इसकी अध्यक्षता खुद प्रधानमंत्री करते रहे हैं।
इसके उपाध्यक्ष की कुर्सी भारत के वित्त मंत्री के लगभग समतुल्य समझी जाती रही है। भारत के नव-निर्माण के लिए साल 1951 में शुरू पहली पंचवर्षीय योजना से लेकर इस समय चल रही बारहवीं पंचवर्षीय योजना तक का खाका बनाने लागू करने और निगरानी करने की जिम्मेदारी योजना आयोग पर रही है। लेकिन इस स्वाधीनता दिवस पर लाल किले से अपने भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब यह ऐलान कर दिया कि योजना आयोग को समाप्त करके एक नयी संस्था का गठन होगा, तो रस्मी तौर पर कुछ विपक्षी प्रतिक्रियाओं को छोड़ कर कहीं कोई हलचल नहीं मची। क्या वाकई 64 पुरानी इस संस्था ने अपनी प्रासंगिकता इस हद तक खो दी थी कि लोग इसकी विदाई पर रस्म-अदायगी के लिए ही सही, दो-चार आँसू भी नहीं बहा रहे?
कुछ विपक्षी नेताओं ने मोदी सरकार के इस कदम में तानाशाही के संकेत खोजे हैं। लेकिन अगर योजना आयोग के खात्मे से वाकई संसाधनों पर केंद्र की पकड़ ज्यादा मजबूत करने का इरादा होता तो तमाम राज्य सरकारें योजना आयोग को बचाने के लिए आगे आतीं। लेकिन गैर-एनडीए शासन वाले राज्यों की सरकारें भी इस कदम का विरोध करती नहीं दिख रही हैं। उल्टे नरेंद्र मोदी ने योजना आयोग को खत्म करने का मुख्य कारण यही बताया है कि संसाधनों के बँटवारे में राज्यों को ज्यादा प्रमुखता मिलने वाली नयी व्यवस्था बनायी जाये। ऐसे में तमाम राज्य सरकारें अगर योजना आयोग की विदाई पर मौन सहमति दे रही हैं, तो इसका मतलब यही निकाला जा सकता है कि इस संस्था के मौजूदा स्वरूप और इसकी कार्यप्रणाली ने उन्हें दर्द ही ज्यादा दिया है।
योजना आयोग की समाप्ति को नेहरू-युग का समापन भी कहा जा सकता है। यह माना जा सकता है कि 1991 में उदारीकरण की शुरुआत ने नेहरू-युग के समापन का आरंभ किया था और योजना आयोग की समाप्ति नेहरू-युग के अवसान की अंतिम उद्घोषणा और उसके अवशेषों का अंतिम ध्वंस है। यह ध्वंस उस व्यक्ति ने किया है, जो स्वतंत्र भारत में पैदा होने वाला पहला प्रधानमंत्री है। लेकिन योजना आयोग के विकल्प के तौर पर कैसी संस्था बनने वाली है, इसका खाका अभी सामने नहीं आया है। इसलिए अभी यह कहना मुश्किल है कि हमें जो नयी चीज मिलेगी, वह पहले से कितनी बेहतर होगी, और बेहतर होगी भी या नहीं। आखिर यूपीए सरकार ने भी योजना आयोग में बदलाव लाने के प्रयास किये थे। थोड़े-बहुत बदलाव हुए भी थे। लेकिन मनमोहन-मोंटेक की जोड़ी नया विकल्प सामने रखने में असफल रही। यह संस्था केंद्र की योजनाओं का खाका बनाने और राज्यों के बीच संसाधनों का बँटवारा करने के काम में ही पुराने तरीके से लगी रही। संसाधनों के बँटवारे में खैरात बाँटने जैसा भाव बना रहा। अंधा बाँटे रेवड़ी, फिर-फिर अपनों को दे वाली कहावत चरितार्थ होती रही।
योजना आयोग में संभावित बदलावों की आहट मुंबई में एक आयोजन में वित्त मंत्री अरुण जेटली की टिप्पणियों से भी मिल गयी थी। जेटली ने सवाल रखा था कि राज्यों को क्या और कैसे करना है, यह केंद्र सरकार क्यों बताये? हर राज्य को अपनी योजना बनाने का अधिकार होना चाहिए।
मनमोहन सिंह ने योजना आयोग के अध्यक्ष के रूप में साल 2009 में ही इसकी बैठक में सवाल रखा था कि आयोग की प्रासंगिकता क्या है, भविष्य में इसकी भूमिका क्या होगी? विडंबना यह रही कि मार्च 2014 में भी यूपीए सरकार के अंतर्गत योजना आयोग की अंतिम बैठक में भी मनमोहन सिंह वही पाँच साल पुराने सवाल पूछ रहे थे।
लाल किले से हुई इस घोषणा के बाद साल 2009 से योजना आयोग के सदस्य रहे अरुण मायरा की टिप्पणी बड़ी दिलचस्प रही है। उन्होंने एक आर्थिक अखबार से कहा कि योजना आयोग में बदलाव भाषणों से नहीं आ सकते, केवल झटकों से ही आ सकते हैं। मोदी सरकार ने तो आयोग को अंतिम झटका दे दिया है!
अटकलें लगायी जा रही हैं कि नयी संस्था का नाम नेशनल डेवलपमेंट ऐंड रिफॉर्म कमीशन (एनडीआरसी) रखा जायेगा। लेकिन मोदी सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि केवल नाम न बदले, वाकई इसका काम भी बदले। जो सवाल मनमोहन सिंह ने 2009 में योजना आयोग के सामने रखा था, वही सवाल नयी संस्था के सामने भी आयेगा। सवाल यह कि इस संस्था की प्रासंगिकता क्या होगी, भूमिका क्या होगी? वह ऐसा क्या करेगी, जो काम नॉर्थ ब्लॉक में नहीं हो सकता? साथ में नया सवाल यह होगा कि इस संस्था की भूमिका पुराने योजना आयोग से किस तरह अलग होगी?
कैसे सुनिश्चित होगा कि योजना आयोग के बदले बनने वाली नयी संस्था सक्षम हो, लेकिन एक अलग सत्ता-केंद्र न बने? कैसे तय होगा कि नयी संस्था फिर से कुछ राजनेताओं और सेवानिवृत नौकरशाहों को समायोजित करने वाली आरामगाह न बन जाये? कैसे तय होगा कि नयी संस्था विकास की नयी दृष्टि विकसित करने वाले विचार-केंद्र के रूप में विकसित हो, न कि लालफीताशाही की नयी जकडऩें पैदा करने वाले केंद्र के रूप में। और इन सबसे बड़ा सवाल यह कि क्या मोदी सरकार राज्यों को %उपकृतÓ करने का इतना बड़ा माध्यम अपने हाथ में रखने का लालच छोड़ सकेगी? क्या मोदी सरकार वाकई राज्यों को अपनी आर्थिक योजनाएँ खुद बनाने की खुली छूट दे सकेगी? क्या बिना किसी जवाबदेही के राज्यों के हाथ में संसाधनों को रख देना भी अपने-आप में समझदारी भरा कदम होगा? एक खतरा यह भी है कि नयी संस्था कहीं अधिकारों से विहीन ऐसे सलाहकार के रूप में सीमित न रह जाये, जिसकी कोई सुने ही नहीं।
खैर, अभी इन सवालों से जूझना बादलों में लाठी भाँजने जैसा होगा। जब मोदी सरकार नयी संस्था का खाका सामने रखेगी, तभी इन बातों पर चर्चा करने का कोई फायदा होगा। लेकिन ये वो सवाल हैं, जो इस समय खुद मोदी सरकार के सामने होने चाहिए। उन्हें यह पता होना चाहिए कि नयी संस्था को इन सवालों के जवाब के साथ आना होगा, वरना नयी बोतल में पुरानी शराब की बात कहने में लोगों को देर नहीं लगेगी।
(निवेश मंथन, सितंबर 2014)