राजेश रपरिया, सलाहकार संपादक :
लोक सभा चुनावों में भाजपा और एनडीए को मिले भारी बहुमत से देश ऐतिहासिक बदलाव की दहलीज पर खड़ा है।
मोदी के कांग्रेस मुक्त अभियान को मतदाताओं का अभूतपूर्व समर्थन मिला है। महँगाई, भ्रष्टाचार और लचर नेतृत्वहीनता को मतदाता कुशासन का परिणाम मानते हैं। इसीलिए कुशासन को पराजित करने के उद्देश्य से उन्होंने जाति से अलग हट कर इस चुनाव में वोट दिया है। इसे बहुसंख्यकों के ध्रुवीकरण के रूप में देखा जा रहा है।
भाजपा और संघ की सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक नीतियाँ अच्छे से सर्वविदित हैं। भाजपा और उसकी मातृ-संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने जन्म से ही हिंदू राष्ट्रवाद के प्रबल पोषक रहे हैं। भारतीय संविधान और राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे को लेकर उनकी मुखर मतभिन्नता कोई गोपनीय तथ्य नहीं है। आजादी के आंदोलन के समय से ही संघ और कांग्रेस की विचारधारा में छत्तीस का आँकड़ा रहा है। पर आज भूमंडलीकरण के दौर में किसी भी देश के लिए आर्थिक विकास और उसकी नीतियाँ निर्णायक होती हैं। अहम सवाल यह है कि क्या मोदी सरकार कांग्रेस की उन बाजारोन्मुखी आर्थिक नीतियों से देश को मुक्त करा पायेगी, जिनकी नींव 20-22 साल पहले निवर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्री के रूप में रखी थी? या फिर मोदी सरकार भी अटल सरकार की तरह कांग्रेस की आर्थिक नीतियों का विस्तार करेगी? यह सवाल ही इतिहास में मोदी सरकार की भूमिका तय करेगा।
इस अंक की आमुख कथा में राजीव रंजन झा की टिप्पणी मंत्रिमंडल गठन की अंतर्दृष्टि को बेबाक बताती है कि मंत्री कोई भी हो, मंत्रालय मोदी के पास ही रहेगा। अटल बिहारी वाजपेयी ने सामूहिक नेतृत्व को पुष्ट करने के लिए 1999 में बड़े नीतिगत विषयों पर मंत्रियों के समूह (जीओएम) की शुरुआत की थी, जिसको मोदी ने पहले दिन से खारिज कर दिया है। इसलिए निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की सर्वोच्चता को नकार कर नौकरशाहों को तरजीह देने में उन्हें कोई संकोच या भय नहीं है। आने वाले काल में व्यक्ति-केंद्रित सत्ता और राजनीति के समग्र परिणामों पर पर देश का भविष्य निर्भर करेगा।
कहना न होगा कि आर्थिक नीतियों को तय करने में मोदी ही अंतिम फैसला लेंगे। पर बाजारोन्मुखी आर्थिक नीतियों में बदलाव की बात तो दूर, बल्कि उनके गहरे विश्वास की खबरें छन-छन कर बाहर आ रही हैं। मोदी सरकार के गठन को अभी एक महीना भी पूरा नहीं हुआ है और दो बड़े आर्थिक निर्णय इस दौरान हुए हैं। पहला, सोने के आयात पर लगे प्रतिबंधों को ढीला किया गया। दूसरा, डीजल के दाम में 50 पैसे प्रति लीटर की वृद्धि की गयी। ज्ञातव्य है कि रसोई गैस और डीजल की कीमत वृद्धि को लेकर भाजपा कई बार सड़कों पर उतरी है। इसलिए मोदी सरकार यह फैसला चौंकाता है।
पिछले 20 सालों से जारी डॉ. मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों में विकास दर बढ़ाने के लिए डॉलर का दर्जा खुदा से ऊपर है। इस दरम्यान विकास दर में 10% का भी स्तर देखा और 4% का भी। चाहे कांग्रेस गठबंधन की सरकार रही हो या भाजपा गठबंधन की सरकार रही हो, इन बाजारोन्मुखी आर्थिक नीतियों का नतीजा है कि कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में विनिर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) क्षेत्र की हिस्सेदारी असाधारण रूप से कम हो गयी। कुल रोजगार के अवसर घटते चले गये।
इस दौरान डॉलर निरंतर महँगा हुआ, जिससे आयात महँगे होते गये और निर्यातों को सापेक्ष रूप से कम फायदा हुआ। इससे रह-रह कर भुगतान संतुलन की समस्या गहराती रही। पेट्रोलियम और सोने के विलासी उपभोग में इस दरम्यान जबरदस्त इजाफा हुआ, जो देश की 70-80% आबादी के लिए असहनीय बोझ बन गया है। नौकरी में ठेकदारी प्रथा चरम पर है, जिससे मेहनतकश आबादी का जीवन अनिश्चितता के भँवर में फँसा है। विकास की औसत भारी दर के बावजूद देश में आर्थिक विषमता बढ़ी है, जो कभी भी देश में अशांति और असंतोष का विस्फोट कर सकती है। बाजारवादी आर्थिक नीतियों का मंत्र वाक्य है सब्सिडी घटाओ। यानी खाद्यान्न, उर्वरक और ऊर्जा पर मिलने वाली आर्थिक सहायता को खत्म किया जायेगा। तभी देश 8-10% विकास दर के दिवास्वप्न को हासिल कर सकता है।
पर 20 सालों का अनुभव बताता है कि डॉलर आधारित विकास के मॉडल में दो-चार साल की चाँदी रहती है, फिर पूरा देश आर्थिक अनिश्चितता के अंधेरे में गुम हो जाता है। व्यय पक्ष के सुशासन का ढोल है, लेकिन आय पक्ष में सुशासन की बात गायब है। महँगाई का तात्कालिक हल केवल सरकारी आय बढ़ाने में छिपा हुआ है। फिलहाल यह देखना है कि महँगाई कम करने के लिए मोदी सरकार क्या रास्ता अख्तियार करती है, जिसके बूते पर वह सत्ता में आसीन हुई है? इसका आभास गैस की कीमत के निर्धारण से जनता को अवश्य मिल जायेगा।
(निवेश मंथन, जून 2014)