटर सब दे रखे थे। लेकिन मैंने कहा कि ठीक है, आप बिजनेस चाहते हैं और हम ये काम करना चाहते हैं। इसलिए मैं तैयार हो गया। इस तरह हमारी पहली सेवा चालू हुई लाइव एस्ट्रोलॉजी। मेरे घर वालों को यह बात पता चल गयी। कहने लगे कि कहाँ तुम इंजीनियरिंग कॉलेज से पढ़ कर आये और अब यह सब काम कर रहे हो। मैंने उन्हें याद दिलाया कि हमारा तो समझौता हुआ था कि वे हमें नहीं टोकेंगे। लेकिन फिर भी उन्होंने कहा कि अब तुम जन्मपत्री भी छापोगे! कब से चालू कर रहे हो जन्मपत्री का धंधा? मैंने कहा कि करनी पड़ेगी तो वह भी कर लेंगे और अब इन सब चीजों पर हमारी बातें नहीं होंगी। पर मेरे घरवालों ने मेरा बहुत मजाक उड़ाया।
इस काम में मैं और आगे गया। मैंने यह समझ लिया कि कॉल सेंटर से तो काम ज्यादा बड़ा होगा नहीं। इसलिए अब मशीन लगाते हैं। एक आईवीआर मशीन होती है, जिससे आप अगर फोन करें तो वह मशीन जवाब देती है। मैं सोचने लगा कि यह कैसे मिलेगी। क्रिकेट के स्कोर दरअसल मशीन से ही चलते थे। अब मैं ऑपरेटर के पास गया मशीन के लिए, कि सर आप मुझे क्रिकेट स्कोर वाली मशीन चलाने के लिए दे दें। उन्होंने कहा, हमें मालूूम है तुम्हारे ऑफिस में कौन लोग बैठे हुए हैं। मतलब वे मानने को तैयार नहीं थे कि मैं ये कर भी सकता हूँ। मैं बताने लगाकि मैं इंटरनेट का आदमी हूँ, मुझे मालूम है यूजर एक्सपीरिएंस क्या होता है, आपकी जो सर्विस चल रही है वह बहुत घटिया है, यूजर्स को समझ में नहीं आता, ये-वो। और उस समय क्या उम्र थी मेरी, मैं 22 साल का ही था। मुझे अब समझ में आता है कि वे क्यों हँसते रहते थे। वे कहते थे, तुम अभी छोटे हो, बहुत सारी बातें करते हो, थोड़ी कम बातें किया करो! मैंने कहा नहीं, नहीं आप देखो तो सही। मेरी एक समस्या यही थी कि मैं उम्र में छोटा था, और दूसरी समस्या यह थी कि मैं बड़े साफ ढंग से कोई भी बात उत्साह से बोल देता था।
उसी समय एयरटेल ने अपनी पंजाबी सेवा शुरू की। उनका बजट वहाँ बढ़ गया था क्योंकि उन्हें काफी जुर्माना भरना पड़ा था। दिल्ली वालों ने मुझसे कहा कि तुम पंजाब जाओ। मैं गया उनके पास। लेकिन इसी बीच एक बड़ी उलझन हो गयी थी। ऑपरेटर से मिलने वाले पैसे देर से आने के कारण मेरे अपने बचा कर रखे गये पैसे भी खर्च हो गये। ऑपरेटर किसी महीने के बिल के पैसे तीन महीने बाद देते हैं। इसकी वजह से मेरे हाथ में पैसे नहीं रह गये थे। खैर, इस हालत में मैं पंजाब गया। उन्हें बताया कि मैं आपके लिए क्रिकेट कर सकता हूँ, म्युजिक कर सकता हँू। ये सेवाएँ मेरी समझ में आ गयी थीं। उस समय बाजार में इन सेवाओं का चलन बना नहीं था, लेकिन मुझे समझ में आ रहा था।
जब उनसे बात चली, तो उन्होंने सब कुछ सुना, कहते रहे कि वेरी गुड, वेरी गुड। फिर उन्होंने पूछा, कितने रुपये लगेंगे? तब 12 लाख रुपये की मशीन आती थी। मैंने कहा, 16 लाख रुपये लगेंगे और आप सिस्टम मेंटेनेंस के पैसे अलग से दे दीजिए। वे कहने लगे, तुम तो अभी ऐसे बोल रहे थे जैसे तुम्हें इस सेवा पर काफी विश्वास है। मैंने कहा, यकीन करता हँू तभी बेचने आया हूँ। उन्होंने पूछा, तो बेच क्यों रहे हो, हमारे पास पैसे नहीं हैं।
मैं अकबका गया। भाई पैसे नहीं हैं तो बुलाया क्यों था, चंडीगढ़ तक शताब्दी के पैसे खर्च करवा दिये। उन्होंने कहा कि तुम्हारे लिए हमारे पास एक सौदा है। तुम दिल्ली में पंडितजी चलाते हो 50% पर। हम भी इसको 50-50 कर लेंगे। तुम अपनी मशीन लगाओ, अपनी सामग्री (कंटेंट) लगाओ और अपनी सेवा चलाओ। मैं इसका प्रचार कर दँूगा और इसके सदस्य बनवा दँूगा। सेवा आप चलाना, 50-50 कर लेंगे। बोलो, मंजूर है कि नहीं। मैंने सोचा यह बात तो सही है। दिल्ली में 50% पर पंडितजी की लागत निकल जाती है तो यहाँ मशीन की लागत तो कभी-न-कभी निकल ही जायेगी। मैंने सोचा कि अभी मशीन के 16 लाख रुपये तो बैंक में हैं नहीं, कहीं-न-कहीं से मिल जायेंगे। फिर मैंने कहा, आप सेट-अप के पैसे दे दो। तो उन्होंने कहा कि सौदा बड़ा सीधा-सादा है, बस 50-50 करेंगे, अलग से कुछ मिलेगा नहीं। मर्जी हो तो ले लेना।
मैंने अपने एक दोस्त को फोन मिलाया। उसने कहा कि सौदा कर लो। तो हमने मिल कर यह सौदा कर लिया। एक तरह से उस समय हम लोग मोबाइल पर वैल्यू ऐडेड सेवाओं के पूरे क्षेत्र का आय में साझेदारी (रेवेन्यू शेयर) का कारोबारी मॉडल तय कर रहे थे। इसके बाद इस क्षेत्र में 100% सौदे आय में साझेदारी के तरीके से चले, जिस पर हमने उस बातचीत में चर्चा की थी। इस उद्योग के लिए यह एक निर्णायक पल था।
मैं वापस दिल्ली आया। यहाँ एक व्यक्ति से बात की जिनको मैं जानता था। मैंने उनसे कहा कि आप किराये पर सर्वर दे दो। हमारे पैसे तो पहले ही खत्म हो गये थे। उन्होंने कहा कि महीने के 50 हजार रुपये पर मिलेगा और सिस्टम मेरा ही रहेगा। मैंने कहा इसमें थोड़ा सा एप्लिकेशन और लगवा दो। कहने लगे एप्लिकेशन में बदलाव के अलग से पैसे लगेंगे। उसके डेढ़ लाख रुपये लगे। कुल मिला कर पहले महीने के किराये सहित मुझे दो लाख रुपये का खर्च करना पड़ा। मैंने अपने दोस्तों की मदद से पैसों का इंतजाम किया और उनसे सर्वर लिया। उन्होंने सर्वर लगाने वगैरह में भी कोई मदद नहीं की थी। मैं अपने एक दोस्त की कार में सर्वर लेकर चंडीगढ़ गया, और वहाँ सर्वर को उनके नेटवर्क से जोड़ कर यह सेवा चालू की।
पंजाब में गाने खूब चलते हैं। गानों के लाइसेंस का किस्सा भी खूब मजेदार है। मैंने इंडिया टुडे के लोगों से बात करके पूछा कि गानों के लाइसेंस का क्या चक्कर होता है। उन्होंने कहा कि ऐसा कुछ है ही नहीं, मोबाइल में तो ऐसा कुछ होता ही नहीं है। फिर हमने तय किया कि गानों की सीडी बेचने वाली कंपनी म्युजिक वल्र्ड को सीडी की लीज दे देंगे और वे मुफ्त में म्युजिक दे देंगे। उस समय लाइसेंस का कोई हिसाब था ही नहीं। सेवा चालू होने के पहले महीने में कुछ नहीं मिला, दूसरे महीने थोड़ी आमदनी हुई। तीसरे महीने में 55 हजार रुपये आ गये। हे भगवान, यह सेवा तीसरे महीने में ही अपना खर्च निकालने लग गयी! इतनी जल्दी!
जब मैंने 6-7 महीने यह सेवा चला ली तो मुझे फिर से यह ध्यान आया कि लाइसेंस का कुछ करना होगा। मैंने इंडियन परफॉर्मिंग राइट्स सोसाइटी (आईपीआरएस) से बात की। उनकी कुछ समझ में नहीं आया कि क्या करना है। उन्होंने बताया कि इंटरनेट का तो लाइसेंस होता है, लेकिन मोबाइल का नहीं होता। मैंने उनसे कहा कि आप हमसे इंटरनेट जितना ही पैसा ले लें और हमारे लाइसेंस में बस उसकी जगह मोबाइल शब्द लिख दें।
उन्होंने कुछ लाखों का खर्च बताया। मैंने कहा कि सर, छोटी कंपनी है, आप 50,000 रुपये ले लो। और उन्होंने हमें 10 साल का लाइसेंस 50,000 रुपये में दे दिया मोबाइल के लिए!
अब मैंने रिंगटोन वगैरह भी लगा दिये, पंजाब में धंधा चालू हो गया। फिर दूसरे ऑपरेटर के पास गया, तीसरे ऑपरेटर के पास गया, एयरटेल के भी दूसरे सर्किलों में गया। एयरटेल की सेवाएँ जहाँ-जहाँ शुरू होती जा रही थीं, वहाँ-वहाँ मैं भी जा रहा था। फिर मैंने क्रिकेट की सेवा भी चालू कर दी। मेरा सौदा ऑपरेटरों के लिए बड़ा ही सरल था। आम तौर पर जो कंपनियाँ आती थीं, वे सिस्टम की लागत, ऐप्लिकेशन की लागत वगैरह सब चीजें जोड़ कर अपना शुरुआती खर्च बताती थीं, और उसके बाद रखरखाव (मेंटेनेंस) के पैसे मांगती थीं। मेरे सौदे में कोई शुरुआती खर्च नहीं था, और बस आमदनी में 50% हिस्सा। इसलिए मुझे फटाफट काम मिलता चला गया।
अब मैं मेकिंजी वन97 मोबाइल इंटरटेनमेंट स्टडी होने के सपने देखने लगा। जब मैं दिल्ली में किसी ऑपरेटर से बात करता था तो उनसे कहता था कि मोबाइल इंटरटेनमेंट का कारोबार काफी बड़ा होगा। वे कहते थे कि तुम सपने काफी बड़े-बड़े देखते हो! मैं कहता था कि नहीं नहीं, आप बात मानो। यह सच में बड़ा होगा। मैं यह बात ऑपरेटर को बता रहा था! मैं कहता था कि मैं सब जगह इंटरटेनमेंट (सेवाएँ देने का काम) करता हूँ, मुझे सब जगह की बात मालूम है।
अच्छे दिन चल रहे थे। भुगतान थोड़ी देर में मिलता था। जिनसे चीजें लेता था, उनसे कहता था कि 50,000 रुपये तो दे ही दूँगा। अभी नहीं आये, जैसे ही पैसे आयेंगे वैसे ही भेज दूँगा। इस तरह उनकी देनदारियाँ इकट्ठी होने लगीं। पहले दो लाख, फिर चार-पाँच लाख। और इस तरफ अपने भुगतान में देरी होने लग गयी। उसी बीच जब मेरा धंधा चल गया तो बेंगलूरु की एक कंपनी ऑनमोबाइल आयी और उसने ऑपरेटर के मुख्यालय में अपनी सेवाएँ बेचने की जोरदार कोशिश की और कहा कि हम करेंगे यह सब। उस समय काफी चीजें एक साथ हुईं। एयरटेल ने बड़ी कंपनी देख कर केंद्रीय स्तर पर उन्हें सारा काम दे दिया। हमें वे बड़ा आदमी मानते ही नहीं थे, इसलिए हमें उन्होंने वह विकल्प ही नहीं दिया। हमारी सेवाएँ चलती रहीं, लेकिन उसकी सारी आमदनी दूसरी तरफ चली गयी। पैसों के भुगतान में देरी होती रही।
मेरे सप्लायर को एक बड़ा काम मिला, उसके चलते उसने मुझसे अपने बकाया पैसे माँगे। उसके आठ लाख रुपये बकाया थे। बाजार से पैसे मिल नहीं रहे थे। प्रतिस्पर्धा अलग झेलनी पड़ रही थी। कर्ज ले कर उसके आठ लाख रुपये चुकाये। इन पैसों के लिए मैं अपनी बहन के यहाँ गया, 24% ब्याज पर पैसे लिये। मेरे पिता इस बात की अनुमति नहीं देते, लेकिन मैंने कहा कि मुझे पैसे चाहिए ही।
यह काफी कठिन समय था। तभी नयी मशीन लगाने की जरूरत पड़ी। मैं एयरटेल वालों से कहता था कि आपने हमारा धंधा दूसरों को दे दिया। दूसरा आदमी बेचने को तैयार नहीं था, वह आदमी आपसे करोड़ों माँग रहा था लगाने के, आपने उसे मेरा कारोबारी मॉडल दिखाया कि देख यह कितना कमाता है। एयरटेल के ही एक व्यक्ति ने मुझे कहा कि तुम अच्छे आदमी हो, एचएफसीएल चले जाओ, वहाँ उन्हें शायद जरूरत है।
मैं पंजाब गया एचएफसीएल के पास। वहाँ भी लागत कम रखने की बातें थी, जिसके चलते बड़ी कंपनियाँ उनके पास जाती नहीं थीं। उन्होंने कहा कि आप लगा दो मशीन, आप तो इसी तरह (आय में हिस्से पर) काम करते हो। मैंने कहा कि सर, सेटअप के लिए पैसे चाहिए। उन्होंने कहा, क्यों यार ऐसी क्या समस्या है। मैंने बताया कि हाथ में नकदी नहीं है, आप अभी पैसे दे दो, बाद में काट लेना।
फिर उन्होंने बताया कि सेकेंड हैंड मशीन के लिए इसको फोन कर लो, सेकेंड हैंड कार्ड के लिए उसको फोन कर लो। उसने कुल मिला कर मुझे रास्ते बताये। मैं वापस आया, थोड़े से पैसे फिर से लिये। एक सेकेंड हैंड कंप्यूटर ले कर फिर से सर्वर बनाया। अपनी जिंदगी में मैंने एक साल ऐसा गुजारा, जब मेरे पास किराये के पैसे नहीं होते थे और कभी-कभी खाने के लिए भी पैसे नहीं रहते थे। मैं रात के 11 बजे के बाद लौटता था, यह देख कर कि अब मकान मालिक सो गये होंगे। वे सुबह-सुबह उठ कर अपने नौकर को भेजते थे - साहब जी पैसे के लिए बोल रहे हैं। मैं टरका देता था। जो पैसे आते थे, वह लोगों के वेतन के लिए डाल देता था। मैं कंपनी से अपना वेतन तो लेता नहीं था। जब थोड़े से पैसे रहते थे तो हम मूलचंद के पास पराठे खा रहे होते थे। लेकिन एक बात बहुत साफ थी कि मैं यह काम छोड़ूँगा नहीं। बड़ी मुश्किल जिंदगी थी, बिल्कुल पैसे नहीं। पहली कंपनी में मेरे जो दोस्त थे, वे अमेरिका चले गये थे। बढिय़ाँ नौकरियाँ कर रहे थे। यहाँ मेरे माता-पिता की उम्मीदें मुझसे खत्म ही हो गयी थीं। जिंदगी बस नीचे नीचे नीचे चली जा रही थी और कोई उम्मीद नहीं दिख रही थी। लेकिन उस समय भी मेरे पंडित जी बड़ी मजेदार बातें कहते थे। वे कहते थे कि सर, आप मानो या ना मानो आपका राजयोग या ऐसा ही कुछ है। मैं हँस कर कहता था कि अब कुछ और नहीं चलेगा तो आप ही मेरी उम्मीद हैं। वे कहते थे कि नहीं नहीं, मैं शर्त लगा सकता हूँ। मैंने कहा धन्यवाद! मैं ज्योतिष वगैरह मानता नहीं हूँ। मुझे अपनेआप से कोई दिक्कत नहीं थी। लेकिन मेरे घर वाले पीछे से मेरी शादी की तैयारी करने लग गये थे। मैं 25 साल का हो गया था। मैं इंजीनियर था, इसलिए उनकी काफी उम्मीदें थीं। लेकिन (शादी की बात पर) उनको लोग जवाब नहीं देते थे। शायद मेरे पिता को लगा कि यह लड़का शादी नहीं कर पायेगा। हम लोग ऐसे इलाके से हैं, जहाँ देरी से शादी को अच्छा नहीं माना जाता। मेरी माँ भी इस पर चर्चा करने लगी। मैं पहले इसके लिए लोगों से मिलता नहीं था, फिर मिला, लेकिन समझ में नहीं आता था कि क्या करूँ। एक लड़की के माता-पिता जब मिलने आये तो बोले कि तुम्हारे पिता नहीं जानते तुम क्या कर रहे हो? मतलब यह था कि उन्हें तुम्हारी शादी के लिए बात आगे नहीं बढ़ानी चाहिए थी!
मेरे ऊपर परिवार का दबाव बढऩे लगा। मेरे पिता कहने लगे कि तुम अब नौकरी कर लो। यह 2004 का समय था। रोना तो छोटी बात है, वह तो अक्सर आ जाता था, लेकिन उस वक्त मेरा दिल टूटने लगा। मैंने पहले एक चीज खोजी, उसे अच्छा चलाया और मेरे प्रतिस्पर्धी ने बिल्कुल मेरा कारोबारी मॉडल समझा और उसी को अपना कर मुझे मारा। उनके पास इन्फोसिस कंपनी का नाम था, करोड़ों डॉलर की पूँजी थी। यहाँ मैं शून्य था, अस्तित्व बचाने के लिए नौकरी की बात कर रहा था। मैंने एक दो बार तो मना किया। लेकिन फिर लगा कि अब नौकरी के बारे में सोचना चाहिए। मैंने सोचा कि पंडित जी चलाने के लिए किसी को दे देता हूँ, बाद में दोबारा देख लेंगे।
लेकिन नौकरी खोजने में भी बड़ी दिक्कत थी। मुझे पता ही नहीं था कि अब मुझे कैसी नौकरी मिलेगी। मैं प्रोग्रामर तो हूँ नहीं। मैं एमबीए हूँ नहीं, इसलिए मार्केटिंग की नौकरी मिलेगी नहीं। मैं तो एक कंपनी चला रहा था। मैं सोच रहा था कि क्या मैं किसी प्रशासनिक (ऐडमिनिस्ट्रेशन) नौकरी के लिए कोशिश करूँ। नौकरी के लिए मेरी और कोई जॉब प्रोफाइल नहीं थी।
इसी समय एक दिलचस्प वाकया हुआ। मैं इंटरनेट का विशेषज्ञ तो था ही, इसलिए अपने खर्चे चलाने के लिए मैं एक दिन के इंटरनेट प्रशिक्षण की कक्षाएँ भी चलाता था। कभी मैं किसी के घर जा कर इंटरनेट कनेक्शन भी ठीक कर देता था, 500 रुपये मिल जाते थे। इसी सबके बीच मैं एक सज्जन से मिला, जिनकी इंटरनेट की कंपनी थी पोलर सॉफ्टवेयर लिमिटेड। वे साइनडोमेन नाम से डेडिकेटेड होस्टिंग वगैरह का काम करते थे, कंपनी ठीक नहीं चल रही थी। किसी ने कहा कि उनसे जा कर मिल लो, कुछ काम करवाना चाहते हैं। मैं जा कर उनसे मिला। मैंने उनका सारा काम कर दिया, पूछा कितने पैसे मिलेंगे। उन्होंने कहा कि आप हमारे सीईओ बन जाओ। मैंने कहा कि मैं सीईओ नहीं बन सकता, क्योंकि मेरी अपनी कंपनी है। उन्होंने कहा कि आप बड़े अच्छे आदमी हैं, आप आधे-आधे ढंग से काम कर लें। बात यह हुई कि मैं आधा दिन अपनी कंपनी के लिए काम करूँगा और आधा दिन उनकी कंपनी के लिए। मुझे लगा कि यह तरीका ठीक है। उन्होंने आधे दिन के हिसाब से मेरा वेतन 25,000 रुपये रखा। यह काम शुरू हो गया। मैंने घर वालों को बता दिया था कि मैं सीईओ बन गया हूँ। उन्हें यह सुन कर लगा कि इसने कुछ ढंग का काम किया है।
जब मैं इन दोनों चीजों के बीच भाग-दौड़ कर रहा था तो पोलर सॉफ्टवेयर वालों ने पूछा कि तुम इतनी भाग-दौड़ क्यों करते हो? मैंने उन्हें बताया कि यह काफी अच्छी चीज है, मुझे उस पर भरोसा है और मोबाइल में काफी बढ़त की संभावना है।
उन्होंने सारी बातें सुनने के बाद कहा कि मैं तुम्हारी कंपनी के लिए कुछ कर सकता हूँ क्या? मैंने उन्हें बताया कि मैं अभी उसमें कर्ज चुका रहा हूँ, यह उसकी दिक्कत है। उन्होंने कहा कि मैं कंपनी में आठ लाख रुपये का निवेश कर देता हूँ, उससे वह कर्ज चुका लो। उन्होंने आठ लाख रुपये दे दिये और मैंने कर्ज लौटा दिया। तब मैं कुछ नहीं जानता था कि कितनी इक्विटी मिलेगी। उन्होंने अपने ही दफ्तर में काम करने की जगह दे दी कि तुम लोग यहीं आ जाओ। इस तरह फर्नीचर भी मिल गया। और इन सबके लिए उन्होंने 40% इक्विटी ले ली! बाद में उन्होंने 87 करोड़ रुपये नकद में वह इक्विटी बेची। आप यह न सोचें कि मैंने केवल आठ लाख रुपये में 40% हिस्सा बेच दिया। आखिर उसके साथ में फर्नीचर भी तो था! और यह एक घाटे में चल रही कंपनी थी।
लेकिन वे एक देवदूत (एंजेल) थे, उन्होंने मुझे बचाया। अगर उस समय वे पैसे नहीं आते तो पक्के तौर पर मैं अभी कोई नौकरी कर रहा होता। अभी इस बात पर हँसना आसान है, लेकिन सच यह है कि आज मैं उसी घटना के कारण इस मुकाम पर हूँ। तो इस तरह जिंदगी ने एक नया मोड़ लिया। कर्ज चुक गया। पैसे तो कंपनी में आ ही रहे थे। काम को फिर से आगे बढ़ाया। अब फिर से ऑनमोबाइल से प्रतिस्पर्धा हमारी सबसे बड़ी चुनौती थी। जब मेरे सर्वर जा रहे थे, तब मैंने एक प्रण लिया था कि वॉयस के ये सर्वर बहुत महँगा है ना, 12 लाख रुपये का, एक दिन देश में सबसे ज्यादा सर्वर मेरे ही होंगे। यह एक तरह से डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर है।
फिर से कड़ी मेहतन से काम चालू हुआ और अपने पास कुछ आमदनी भी आने लगी। अब मैं प्रीपेड पर ज्यादा ध्यान देने लगा। मैंने सामग्री (कंटेंट) से अपना ध्यान हटा कर बाकी चीजों पर ध्यान देने लगा, जैसे अनबिल्ड एमाउंट, बेस्ट ऑफर वगैरह। मुझे यह समझ में आ रहा था कि मोबाइल ऑपरेटर का बड़ा कारोबार प्रीपेड का है और अपनी सेवाओं की मार्केटिंग उसके सामने एक बड़ी समस्या है। टेलीविजन पर विज्ञापन देना महँगा पड़ता है क्योंकि हर विज्ञापन सबके पास नहीं पहुँच पाता। साथ में लोगों को यह तरीका नहीं आता कि उस सेवा को कैसे चालू करेंगे। मैंने यहाँ इंटरनेट वाला तरीका अपनाया, कि एक पोर्टल बनायेंगे जिस पर लोग आ कर ब्राउज करके देखेंगे कि क्या-क्या उपलब्ध है और फिर उस सेवा को चालू कर लेंगे। मोबाइल पर जो टोलफ्री नंबर होते हैं, जैसे 121 या 111, वह सब हम चलाते हैं। उसके आगे की सेवाएँ हम चलाते हैं। मैंने यह सोचा कि तुमने कंटेंट का खेल खेला, मैं उससे बड़ा खेल खेलूँगा। अब सब चीजें ग्राहक को मैं बेचा करूँगा और तुम्हारे सामान का नियंत्रण भी मैं करूँगा। पहले मैं एक सामान था, अब तुम एक सामान हो, मुझे हटा दिया। अब इस सामान को ग्राहक के पास ले जाने का काम एक बेचने वाली कम्युनिकेशन कंपनी करेगी, एक मार्केटिंग कंपनी करेगी, मैं वह कंपनी बन जाता हूँ। इस तरह मैं तुम्हारे आगे खड़ा हो गया। और मैं ना, सारी चीजें बेचूँगा। प्रीपेड का टॉप-अप, एसएमएस का प्लान। आपके पास एक आउटबाउंड कॉल आती है, जो एक मशीन से आती है। उसमें एक ऑफर के बारे में बताया जाता है। फिर आप एक नंबर दबाते हैं। जब मोबाइल मार्केटिंग एक बज वर्ड नहीं बना था, उस समय हमने यह काम शुरू किया। बाजार में रिंग टोन आया तो मैं वह बेचने लगा। जब भी मैं ग्राहक को एक रिंग टोन बेचता हूँ तो मुझे उस कमाई का एक हिस्सा मिल जाता है।
ऑनमोबाइल को लग रहा था कि हम बनाते हैं, हमारी चीज बिकती है। बेचने वाले 10 होंगे, क्या फर्क पड़ता है। लेकिन वह केवल एक सामान बना रहे थे और हम उसे बेचने का प्लेटफॉर्म तैयार कर रहे थे। वे निर्माता थे, जबकि मैं खुदरा विक्रेता था - ऐसा खुदरा विक्रेता, जिसके पास हर आदमी आ कर सामान खरीदेगा। 121 जैसी सेवाओं को चलाना और उसका पूरा बुनियादी ढाँचा देना मेरा काम है। उसके अंदर क्या डलेगा, किस तरह के विकल्प दिये जायेंगे, वगैरह चीजें हम करते हैं। हम ऑपरेटर के साथ मिल कर किसी सेवा का टैरिफ प्लान बनाते हैं, फिर उसे ग्राहक के पास ले जाते हैं।
फिर एक दिन मैंने तय किया कि हम भी अपना कंटेंट चालू कर देते हैं। हमने फिर से अपना कंटेंट बना कर बेचना चालू कर दिया। लेकिन हमने यह नियम बना दिया कि हम केवल सब्सक्रिप्शन वाला कंटेंट बेचेंगे। जब हमने यह तरीका चुना तो सारे लोग सब्सक्रिप्शन के मॉडल पर आ गये। लेकिन हमें पता होता था कि लोग क्या चाह रहे हैं, इसलिए हमारा कंटेंट काफी आकर्षक हुआ करता था।
अब आज की हालत यह है कि उनके 11 करोड़ रुपये के तिमाही मुनाफे की तुलना में हमारा मुनाफा 18 करोड़ रुपये का है। हमारे बढऩे की रफ्तार उनसे ज्यादा है। अभी मैंने पैसे जुटाये, जो उनकी तुलना में दोगुने मूल्यांकन पर लिया है।
लेकिन आज मैं इस बारे में सोचता हूँ कि मेरी महत्वाकांक्षा यह तो नहीं थी। यह एक मील का पत्थर था, अब हम जिंदगी में एक नये मोड़ पर चले गये हैं। अब हम ग्राहकों पर केंद्रित कंपनी हैं, जिसके अपने उत्पाद हैं, सेवाएँ हैं, ब्रांड हैं। हमने पे टीएम डॉट कॉम नाम से एक सेवा शुरू की है, जिसका मतलब है पे थ्रू मोबाइल। इसमें हम ग्राहकों को जो सबसे पहली चीज बेचते हैं, वह है टॉपअप। इसके जरिये आप अपने बैंक खाते से भुगतान कर सकते हैं। इस तरह से अब हम एक पेमेंट प्लेटफॉर्म भी बन गये। अब हमारे लक्ष्य बिल्कुल अलग तरह के हो गये हैं। अब मोबाइल इंटरनेट का जमाना है, ऐप्लिकेशनों का जमाना है। अब हमारा कारोबार उस दिशा में बढऩे लग गया है।
पिछले साल हमने 183 करोड़ रुपये की आमदनी हासिल की और करीब 36-38 करोड़ रुपये का मुनाफा था। इस साल की आमदनी के बारे में अभी कुछ कहना ठीक नहीं है। हमने आईपीओ लाने की भी कोशिश की। वह पिछले साल दिसंबर का समय था। हमारा डीआरएचपी (ड्राफ्ट रेड हेरिंग प्रॉस्पेक्टस) भी आरएचपी में बदल गया था। लेकिन उसी बीच शेयर बाजार में स्थितियाँ बदलने लगीं। मँझोले शेयरों पर लोगों का भरोसा कम होने लगा। उसके बाद तो शेयर बाजार लगातार फिसलता ही रहा। इसलिए हमने वह कोशिश छोड़ दी।
फिर हमने प्राइवेट इक्विटी से पैसा जुटाया। हमारा सोचना यह था कि बैंक में 100 करोड़ रुपये की नकदी होनी चाहिए। इस पैसे से हम मोबाइल इंटरनेट में आगे बढऩा चाहते हैं। जमाना मोबाइल इंटरनेट का ही है। अब हमारा कारोबार दूसरी तरह का है, हमारी प्रतिस्पर्धा में दूसरे तरह के लोग हैं। अब हमारी दूसरी यात्रा शुरू हो रही है। इसमें हर व्यक्ति जो इंटरनेट का काम कर रहा है, वह हमारा प्रतिस्पर्धी है और हर व्यक्ति जो मोबाइल का काम कर रहा है, वह भी हमारा प्रतिस्पर्धी है।
(निवेश मंथन, अक्तूबर 2011)