राजेश रपरिया, सलाहकार संपादक :
नेपोलियन बोनापार्ट 18वीं सदी का महानतम सेनानायक माना जाता है।
उसका एक प्रसिद्ध वाक्य आज के ज्ञान युग में अजीब लगता है। अधीनस्थों की एक मीटिंग के दौरान नेपोलियन को एक बेहद योग्य सैन्य अधिकारी के बारे में बताया गया। यह अधिकारी अपनी बहादुरी, संकल्पशक्ति, संगठनशक्ति और नेतृत्व क्षमताओं के लिए विख्यात था। नेपोलियन ने काफी उत्साह से इस अधिकारी के बारे में सुना और कहा कि यह सब तो ठीक है, लेकिन यह बताओ कि क्या वह भाग्यवान है? नेपोलियन का दृढ़विश्वास था कि सफलता के लिए प्रतिभा, योग्यता और क्षमता से ज्यादा भाग्य की जरूरत होती है। राष्ट्रीय लोकतांत्रिक दल के प्रधानमंत्री के विगत छह महीने का कार्यकाल नेपोलियन के इस कथन को प्रामाणिकता प्रदान करता है!
थोक महँगाई दर पिछले पाँच साल के न्यूनतम स्तर पर है और खुदरा महँगाई दर तीन साल के न्यूनतम स्तर पर है। खाद्य महँगाई दर ने मनमोहन सिंह सरकार को तबाह कर दिया। यह पिछले पाँच साल में औसत 10% रही, जो अब गिर कर 1.4% रह गयी है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें पिछले चार साल के न्यूनतम स्तर पर हैं। कच्चे तेल के दाम औसत 70 डॉलर प्रति बैरल चल रहे हैं, जबकि चालू साल के बजट में आयात बिल, पेट्रोलियम सब्सिडी का सारा आकलन औसत 110 डॉलर प्रति बैरल के हिसाब से किया गया था। नतीजतन देश में भी पेट्रोल-डीजल के दाम गिरे, लेकिन उतने नहीं जितने अंतरराष्ट्रीय बाजार में गिरे। केंद्र सरकार ने दो बार पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद शुल्क बढ़ा कर भांजी मार दी और सरकार की आर्थिक हालत सुधारने का एक मुकम्मल इंतजाम कर लिया।
अंतरराष्ट्रीय बाजार में धातुओं और खाद्य पदार्थों के दामों में भी खासी गिरावट आयी है। भारत में सोने, ताँबे और खाद्य तेलों का भारी आयात होता है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में इनके दाम गिरने से भारत को खासा लाभ हुआ है और भुगतान संतुलन को नियंत्रण में रखने में सफलता मिली है। नतीजतन, डॉलर के सापेक्ष रुपये की कीमतों में भारी उतार-चढ़ाव नहीं है। विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) के शेयर बाजार में बड़े भारी निवेश से शेयर बाजार नित नयी ऊँचाईयों को छू रहा है।
पर सच यह भी है कि इन अधिकांश उपलब्धियों में मोदी के ‘सुशासन’ का कोई योगदान नहीं है। वैश्विक कारक ही इन उपलब्धियों की मूल वजह हैं। देश के प्रमुख आर्थिक संकेतकों पर इन उपलब्धियों का कोई असर नहीं दिखायी देता है। चालू साल की दूसरी तिमाही (जुलाई-सितंबर 2014) में विकास दर गिर कर 5.3% रह गयी, जो इस साल की पहली तिमाही में 5.7% थी। बैंकों के कर्ज उठान उत्साहवद्र्धक नहीं है। महँगाई के ऐतिहासिक रूप से कम हो जाने के बाद भी उपभोक्ता सामानों की बिक्री दर में गिरावट है। औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर लगातार कमतर बनी हुई है। हिंदू विकास दर के जमाने में भी औद्योगिक विकास दर औसत 5% रही है, जो अब महज 2.8% है। इसका सीधा अर्थ है कि मोदी के सुशासन, पारदर्शिता और आर्थिक निर्णय लेने की तत्परता के वायदे अभी जमीन पर नहीं उतर पाये हैं।
इसके बाद भी मोदी से कारोबारियों की आस नहीं टूटी है। उन्हें पूरी उम्मीद है कि जल्द ही विकास की रेल सरपट दौडऩे लगेगी। विदेशी कॉर्पोरेट दिग्गजों में भी मोदी के प्रशंसकों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। दिग्गज कारोबारियों की उम्मीदों को खारिज करने का कोई कारण नहीं नजर आता है। कांग्रेसनीत यूपीए राज के दस सालों में औसत विकास दर 7.7% रही है। यूपीए काल में शेयर बाजार 14-15% की दर से बढ़ा है। ग्रामीण भारत की आय में भी तेजी से इजाफा हुआ है। इस दौरान न्यूनतम समर्थन मूल्य में तकरीबन 3 गुणा वृद्धि हुई। मनरेगा और कल्याणकारी योजनाओं का भी ग्रामीण भारत की आय बढ़ाने में योगदान है। आजादी के बाद ग्रामीण आय में इतना तेज इजाफा कभी नहीं देखा गया। बाजारवादी अर्थशास्त्री दूध, अंडे जैसी चीजों में भारी तेजी के लिए बढ़ी ग्रामीण आय को दोषी ठहराते हैं। एनडीए काल से यूपीए राज में आधारभूत ढाँचे में अधिक निवेश हुआ। शिक्षा और स्वास्थ्य पर सरकारी व्यय में बढ़ोतरी हुई। लेकिन इन दोनों क्षेत्रों में सरकारी व्यय लक्ष्य से काफी दूर रहा।
कांग्रेस के ‘कुशासन’ में इतनी उपलब्धियाँ हो सकती हैं तो मोदी के ‘सुशासन’ में ये लक्ष्य क्यों नहीं पछाड़े जा सकते? दोनों की आर्थिक नीतियों में कोई अंतर नहीं है, क्योंकि दोनों सरकारों के आराध्य देवता डॉलर हैं। इसी धर्मकाँटे पर आर्थिक सुधारों के लिए मोदी सरकार भी व्याकुल है। इसलिए विकास दर की ट्रेन आज नहीं तो कल दौड़ पड़ेगी, इसमें संदेह का कोई कारण नहीं होना चाहिए। पर क्या 8% विकास दर की उपलब्धि से मोदी अपनी लोकप्रियता बरकरार रख पायेंगे?
(निवेश मंथन, दिसंबर 2014)