गिरीश बत्रा़, नेटऐंबिट के सीएमडी
आज भले ही आप मोबाइल पर बीमा या क्रेडिट कार्ड की कॉल से परेशान होते हों, लेकिन 8-10 साल पहले फोन पर वित्तीय सेवाएँ बेचने की बात सोचना मुश्किल था। गिरीश बत्रा ने सीधी बिक्री के परंपरागत मॉडल को बदल कर नयी राह चुनी, जिससे उनकी कंपनी आज 4000 लोगों की कंपनी बन चुकी है। नेटऐंबिट के सीएमडी गिरीश बत्रा से एक खास बातचीत...
नेटऐंबिट का कारोबार कितना फैला है और कितना बड़ा हो पाया है?
—नेटऐंबिट वित्तीय सेवाओं (फाइनेंशियल सर्विसेज) का वितरण करती है। इसे वित्तीय सेवाओं का सुपर मार्केट कह सकते हैं। हम हर तरह के वित्तीय उत्पाद बेचते हैं, जैसे बीमा (इंश्योरेंस), कर्ज, क्रेडिट कार्ड, कॉर्पोरेट एफडी वगैरह, जिनकी एक आम आदमी को जरूरत होती है। कर्ज में हम घर कर्ज (हाउसिंग लोन), निजी कर्ज (पर्सनल लोन) दोनों दिलाते हैं। बीमा में वाहन बीमा (ऑटो इंश्योरेंस), स्वास्थ्य बीमा (हेल्थ इंश्योरेंस) वगैरह सब कुछ बेचते हैं। लगभग सभी ब्रांड के साथ हमारी साझेदारी है। करीब 150 शहरों में हमारी सेवाएँ हैं। हम 4,000 से कुछ ज्यादा लोगों की कंपनी हैं। हमारी आमदनी पिछले साल 100 करोड़ रुपये के आसपास रही। इस साल हम 150-160 करोड़ रुपये की आमदनी हासिल करेंगे।
आपने भारतीय प्रबंध संस्थान (आईआईएम) अहमदाबाद से पढ़ाई की और 3 साल तक नौकरी भी की। आखिर कब लगा कि नौकरी छोड़कर कुछ अलग करना है?
—यह सोच तो बहुत पहले से थी। पहले ऐसा लगता था कि अगर पैसा कमाना है तो उसके लिए अपना कारोबार करना है। लेकिन बाद में जब मैं अहमदाबाद में एमबीए कर रहा था तो यह अहसास हुआ कि कारोबार केवल पैसा कमाने के लिए नहीं होता। यह समझ में आया कि अपना कुछ करना दरअसल एक बड़ा संगठन खड़ा करना है। आपको उससे कुछ बनाने का सुख मिलता है। उस सोच के साथ मैंने साल 2000 में इस कंपनी को प्रारंभ किया।
यही क्षेत्र क्यों चुना आपने?
—जब मैंने काम शुरू किया तो उस समय यह क्षेत्र नहीं चुना था। हम साल 2000 में ऑनलाइन कंपनियों को ऑफलाइन सेवाएँ देते थे। जब डॉट कॉम का बुलबुला फूटा तो उसके बाद हम दूरसंचार (टेलिकॉम) सेवाओं के वितरण (ड्रिस्टीयूशन) में आये। कोई भी उद्यमी जब एक नया कारोबार शुरू करता है तो बाद में कुछ बदलाव आते ही हैं। मैंने बड़े कम ही लोग देखे हैं जो शुरुआती दौर के कारोबार के साथ ही टिके रहते हैं।
तो आपकी शुरुआत कैसे हुई?
—सबसे पहले 1 लाख रुपये से कारोबार शुरू किया। उस समय बहुत इंटरनेट कंपनियाँ थीं, जिनका ऑनलाइन मॉडल काफी मजबूत था। उनकी बेवसाइट अच्छी थी, वेबसाइट पर काफी लोग आ रहे थे, लेकिन उनका ऑफलाइन ढाँचा कुछ नहीं था। ऑफलाइन मतलब जमीनी स्तर पर ऐसा बुनियादी ढाँचा, जिससे वे अपने ग्राहकों को पूरी सेवाएँ और जानकारी दे सकें, सामग्री (कंटेंट) तैयार कर सकें, ग्राहकों को जोड़ सकें। उन कंपनियों में ज्यादातर सॉफ्टवेयर क्षेत्र के लोग थे, जिनको सेल्स और मार्केटिंग का जमीनी स्तर का अनुभव नहीं था। लेकिन मेरा अनुभव ऐसा था, क्योंकि मैंने एफएमसीजी कंपनी में काम किया था। इसलिए यह मुझे एक अच्छा मौका लगा।
शुरुआत में हमने हिंदुस्तान टाइम्स के पोर्टल गो फॉर आई डॉट कॉम के लिए सामग्री (कंटेंट) तैयार किया था, उसकी येलो पेज की लिस्टिंग भी हमने की। सत्यम इन्फोवे के तीन बी टू बी पोर्टल थे। हमने उनके लिए कंपनियों की लिस्टिंग की थी। एक एसएमई पोर्टल था, जिसके लिए छोटी-मँझोली कंपनियों के पास जाते थे। इस तरह की गतिविधियों से हमने शुरू किया। उसमें बहुत अच्छी सफलता भी मिली।
लेकिन डॉट कॉम का बुलबुला फूटने के बाद आपको नये सिरे से सब कुछ सोचना पड़ा?
—हाँ, हमारे सामने दूसरे विकल्प खोजने के अलावा और कोई चारा नहीं था। संयोग से हमें एयरटेल के साथ जुडऩे का मौका मिला और हम एयरटेल के एसएमई पाटनर बन गये। हमने करीबन एक-डेढ़ साल एयरटेल के साथ काम किया। उसके बाद ये महसूस हुआ कि अब कुछ ऐसा करना चाहिए, जिसे बड़ा बनाया जा सके, देश भर में फैला एक संगठन बन सके, जिसे आगे चल कर आप शेयर बाजार में सूचीबद्ध (लिस्ट) करा सकें। उस समय वित्तीय सेवाओं का विकल्प दिखा।
उस समय बाजार में काफी वित्तीय उत्पाद आ रहे थे, निजी कंपनियाँ आ रही थीं। निजी बीमा (इंश्योरेंस) कंपनियाँ खुल रही थीं, निजी बैंक खुल रहे थे। उन सबके पास वितरण (डिस्ट्रीयूशन) के बहुत साधन नहीं थे। वे खुद ही वितरण सँभालते थे। किसी भी क्षेत्र में खुद वितरण सँभालना महँगा होता है। दूसरी बात यह है कि जब उपभोता के पास कोई कंपनी अपना एक उत्पाद लेकर जायेगी तो उपभोक्ता को कोई विकल्प नहीं मिलेगा, उसको सिर्फ एक ब्रांड मिलेगा। एक उपभोक्ता के रूप में ही मुझे यह लगा कि यह एक अच्छा कारोबारी मौका हो सकता है। उस समय मैं सोच रहा था कि क्या कोई ऐसी जगह हो सकती है जहाँ आपको पर्सनल लोन के लिए सबकी ब्याज दरें मिल जायें? या फिर होम लोन की सबकी ब्याज दरें मिल जायें, सारी वित्तीय सेवाओं की जानकारी एक जगह मिल जाय। फिर थोड़ी खोजबीन की तो पता चला कि दूसरे देशों में इस तरह की सेवाएँ देने वाली बड़ी कंपनियाँ वित्तीय सेवाओं के सुपर मार्केट की तरह काम कर रही हैं।
इस नये कारोबार में आपने आईसीआईसीआई प्रूडेंशियल को अपना पहला ग्राहक बना कर काम शुरू किया था। पहला ग्राहक बनाना बड़ा मुश्किल होता है। आपने कैसे समझाया उनको?
—आईसीआईसीआई प्रूडेंशियल को समझाना इतना मुश्किल नहीं था, योंकि हम पूरी तरह से सफलता शुल्क (ससेस फी) के आधार पर काम कर रहे थे। इसमें आईसीआईसीआई प्रूडेंशियल के लिए कोई नुकसान नहीं था। हम काम करते तो कमीशन मिलता, नहीं करते तो तो कुछ नहीं मिलता। उनकी ओर यह आपत्ति जरूर आयी थी कि फोन पर तो बीमा योजना (इंश्योरेंस) बिक नहीं सकती। हमारा प्रत्यक्ष बिक्री (डायरेक्ट सेलिंग) और कॉल सेंटर का मॉडल है। उनके मन में सवाल था कि आप फोन पर कैसे वित्तीय उत्पाद (फाइनेंशियल प्रोड्क्ट) बेच सकते हैं? तब मैंने उन्हें यही कहा कि आप मुझे केवल सफलता शुल्क (संसेस फी) दे रहे हैं। इसलिए सारा जोखिम मेरा है। तो क्या फर्क पड़ता है कि मैं किस मॉडल को लागू करूँ? लेकिन मुझे लगता है कि यह मॉडल काम करेगा। इस पर वे तैयार हो गये।
शुरुआती कारोबार में यह उलझन रहती है कि जल्दी विस्तार करने के लिए खर्च बढ़ायें या जितनी आमदनी हो रही है उसी में अपने खर्चे सीमित रखें। आपने क्या किया?
—जितनी आमदनी हो रही थी, हमने उसी में खर्च सीमित रखा। मेरे परिवार की व्यापारिक पृष्ठभूमि नहीं थी, मेरे पास ज्यादा बचत भी नहीं थी। मैंने सिर्फ एक लाख रुपये से शुरू किया और कंपनी सन 2007 तक हमेशा अपनी कमाई के दम पर ही आगे बढ़ती रही। कंपनी जितना पैसा बनाती थी, उतना पैसा वापस इसके कारोबार में लगा दिया जाता था।
जब आप शुरुआत में लोगों से फोन पर संपर्क करते थे बीमा योजनाओं को बेचने के लिए, तो क्या इसमें कुछ दिक्कतें आयीं?
—आप 100 लोगों से बात करें तो 99 लोग मना करते हैं, सिर्फ एक व्यक्ति लेता है। जिस एक व्यक्ति ने ले लिया, उसे कोई दिक्कत नहीं थी। लेकिन जिसने नहीं लिया, उसे दिक्कत थी।
फोन एक असरदार जरिया है। जो भी चीजें सीधे आम ग्राहक को बेची जा सकती हों, उनके लिए यह मॉडल काम करता है। आप यूरेका फोब्र्स का उदाहरण लें, जो सीधी बिक्री (डायरेक्ट सेलिंग) में विशेषज्ञ कंपनी मानी जाती है। वे घर-घर जाते थे और अपने उत्पादों के बारे में बातचीत करते थे। यह मॉडल ज्यादा असरदार नहीं है। एक व्यक्ति आठ घंटे में कितने लोगों से मिल सकेगा?
बिक्री (सेल्स) के दो हिस्से होते हैं। पहला हिस्सा यह होता है कि आप जरूरत पहचानें। उसके बाद ही बिक्री शुरू होती है। मैं अगर आपको बातचीत के एक मिनट में ही कह दूँ कि मुझे जरूरत नहीं है, फिर आप मुझे कुछ नहीं बेच सकते। सेल्स का एक कर्मचारी बाजार में जाकर एक दिन में 8, 10, 12 लोगों से मिल सकता है। आपका उस पर नियंत्रण भी नहीं है कि उसने दिन में 8 घंटे काम किया या 4-6 घंटे ही किया। इसलिए हमने जरूरत तलाशने का काम फोन फोन पर शुरू किया। दरवाजे-दरवाजे घूमने में जहाँ आप 1 दिन में 8 से 12 ग्राहकों से बात कर पाते हैं, वहीं फोन पर 80-90 लोगों से बात हो सकती है। आप इससे ज्यादा लोगों तक पहुँच पाते हैं।
लेकिन लोग ऐसे फोन कॉल से चिढऩे लगे और टीआरआरआई को डीएनसी यानी डोन्ट कॉल रजिस्टर बनाना पड़ा। मतलब इस बात का श्रेय भी आपको दिया जा सकता है!
—देखिए हम नहीं करते तो कोई और करता। लेकिन सच यह है कि डीएनसी पूरी दुनिया में है। डीएनसी एक अच्छी चीज है, हम तो इसके पक्ष में हैं। डीएनसी में जो व्यक्ति अपना नाम दर्ज कराता है, वह मेरा ग्राहक कभी था ही नहीं। जब तक डीएनसी नहीं था, तब तक मैं उस व्यक्ती पर अपना समय और अपनी ऊर्जा बर्बाद कर रहा था। डीएनसी का आना बहुत अच्छा है। लेकिन हाँ, इसका श्रेय आप हम जैसी कुछ कंपनियों को दे सकते हैं!
अब इन सेवाओं के वितरण (डिस्ट्रीयूशन) में ब्रोकिंग फर्म भी आ रहे हैं। क्या अब पहले की तुलना में प्रतिस्पर्धा काफी बढ़ नहीं गयी?
—ब्रोकिंग फर्मों ने पिछले 4-5 सालों से वितरण में कदम रखना शुरू किया है। बहुत लोग आ रहे हैं, वितरण एक आकर्षक क्षेत्र है, इसलिए बड़े-बड़े समूह इसमें आ रहे हैं। रिलायंस, रेलिगेयर जैसे बड़े नामों ने भी इसमें कदम रखा। लेकिन वितरण एक मुश्किल कारोबार है। बहुत कम कंपनियाँ ऐसी हैं, जिनके लिए वितरण ही मुख्य कारोबार हो। पूरी तरह ध्यान दे कर इसे करने वाली मुश्किल से 2-3 कंपनियाँ ही हैं।
आपका ज्यादा कारोबार महानगरों में और बड़े शहरों में है या दूसरी, तीसरी, चौथी कतार (टीयर-2, टीयर-3, टीयर-4) वाले शहरों में?
—हमारा ज्यादा कारोबार दूसरी, तीसरी और चौथी श्रेणी के शहरों में है। हमारा करीब 60-62' कारोबार इन्हीं से आता है।
क्या इसका यह कारण है कि महानगरों में लोग अब ऐसे फोन कॉल से चिढऩे लगे हैं?
—ऐसा नहीं है। महानगरों में भी आज हमारी बहुत अच्छी बिक्री हो रही है। लेकिन हमारे कारोबार में दूसरी, तीसरी और चौथी श्रेणी के शहरों का हिस्सा इसलिए ज्यादा है कि हम करीब 150 शहरों में मौजूद हैं। महानगरों में भी हर तरह के ग्राहक हैं। महानगरों में मध्यम वर्ग के ग्राहकों के बीच आज भी बहुत अच्छी बिक्री टेलीमार्केटिंग के जरिये हो रही है।
अभी आपने रुपीटॉक डॉट कॉम को खरीदा, लेकिन दूसरी, तीसरी और चौथी श्रेणी के शहरों में इंटरनेट की पहुँच अभी कम है। तो इन दोनों के बीच कैसे तालमेल बन पा रहा है?
—हम वित्तीय सेवाओं का एक सुपर मार्केट बनना चाहते हैं। इस देश में करीब 6000 शहर हैं जहाँ वित्तीय उत्पाद बेचने की संभावना बनती हैं, लेकिन अभी हम सिर्फ 150 शहरों में हैं। हमने पहले सीधी बिक्री शुरू की, उसके बाद हमने और भी रास्ते चुने। जिस उपभोक्ता तक टेलीमार्केटिंग के जरिये नहीं पहुँचा जा सकता, उसके लिए अलग माध्यम चुनने पड़ेंगे। आपने खुद कहा कि बहुत उपभोक्ता अब डीएनसी में हैं। उन तक कैसे पहुँचा जाये। उसके लिए हमारा एक तरीका शाखाएँ खोलने का है, फिर हमने इंटरनेट के लिए इस वेबसाइट को खरीदा।
आज दूसरी, तीसरी, चौथी श्रेणी के शहरों में इंटरनेट की पहुँच कम है और महानगरों में ज्यादा है। लेकिन हमारा ऐसा मानना है कि इंटरनेट काफी फैलेगा। इसलिए इंटरनेट के उभरते हुए क्षेत्र में हमारा होना जरूरी था और हम किसी वेबसाइट को खरीदना चाह रहे थे। हमारे पास 2-3 विकल्प आये और रूपीटॉक उसमें सबसे अच्छा लगा। उनकी टीम बहुत अच्छी थी, इसलिए हमने उन्हें चुना।
हाल में बीमा कंपनियों की यूलिप योजनाओं पर काफी विवाद छिड़ा था। फिर उसमें कमीशन घटाये भी गये। आपके मार्जिन पर कमीशन घटने का असर पड़ा होगा। क्या आपने उसकी वजह से आपने अपनी रणनीति में कुछ बदलाव किये।
—थोड़ी अवधि के लिए बदलाव करना पड़ा। लेकिन जो हुआ है, वह मेरे विचार से बहुत अच्छा है। इस क्षेत्र ने पिछले 1-2 सालों में ऐसा रास्ता चुन लिया था, जो ठीक नहीं था। ऐसे बीमा उत्पाद आने लगे थे, जो ग्राहकों के हित में उतने नहीं थे, जितना उन्हें होना चाहिए था।
एक संतुलन बनाना जरूरी है। यह जरूरी है कि वितरण (डिस्टीयूशन) की लागत निकले। अगर कोई वितरण करेगा ही नहीं, वह काम करने लायक रह ही नहीं जायेगा तो उपभोक्ता के पास वह चीज पहुँचेगी कैसे? अब हम उस असर से लगभग उबर गये हैं, 90% वापसी हो गयी है, केवल 10% असर बाकी है।
लेकिन इसकी वजह से आपको अपनी रणनीति में किस तरह के बदलाव करने पड़े।
—पहले यूलिप पर हमारा ध्यान ज्यादा था। हमने यह समझा कि एक संतुलित नजरिया लेकर चलना पड़ेगा। पहले हम यह देखते थे कि कोई अगर बीमा बेच रहा है तो यूलिप की कितनी बिक्री हुई। अब हम देखते हैं कि वह कुल कितनी आमदनी लेकर आ रहा है, एक ही ग्राहक को और दूसरी चीजें कितनी बेच पा रहा है? क्या वह उन्हीं ग्राहकों से कर्ज की जरूरत के बारे में भी पूछ रहा है, क्या उनको क्रेडिट कार्ड भी दे रहा है?
इस बदलाव ने हमारे ऊपर दबाव डाला कि हम सुपरमार्केट वाले नजरिये को जल्दी अपनायें। दूसरा बहुत बड़ा परिवर्तन यह हुआ कि लागत पर बहुत ज्यादा ध्यान गया।
आपने आपने तीन चरणों में करीब 120 करोड़ रुपये का वेंचर कैपिटल जुटाया है। आगे की योजना और अगले लक्ष्य क्या हैं?
—पहले चरण के निवेश से हमने नये केंद्र (सेंटर) खोले, वितरण के नये रास्ते (चैनल) बनाये, नये शहरों में गये। जो निवेश हमने अंत में जुटाया है, उसमें हम ज्यादा खर्च सूचना तकनीक (आईटी) पर कर रहे हैं। करीब 20-25 करोड़ रुपये का निवेश आईटी में हो रहा है।
हम 2013-14 तक अपना कारोबार करीब 350 करोड़ रुपये पर पहुँचने का लक्ष्य ले कर चल रहे हैं। मुझे लगता है कि 2013-14 तक हम 10,000 लोगों की कंपनी होंगे और हमारी उपस्थिति 500 शहरों तक होगी।
क्या आईपीओ लाने की भी योजना है?
—जब 2013-14 में हमारा कारोबार 350 करोड़ रुपये के आसपास होगा, तब एक अच्छा समय होगा आईपीओ लाने के लिए।
(निवेश मंथन, जुलाई 2011)