संदीप त्रिपाठी :
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 500 और 1,000 रुपये के नोटों की बंदी की घोषणा कर दी। राजनीतिक विरोधियों ने पहले तो प्रधानमंत्री के इस कदम के उद्देश्य का समर्थन किया, और फिर इसके तरीके और जनता की परेशानी की आड़ में विरोध शुरू कर दिया। आम जनता %प्रतीक्षा करो और निगरानी रखो’ के मूड में दिखी। 28 नवंबर को तथाकथित %भारत बंद’ के विपक्ष के आह्वान का हस्र साफ संकेत देता है कि जनता अपने नाम पर किसी को सियासी खेल खेलने देने की अनुमति देने के पक्ष में नहीं है।
लगभग 15 लाख करोड़ रुपये मूल्य के 500 और 1,000 रुपये के रद्द नोट देश में कुल मुद्रा प्रसार का 86% हैं। इस 86% रकम की आपूर्ति एकाएक नहीं हो सकती। आपूर्ति व्यवस्था में शामिल लोग कोई दूध के धुले नहीं हैं, यानी बैंकिंग व्यवस्था में शामिल हर कर्मचारी पूरी ईमानदारी से काम करेगा, इसकी गारंटी कोई नहीं ले सकता था। इन सारी बातों का सिर्फ एक मतलब है कि जनता परेशान होगी। तो फिर सवाल यह उठता है कि मोदी के इस फैसले के राजनीतिक मायने, निहितार्थ और फलितार्थ क्या हैं? क्या यह नोटबंदी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए वाटरलू साबित होगी या मोदी भारत के फिडेल कास्त्रो साबित होंगे?
एक चाय वाले ने मुझसे कहा कि ‘साहब, ये बात मेरी समझ में नहीं आ रही कि जिसे देखो, वही कह रहा है कि बहुत परेशानी हो रही है लेकिन मोदी जी ने काम बहुत अच्छा किया है। अगर मोदी जी ने काम अच्छा किया है तो लोग परेशान क्यों हैं? और लोग परेशान हैं तो मोदी जी का काम अच्छा कैसे है?’ ऐसे में नोटबंदी से जनता की परेशानी और जनता के द्रष्टव्य समर्थन से हालात वैसे ही लग रहे हैं जैसे आपातकाल के बाद खुफिया एजेंसियों ने इंदिरा गाँधी को रिपोर्ट दी थी कि जनता उनके साथ है और जब चुनाव हुए तो इंदिरा गाँधी और कांग्रेस की बुरी तरह हार हुई थी। हालाँकि नोटबंदी के बारे में अभी से ऐसा कहना जल्दबाजी होगी।
जानने वाले मानते हैं कि मोदी जब दाँव खेलते हैं तो बहुत ठोक-बजा कर खेलते हैं और लोगों को बाद में समझ में आता है कि दाँव क्या था। जरा पीछे चलें तो पायेंगे कि लोकसभा आम चुनाव में स्पष्ट बहुमत के बाद दिल्ली और बिहार में भाजपा की करारी हार हुई। एक जगह भ्रष्टाचार और ईमानदारी के नाम पर जनता आम आदमी पार्टी के साथ चली गयी तो दूसरी जगह जातिवादी समीकरण ने भाजपा के मंसूबों को चकनाचूर कर दिया। बिहार चुनाव में संघ प्रमुख श्री मोहन भागवत के आरक्षण संबंधी बयान को भी भाजपा की हार का कारण माना गया। लेकिन इस हार का पूरी ठीकरा मोदी पर फोडऩे की कोशिश हुई। इस स्थिति में मोदी के सामने भ्रष्टाचार खत्म कर एक उन्नतशील राष्ट्र के निर्माण का उद्देश्य था जिसमें गोलबंदी जाति को छोड़ विकास के नाम पर हो।
ऐसे में मोदी के सामने दो बड़े वर्ग हैं। पहला वर्ग है भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े युवा और भ्रष्टाचार से पिस रही 70% गरीब जनता का। इस नोटबंदी के फैसले पर विपक्षी सियासी दल सधी प्रतिक्रिया देने की बजाय भ्रमित रहा। विपक्षी दलों के विरोध ने मोदी को जनता को यह भरोसा दिलाने का आधार और अवसर दे दिया कि उनके अलावा अधिकांश दल और नेता भ्रष्टाचार के पक्ष में हैं। इस आधार पर अब मोदी की कोशिश युवाओं और वंचित जनता के लिए भ्रष्टाचार के खिलाफ मसीहा बनने की होगी।
दूसरे, देश की 70% जनता वह है जो या तो गरीब है या फिर निम्न मध्यम वर्ग की है जिसके लिए अपनी मेहनत के अलावा कमाई का कोई विकल्प नहीं है। यह वर्ग अपनी उन्नति चाहता है, बड़े तबके से बराबरी चाहता है लेकिन उसके लिए रास्ते बहुत सीमित हैं। जो हैं, वे भी महज अपवाद स्वरूप हैं। मोदी की नोटबंदी से यह तबका बहुत खुश हुआ है। इसका कारण यह नहीं है कि नोटबंदी से उसकी परेशानी खत्म हो गयी है, बल्कि इसलिए कि मोदी ने सबको एक कतार में ला दिया। यह भावना भी है कि गरीबों का शोषण कर अपनी तिजोरियाँ भरने वालों पर मोदी डंडा चला रहे हैं।
यह एक तरह का मनोविज्ञान है जिसमें आप जब कुछ पाना चाहते हैं और नहीं पा पाते हैं तो जिन्होंने पाया, उनसे छिनते हुए देखना आपको सुख देता है। यह एक तरह से नब्बे के दशक के लालू प्रसाद यादव के करिश्मे की तरह का मामला है जिसमें लालू ने पिछड़ों-गरीबों को कुछ दिया तो नहीं, लेकिन अगड़ों को अपना कारिंदा बना कर (जैसे सवर्ण आईएएस से खैनी बनवाना) पिछड़ों की पीड़ा को स्वर दिया। मोदी की नोटबंदी से कालाधन खत्म हो, न हो, अंकुश लगे, न लगे, लेकिन इतना तो हो गया कि देश का एक-एक नागरिक यह जान गया कि मोदी काला धन वालों को बख्शने वाले नहीं हैं। इस वर्ग को विशेषज्ञों, अर्थशास्त्रियों और विपक्षी नेताओं-बुद्धिजीवियों के धारदार तर्कों से कोई लेना-देना नहीं हैं।
दूसरे, अगर नोटबंदी से वाकई उद्देश्यों, यथा भ्रष्टाचार, काले धन का खात्मा (सीमित संदर्भों में ही सही) और समावेशी विकास, की प्राप्ति के अंकुर दिखने लगते हैं, भले उसमें दो-ढाई साल लगे (2019 के आम चुनावों से पूर्व) तो मोदी को अगले 10-15 सालों तक कोई चुनौती नहीं दे पायेगा और मोदी सरकार चलाने के लिए किसी के भरोसे नहीं रहेंगे, न आंतरिक रूप से न वाह्य रूप से।
मोदी के पास इस कदम के परीक्षण के लिए सामने उत्तर प्रदेश का चुनाव है। इन चुनावों में यदि भाजपा को मनोवांछित नतीजे प्राप्त होते हैं तो मोदी इस दिशा में और तेजी से आगे बढ़ेंगे। यदि वांछित नतीजे नहीं आते हैं तो मोदी के पास आम चुनावों तक स्थिति सुधारने के लिए दो साल का वक्त होगा।
(निवेश मंथन, दिसंबर 2016)