राजीव रंजन झा :
अकेले भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिलने की खबर के बीच चुनावी नतीजों के दिन 16 मई 2014 को शेयर बाजार ने धमाकेदार बढ़त के साथ नया रिकॉर्ड स्तर छू लिया।
भाजपा को जिस तरह 282 सीटों का स्पष्ट बहुमत और एनडीए को 33६ सीटों का मजबूत बहुमत मिला है, उसके चलते राजनीतिक मोर्चे पर निकट भविष्य में घबराहट या निराशा पैदा करने वाली कोई बुरी खबर मिलने का अंदेशा नहीं लगता। यह सरकार बिना विघ्न-बाधा के आराम से चलेगी और नरेंद्र मोदी अपनी इच्छानुसार फैसले कर सकेंगे। इसलिए बाजार में राजनीतिक वजहों से अब उतार-चढ़ाव आने की आशंका नहीं है।
भाजपा ने खुद अपने बलबूते बहुमत पाया है, इसलिए उम्मीद है कि उसे गठबंधन की मजबूरियाँ कम सतायेंगी। इसीलिए यह स्थिति बाजार को काफी अच्छी लगी है। इसी बहुमत के दम पर नरेंद्र मोदी आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण मंत्रालयों को अपने दल के हिस्से में रख भी सके हैं। मगर आगे चल कर लोग यह फर्क भी देखना चाहेंगे कि एक मजबूत प्रधानमंत्री स्थितियों को किस हद तक बदल सकता है? लोग देखना चाहेंगे कि क्या एक मजबूत प्रधानमंत्री सहयोगी दलों को सौंपे गये मंत्रालयों पर भी पूरी दक्षता से नियंत्रण रख सकता है?
नयी सरकार के गठन के तुरंत बाद बजट बनाने की कवायद शुरू हो गयी है। बजट तक की अवधि को नयी सरकार और बाजार का मधुमास माना जा सकता है। रामदेव ने भले ही राजनीति में हनीमून शब्द को गलत संदर्भों में पेश कर दिया, मगर तमाम बाजार विश्लेषक हनीमून अवधि की चर्चा कर रहे हैं, जिस दौरान बाजार नयी सरकार से प्रसन्न बना रहेगा।
हालाँकि संभव है कि मोदी सरकार और बाजार का मधुमास नहीं, बल्कि मधुवर्ष चले। शुरुआती एक साल तक बाजार मोदी को उम्मीदें पूरी करने का समय दे सकता है, बशर्ते वे बाजार को एकदम निराश करने वाला कोई बड़ा कदम न उठा लें। इस दौरान उम्मीदें रहेंगी कि नयी सरकार बुनियादी ढाँचा क्षेत्र को संजीवनी सुंघाने वाले कदम उठायेगी, महँगाई पर नियंत्रण करेगी और उसके चलते रिजर्व बैंक ब्याज दरें घटाने की स्थिति में आ सकेगा।
नरेंद्र मोदी ही नहीं, उनकी पूरी टीम और पूरी पार्टी को यह बखूबी पता है कि जनता ने काफी बड़ी उम्मीदें लगा रखी हैं, जिनके पूरा न होने पर जनता में उतना ही गुस्सा भी पनप सकता है। इसलिए जब नरेंद्र मोदी फरमान जारी करते हैं कि मंत्रियों को सुबह 9 बजे से अपने दफ्तर में बैठ जाना है, तो कहीं से ना-नुकर नहीं होती।
भ्रष्टाचार के मुद्दे को चुनावी अभियान में जम कर उछालने वाले मोदी को सरकार की छवि की भी पूरी चिंता है। इसीलिए फरमान जारी हुआ कि कोई मंत्री अपने निजी सहायक जैसे पदों पर किसी रिश्तेदार को न रखें। यहाँ तक कि एक भाजपा सांसद प्रियंका सिंह रावत ने अपने पिता को सांसद प्रतिनिधि बना दिया तो उन्हें सीधे प्रधानमंत्री से फटकार सुननी पड़ी।
संदेश साफ है कि मोदी को अपनी सरकार पर कोई दाग गवारा नहीं है। यह भी स्पष्ट है कि मोदी खुद को केवल सरकार तक सीमित नहीं रखने वाले, पार्टी संगठन में भी उनकी पूरी और सीधी दखल रहेगी। भाजपा के महासचिवों के साथ बैठक करके उन्होंने यही संदेश दिया।
मंत्री चाहे जो भी हों, पर मंत्रालय मोदी के पास!
प्रधानमंत्री ने न केवल मंत्रियों पर अच्छे कामकाज के लिए दबाव बनाया है, बल्कि नौकरशाही से भी सीधा संवाद शुरू कर दिया है। उन्होंने प्रमुख मंत्रालयों के सचिवों की बैठक बुलायी, ताकि सीधे उनकी बातें सुनी जायें। सचिवों को अपने-अपने मंत्रालय की बाकायदा प्रेजेंटेशन बना कर लाने को कहा गया।
खबरों के मुताबिक अब मंत्रालयों के बड़े सरकारी अधिकारी सीधे पीएमओ से संपर्क कर सकेंगे। यानी विभिन्न मंत्रालयों से प्रधानमंत्री का संपर्क केवल संबंधित मंत्री के जरिये नहीं, बल्कि सीधे तौर पर भी होगा। मोदी की इस कार्यशैली से लगता है कि मंत्री चाहे जो भी हों, पर मंत्रालय तो खुद मोदी के पास रहेगा!
इन बातों से यह तो स्पष्ट है कि नीतिगत जड़ता (पॉलिसी पैरालिसिस) तोडऩे के लिए प्रशासन में विश्वास जगाने की कोशिश की जा रही है। पर साथ ही सरकारी अमले को स्पष्ट संदेश दिया जा रहा है कि उन्हें जम कर काम करना होगा।
उदार आर्थिक नीतियों के संकेत
मोदी सरकार के आरंभिक कदम बता रहे हैं कि वह मोटे तौर पर आर्थिक उदारीकरण की राह पर ही चलेगी। शपथ-ग्रहण के दो दिनों के अंदर ही सरकार ने रक्षा उत्पादन में 100% प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की अनुमति देने की दिशा में कदम बढ़ा दिया। हालाँकि अभी इसका फैसला नहीं हुआ है, बल्कि इस विषय पर विचार के लिए वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय की ओर से केवल कैबिनेट नोट बाँटा गया है, जिस पर दूसरों की सलाह माँगी गयी है।
हालाँकि रक्षा उत्पादन की घरेलू कंपनियों की ओर से इस प्रस्ताव का विरोध भी शुरू हो गया है। एक नजरिया यह भी है कि इस क्षेत्र में प्रवेश के लिए बहुत-सी विदेशी कंपनियाँ लालायित बैठी हैं, इसलिए अभी केवल 49% एफडीआई की अनुमति देनी चाहिए।
ऐसी साझेदारियों से भारत में रक्षा उत्पादन जोर पकड़े, लेकिन प्रबंधन में भारतीय कंपनियों के हाथ में कमान रहे और तकनीक हस्तांतरण पर खास जोर दिया जाये। भारत सबसे बड़ा रक्षा आयातक देश है और एक बड़े ग्राहक के रूप में उसे अपनी शर्तों पर ही विदेशी कंपनियों को इस बाजार में आने की अनुमति देनी चाहिए।
आर्थिक उदारीकरण को अक्सर तेज विकास की कुंजी के तौर पर पेश किया जाता है। भारत बीते एक-डेढ़ दशक में कई वर्षों में 8% या इससे अधिक विकास दर पाने में सफल रहा है, पर चुनौती इस विकास दर को बनाये रखने की है। इसके लिए कुछ नया और कुछ बड़ा सोचना होगा। उद्योग संगठनों और ज्यादातर अर्थशास्त्रियों के पास आर्थिक सुधार नाम का घिसा-पिटा नुस्खा है।
लेकिन मल्टीब्रांड (रिटेल) खुदरा क्षेत्र को विदेशी कंपनियों के लिए खोल देने जैसे सुधारों से कोई चमत्कार नहीं होने वाला। वैसे भी भाजपा ने अपने चुनावी घोषणापत्र में खुदरा एफडीआई से स्पष्ट इन्कार कर रखा है। इसलिए रक्षा एफडीआई के लिए कदम बढ़ाने का यह मतलब नहीं है कि भाजपा खुदरा क्षेत्र में भी एफडीआई पर हामी भर देगी।
बजट में सरकारी घाटे पर निगाह
शेयर बाजार के लिए अगली महत्वपूर्ण घटना बजट के रूप में सामने आयेगी। अगर बजट ने बाजार को खुश किया तो बाजार और नयी ऊँचाइयाँ हासिल करेगा। अगर बजट से मायूसी मिली तो मुनाफावसूली गहरा सकती है। वित्त मंत्री के रूप में अरुण जेटली के शुरुआती बयान की यह पंक्ति लोगों में भरोसा जगाती है कि ‘हमें विकास की गति को फिर से तेज करना है, महँगाई पर नियंत्रण करना है और सरकारी घाटे पर भी स्पष्ट रूप से ध्यान केंद्रित करना है।'
चाहे अर्थशास्त्री हों या शेयर बाजार के विश्लेषक या सड़क पर चलता एक आम इंसान, किसी को भी इस बयान से ऐतराज नहीं हो सकता। लोग नयी सरकार से और उसके वित्त मंत्री से बिल्कुल यही सुनना चाहते थे। अगर ये तीनों बातें हो गयीं, तो वाकई हम कहेंगे कि अच्छे दिन आ गये! लेकिन इसी के आगे एक छोटा, लेकिन चुनौती भरा बड़ा भारी सवाल है। कैसे होगा यह सब?
पहली नजर में तो लग सकता है कि सरकारी घाटे (फिस्कल डेफिसिट) के मोर्चे पर वैसे तो अरुण जेटली के सामने ज्यादा दिक्कत नहीं होगी, जिसके लिए वे पी. चिदंबरम को धन्यवाद दे सकते हैं। अंतरिम बजट में ही चिदंबरम इसे 4.8% के लक्ष्य की तुलना में 4.6% पर ला कर वाहवाही लूट चुके हैं और नये वित्त मंत्री के लिए 4.1% का लक्ष्य रख चुके हैं। मई के अंत में जो ताजा आँकड़े आये हैं, उनके अनुसार तो 2013-14 में केंद्र सरकार का वित्तीय घाटा 4.6% नहीं, बल्कि उससे भी कम केवल 4.47% रहा है। मगर चुनौती यह भी है कि पी. चिदंबरम ने नये वित्त मंत्री को घटे हुए सरकारी घाटे का जो गुलदस्ता सौंपा, उसमें छिपे हुए काँटे भी हैं। दरअसल चिदंबरम ने अलग-अलग विभिन्न मदों में पिछले कारोबारी साल के एक लाख करोड़ रुपये से ज्यादा के खर्चों को नये कारोबारी साल पर टाल दिया था। ये सारे खर्चे अरुण जेटली को चिदंबरम के तोहफे के रूप में मिले हैं।
दूसरी तरफ चिदंबरम ने आँकड़ों का यह खेल भी खेला कि 2013-14 की आमदनी को बढ़ा कर दिखा दिया जाये। जेटली को इस हिसाब-किताब से भी जूझना होगा। इसीलिए 27 मई को कार्यभार सँभालते समय जेटली ने कहा कि उन्हें ‘बहुत से बकाया बिलों का भुगतान’ करना है। जाहिर है कि वे यूपीए से विरासत में मिले खर्चों की ओर संकेत कर रहे थे।
हालाँकि अरविंद पनगढिय़ा जैसे अर्थशास्त्री इस लक्ष्य को अव्यावहारिक बताते हैं। एक नजरिया यह है कि विकास दर को बढ़ाने के लिए सरकारी घाटे को मौजूदा स्तर से थोड़ा ज्यादा रखना बेहतर होगा।
सरकारी घाटे पर नियंत्रण के दो ही तरीके हैं - या तो सरकार अपने खर्चों पर नियंत्रण करे, या फिर वह आमदनी बढ़ाने वाले उपाय करे। खर्चों पर नियंत्रण के संदर्भ में क्या जेटली अनुत्पादक, गैर-योजना खर्चों पर कैंची चलायेंगे? या फिर वे योजनागत व्यय पर कैंची चला कर विकास योजनाओं को धीमा करेंगे? कंट्रोलर जनरल ऑफ एकाउंट्स (सीजीए) के ताजा आँकड़ों के अनुसार यूपीए ने 2013-14 में 22,447 करोड़ रुपये के योजनागत व्यय की कटौती कर दी।
क्या विकास दर बढ़ाने वाला होगा बजट?
नयी सरकार के लिए बजट वह पहला बड़ा मौका होगा, जब वह विकास दर तेज करने की दिशा में ठोस कदम उठा सकती है। आने वाले बजट को सबसे ज्यादा इसी कसौटी पर कस जायेगा कि वह तेज विकास दर पाने में मदद करने वाला बजट है या नहीं। साल 2012-13 में विकास दर 4.5% रही थी। फरवरी में पेश अंतरिम बजट में 2013-14 की विकास दर 4.9% रहने का अनुमान जताया गया था, यानी लगातार दूसरे साल 5% से कम विकास दर रहने की नौबत आ गयी। आरबीआई ने हाल में अनुमान रखा था कि 2014-15 के दौरान विकास दर 5% से 6% के बीच रहेगी, जबकि काफी अन्य संस्थाओं के अनुमान 5.5% के आसपास तक सीमित रहे हैं।
लेकिन निर्णायक ढंग से मोदी सरकार बनने के बाद उद्योग संगठन अपनी उम्मीदें भी बढ़ा चुके हैं। प्रमुख उद्योग संगठन कन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री (सीआईआई) ने कहा है कि 2014-15 में विकास दर सुधर कर 6.5% पर पहुँच सकती है और अगले तीन सालों में यह बढ़ कर 8% पर जा सकती है।
विकास दर तेज हो, यह केवल उद्योगपतियों का व्यवसाय बढऩे का मुद्दा नहीं है। यह केवल अर्थशास्त्रियों और शेयर बाजार के कारोबारियों का मुद्दा नहीं है। यह इस बात का मुद्दा है कि विकास की तलहटी पर खड़े व्यक्ति को दो जून की रोटी के लिए कितना जूझना होगा? यह इस बात का मुद्दा है कि उसके सर पर अपनी छत होगी या नहीं? यह इस बात का मुद्दा है कि अपनी पढ़ाई पूरी करने पर एक युवा को रोजगार के भरपूर अवसर मिलेंगे या नहीं? विकास दर घटने का सीधा असर इन बातों पर होता है। विकास दर घटने का सबसे तीखा असर आम आदमी पर होता है। लोगों की कमाई घटती है, रोजगार नहीं मिलता, धंधा मंदा हो जाता है।
और इन सबके बीच अगर महँगाई सुरसा के मुँह की तरह फैल रही हो तो जीना और भी दूभर हो जाता है। अर्थशास्त्री इसे स्टैग्फ्लेशन कहते हैं, यानी ऐसा समय जब विकास दर धीमी पड़ जाये या ठहर जाये और महँगाई तेज हो जाये। बीते कई साल बिल्कुल ऐसे ही गुजरे हैं।
लेकिन विकास दर तेज करने के मोर्चे पर एक मायने में जेटली के लिए स्थिति सुविधाजनक भी है। सबसे पहली बात यह है कि उन्हें विकास दर एकदम तलहटी पर पड़ी हुई मिली है। स्थिति इससे और बुरी नहीं हो सकती! दूसरी बात यह है कि कई सालों के सरकारी अनिर्णय से पस्त पड़ी अर्थव्यवस्था को कुछ बड़े फैसलों से ही टॉनिक मिल सकता है।
तीसरी बात यह है कि यूपीए-2 सरकार ने जाते-जाते ही सही, लेकिन अटकी पड़ी परियोजनाओं को आगे बढ़ाने के लिए काफी जमीन तैयार कर दी थी। इसलिए सरकारी और निजी क्षेत्र की काफी परियोजनाएँ अगले 6-12 महीनों में रफ्तार पकड़ लें तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होगा। इसलिए अर्थव्यवस्था की 5% से कम विकास दर की मौजूदा सुस्त चाल की तुलना में 6-6.5% विकास दर को छूना काफी संभव लगता है।
पर असली चुनौती इसके बाद की है। असली चुनौती टिकाऊ तरीके से 8% और उससे अधिक विकास दर को पाने की है। अगर भारतीय अर्थव्यवस्था को आज के 20 खरब डॉलर की तुलना में साल 2030 तक 100 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का लक्ष्य पाना है, तो 8% की विकास दर कायम रखना जरूरी है। तभी भारत 2030 तक विश्व की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक महाशक्ति बनने की बात सोच सकता है।
भाजपा के घोषणा-पत्र में निश्चित रूप से ऐसी काफी बातें हैं, जो विकास का पहिया तेजी से घुमा सकती हैं। अगर 100 नये शहरों को विकसित करने की परियोजना चल पड़ी, अगर पुराने शहरों का कायाकल्प करने का अभियान चला दिया गया, अगर रेलवे का व्यापक आधुनिकीकरण शुरू कर दिया गया और अगर बुनियादी ढाँचे के विकास को सर्वोच्च प्राथमिकता दे दी गयी, तो पूरी अर्थव्यवस्था पर इसका चौतरफा असर होगा। नयी सरकार की दृष्टि तो स्पष्ट है। लेकिन बतौर वित्त मंत्री, अरुण जेटली की समस्या यह होगी कि इन सारे सपनों को हकीकत में बदलने के लिए जरूरी संसाधन कहाँ से लायें! सपनों और चुनौतियों की तुलना में जेटली के हाथों में मौजूद थैली छोटी है।
महँगाई पर बेसब्र होगी जनता
विकास दर के मोर्चे पर इस सरकार को थोड़ा समय मिलेगा। मगर महँगाई के मोर्चे पर जनता बड़ी जल्दी बेसब्र हो सकती है। कहीं ऐसा न हो कि आने वाले दिनों में इस सरकार को भी उन्हीं तर्कों का सहारा लेना पड़े, जो तर्क यूपीए सरकार के होते थे। कहीं जेटली भी ठीकरा राज्य सरकारों पर न फोडऩे लगें। कहीं वे भी न कहने लगें कि विकास होने पर महँगाई तो कुछ बढ़ती ही है और किसानों को बेहतर मूल्य मिलने पर बाजार में भी दाम बढ़ते ही हैं। लेकिन केवल अरुण जेटली नहीं, बल्कि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह ध्यान में रखना होगा कि जनता ने इन सारे तर्कों को नकार कर महँगाई घटाने के लिए उन पर जबरदस्त भरोसा किया है। अब उन्हें नतीजे ला कर दिखाना होगा।
उन्हें महँगाई को लेकर दोतरफा रणनीति बनानी होगी। एक रणनीति फौरी राहत देने के लिए, जिनका असर अगले चंद महीनों में दिख जाये। दूसरी रणनीति लंबी अवधि में इस समस्या को सुलझाने के लिए बनानी होगी। इसके लिए उन्हें ऐसे भी कई कड़े और बड़े फैसले करने पड़ सकते हैं, जिनका विरोध खुद उनके पारंपरिक वोट-बैंक और नोट-बैंक रहे तबकों की ओर से होने लगे।
अक्सर खाद्य महँगाई की रोकथाम की सरकारी सोच जन वितरण प्रणाली (पीडीएस) में प्रस्तावित सुधार पर ही अटक जाती है। पीडीएस प्रणाली को कारगर बनाना जरूरी है और इससे जनसंख्या के काफी बड़े हिस्से को राहत मिल सकती है। पीडीएस के सक्षम होने से खुले बाजार पर आने वाला दबाव भी कम होगा। लेकिन खाद्य महँगाई का एक बड़ा हिस्सा पीडीएस के दायरे से बाहर है। लोग सब्जियों और फल-दूध वगैरह की महँगाई से भी कम त्रस्त नहीं हैं। उन्हें खेतों से चल कर गली-मोहल्ले में घूमने वाले ठेलों तक पहुँचने के बीच सब्जियों की कीमतों में होने वाली वृद्धि के चक्र को थामना होगा, क्योंकि अभी तो किसान भी लुटता है और आम आदमी भी।
क्या होगा जीएसटी और डीटीसी का?
आगामी बजट में यह स्पष्ट होगा कि वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) और प्रत्यक्ष कर संहिता (डीटीसी) को लागू करना मोदी सरकार की प्राथमिकता सूची में किस पायदान पर है। जीएसटी के बारे में तो भाजपा के नेता जल्दी लागू कराने की बातें करते रहे हैं, लेकिन डीटीसी के बारे में ऐसे स्वर सुनने को मिले हैं कि इसकी समीक्षा की जानी चाहिए। उद्योग जगत का एक हिस्सा तो डीटीसी के बारे में कहने लगा है कि इसकी जरूरत ही नहीं है, क्योंकि इसमें प्रस्तावित काफी सारी बातें पहले से लागू की जा चुकी हैं। डीटीसी के लिए मध्य-वर्ग की सारी उत्सुकता मात्र इतनी है कि आय कर छूट की सीमा बढ़ा कर तीन लाख रुपये की जायेगी या पाँच लाख रुपये। इसलिए यह देखना दिलचस्प होगा कि डीटीसी को लागू करने के बारे में यह सरकार प्रतिबद्ध नजर आती है या नहीं।
जीएसटी को लागू कराने में नयी सरकार के राजनीतिक कौशल की परीक्षा होगी। कांग्रेस के कई नेता ऐसे संकेत दे चुके हैं कि भाजपा ने हमें जीएसटी लागू नहीं करने दिया, अब देखते हैं कि भाजपा कैसे यह काम कर पाती है! लेकिन जीएसटी लागू करते समय मोदी सरकार के लिए असली चुनौती यह होगी कि जनता इसके लागू होने पर कुछ प्रत्यक्ष राहत महसूस कर सके। तमाम विद्वान यह बताते रहे हैं कि जीएसटी से विकास दर अतिरिक्त 1-2% बढ़ जायेगी और सरकार की आमदनी बढ़ जायेगी। लेकिन जीएसटी से विभिन्न वस्तुओं के खुदरा दाम घटेंगे या बढ़ेंगे? अगर जीएसटी के नाम पर बाजार में खुदरा दाम बढ़ते नजर आये, तो जाहिर है कि उसका ठीकरा मोदी सरकार के सिर पर ही फोड़ा जायेगा।
नरेंद्र मोदी के सामने सबसे बड़ी चुनौती हर तबके की आसमान छूती आकांक्षाओं के बीच संतुलन साधने की होगी। उन्हें अंधाधुंध उदारीकरण बनाम जनोन्मुख विकास के बीच अपना रास्ता चुनना है।
(निवेश मंथन, जून 2014)