धर्मकीर्ति जोशी, निदेशक और मुख्य अर्थशास्त्री, क्रिसिल:
इस नीतिगत समीक्षा में यह बात स्पष्ट है कि महँगाई दर पर आरबीआई पहले से काफी राहत महसूस कर रहा है।
लेकिन वह ब्याज दरों को इस तरह से नीचे लाना चाहता है कि उसे लंबे अरसे तक नीचे रखा जा सके। ऐसा नहीं हो कि आज घटाया कल बढ़ाया। महँगाई का हाल का इतिहास अच्छा नहीं रहा है। पिछले 6-7 सालों में महँगाई दर अनुमानों से ऊँचा ही बना रहा है। इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि सावधानी बरती जाये। मुझे लगता है कि दरों में कटौती बजट के बाद होगी।
ऐसा लग रहा है कि अगले साल रेपो दर 0.50% से 0.75% अंक तक की कटौती हो सकती है। लेकिन गवर्नर ने साथ-साथ यह भी कहा है कि आरबीआई की दरों में कटौती से ही बैंकों की ब्याज दरें नहीं घट जायेंगी। अगर बुनियादी ढाँचा (इन्फ्रास्ट्रक्चर) क्षेत्र में जोखिम ज्यादा है तो उसके लिए ऋण की लागत कम नहीं होगी। लोग कहते हैं कि बुनियादी ढाँचा क्षेत्र में ब्याज दरें ज्यादा होने से उनको मार पड़ रही है, लेकिन उस क्षेत्र में जोखिम भी तो सबसे ज्यादा है। जब तक जोखिम कम नहीं किया जायेगा, तब तक ब्याज दर कैसे नीचे आयेगी?
मध्यम अवधि के लिए आरबीआई का लक्ष्य 6% महँगाई दर का था, और उसके करीब महँगाई आ जाने से अब आरबीआई अगले साल ब्याज दरों में कटौती शुरू कर देगा। अगर विकास दर मजबूत होती गयी तो ब्याज दर में कटौती धीमी गति से होगी। जीडीपी में कमजोरी बनी रही तो ब्याज दरों में कमी की रफ्तार तेज होगी। महँगाई दर कहाँ आ कर ठहरती है, इस पर भी यह निर्भर करेगा कि ब्याज दरों में कितनी कटौती होगी। इस अटकलबाजी का कोई फायदा नहीं कि आरबीआई इसे घटा कर 6.5% तक ले जायेगा या 7% तक।
अर्थव्यवस्था की विकास दर केवल आरबीआई की ब्याज दरों पर ही निर्भर नहीं है। और भी कई चीजें ठीक होनी चाहिए। अगर खनन (माइनिंग) नहीं हो पा रहा है तो आरबीआई की दरों में कटौती से खनन नहीं शुरू हो जायेगा। अर्थव्यवस्था के सामने ज्यादातर बाधाएँ इसी तरह की हैं। विकास दर में तेजी आने का संबंध आरबीआई की दरों से कम, और सरकारी नीतियों से ज्यादा है। सरकार ने सकारात्मक रुख अपनाया है और बाधाओं को दूर करने में लगी है। खाद्य महँगाई को भी काबू में करने के लिए कदम उठाये गये हैं। उस हिसाब से ब्याज दरें घटाने का एक माहौल बन रहा है।
हालाँकि ध्यान रखना चाहिए कि आरबीआई की दरों में कमी के बाद अर्थव्यवस्था पर उसका सकारात्मक असर दिखने में तीन-चार तिमाहियों, यानी लगभग साल भर का समय लग जाता है। यानी अगर 2015 की शुरुआत में दरें घटाना शुरू करेंगे तो जीडीपी पर असर 2016 की शुरुआत तक दिखेगा। लेकिन लोगों की धारणा पहले से बेहतर होनी शुरू हो जाती है और उसका असर कुछ पहले आ जाता है।
हमारा अनुमान है कि तीसरी तिमाही भी कमजोर ही रहेगी, खास कर कृषि के कारण। लेकिन दूसरी ओर औद्योगिक उत्पादन तीसरी तिमाही में अच्छा होना चाहिए। कुल मिला कर हमारा अनुमान है कि दूसरी छमाही में विकास दर 5.5% के आसपास रहेगी। पहली छमाही में भी विकास दर 5.5% ही रही है। इस तरह पूरे साल का औसत 5.5% ही रहेगा। साल 2015-16 में विकास दर 6% से अधिक रहेगी।
जब तक बाधाएँ दूर नहीं होती हैं, तब तक अर्थव्यवस्था रफ्तार नहीं पकड़ेगी। सरकार खनन क्षेत्र में जो कदम उठा रही है, उनका असर अगले साल तक आ जाना चाहिए। नौकरशाही को दुरुस्त करने और कारोबार में आसानी के लिए जो छोटे-छोटे कदम उठाये जा रहे हैं, श्रम सुधार के जो फैसले किये गये हैं, इन सबका सकारात्मक असर अगले साल दिखेगा।
अर्थव्यवस्था को सहारा देने में पहले खपत (कंजम्प्शन) शुरू होने से मदद मिलेगी, उसके बाद निवेश चक्र सुधरने से। दोनों कुछ हद तक साथ-साथ भी चल सकते हैं। लेकिन इस समय तो आँकड़ों में ऐसा कोई संकेत नहीं मिला है कि इन दोनों में से किसी में भी सुधार शुरू हुआ हो। निवेश में सपाट रुझान है, जबकि खपत में थोड़ी वृद्धि दिखी है। लेकिन पिछले साल खपत का आधार (बेस) इतना कम था, इस वृद्धि को ठोस नहीं मान सकते। निवेश चक्र सुधरने में अभी और 6-12 महीने लग सकते हैं।
(निवेश मंथन, दिसंबर 2014)