राजेश रपरिया, सलाहकार संपादक :
बनारस में मोदी के रोड शो के बाद मोदी समर्थकों और भाजपा के हौसले बुलंदी पर हैं।
मोदी मान चुके हैं कि जनता ने उन्हें बहुमत दे दिया है। भाजपा के बड़े-छोटे नेताओं के चाल-चलन में यह साफ झलकता है। अब भाजपा कार्यकर्ताओं से लेकर नरेंद्र मोदी के वक्तव्यों में सत्ता का दंभ साफ नजर आता है। मोदी के पराक्रम से देश की अनेक राजनीतिक हस्तियाँ अप्रासंगिक हो गयी हैं। मोदी समेत भाजपा को लगता है कि भाजपा अपने दम पर लोक सभा में बहुमत के जादुई आँकड़े 272 को पार कर लेगी और उसके गठबंधन को 300 के करीब सीटें मिल जायेंगी।
चुनाव में ऐसे बढ़े-चढ़े दावे करना अस्वाभाविक नहीं है। पर हाँ, इतना तय है कि आगामी सरकार मोदी या एनडीए सरकार ही होगी। लगता है कि भाजपा के राष्ट्रीय लोकतंत्रिक गठबंधन (एनडीए) को 240 सीटें मिल जायेंगी। इसमें तकरीबन 10 सीटों के कम-ज्यादा होने का अनुमान शामिल है। मंडल-कमंडल की लड़ाई के चलते यदि बिहार और यूपी में भाजपा को मनोवांछित सीटें नहीं मिलती हैं, तब भी भाजपा टीआरएस, वाईएसआर कांग्रेस और अन्नाद्रमुक के सहयोग से केंद्र में काबिज हो जायेगी।
मोदी की धमक कमोबेश पूरे देश में सुनी जा सकती है। हिंदी पट्टी के कई राज्य पहले ही भाजपा की झोली में हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, हिमाचल, उत्तराखंड और दिल्ली में भी भाजपा सबसे बड़े संसदीय दल के रूप में उभरेगी, इसमें अब कोई शक नहीं है। कमोबेश यही स्थिति महाराष्ट्र की है, जहाँ भाजपा-शिवसेना गठबंधन को सबसे ज्यादा संसदीय सीटें मिलेंगी।
पर मोदी की धमक भाजपा के परंपरागत क्षेत्रों के बाहर भी सुनायी दे रही है। तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में मोदी पर ममता बनर्जी और जयललिता के तल्ख बयानों में तेजी आयी है, जो वहाँ मोदी की धमक के पुष्ट प्रमाण माने जा सकते हैं। भाजपा को पूरा विश्वास है कि इस बार तमिलनाडु में कमल खिलेगा और पश्चिम बंगाल में भी उसको 4-5 कमल खिलने की उम्मीद है। आंध्र में भी तेलुगू देशम से गठबंधन का लाभ भाजपा को मिल सकता है। कर्नाटक में भी भाजपा की उम्मीदों पर पंख लगे हैं।
मोदी भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सत्ता लालसा की संजीवनी बूटी हैं। नतीजतन पूरा चुनाव मोदी केंद्रित हो कर मोदी बनाम शेष बन गया है, जो इंदिरा-युगीन राजनीति की याद दिलाता है। इंदिरा गांधी ने तत्कालीन कांग्रेसी दिग्गजों से सत्ता छीनी थी और बाद में वे देश की सबसे ताकतवर दुस्साहसी राजनेता के रूप में स्थापित हुईं। मोदी को भी भाजपा में अपना हक हथियाना पड़ा है, क्योंकि भाजपा की संरक्षक संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पहली पसंद मोदी नहीं थे।
मोदी भी इंदिरा गांधी की तरह हठी और दुस्साहसी हैं। पर इंदिरा गांधी गरीबोन्मुखी नीतियों और विकास की प्रबल समर्थक थीं। बैंकों का राष्ट्रीयकरण और पूर्व राजा-महाराजाओं का प्रिवी पर्स (रियासत के अनुसार हर्जाना) खत्म कर उन्होंने अपनी अदम्य इच्छा शक्ति का शंखनाद किया था। उन्होंने अपनी छवि गरीबों के मसीहा की निर्मित की थी। पर मोदी निजी क्षेत्र के घनघोर समर्थक हैं। उनकी छवि कॉर्पोरेट जगत के शुभचिंतक की बनी है। यही कारण है कि मोदी देश के धनाड्य वर्ग और विदेशी निवेशकों की पहली पसंद हैं। वे भाजपा से ज्यादा आश्वस्त हैं कि अगली सरकार मोदी सरकार होगी। हाल में शेयर बाजार में आयी उछाल को इसके प्रभाव के रूप में देखा जा रहा है।
पिछले पाँच सालों में यूपीए सरकार की निर्णयहीनता, कुप्रबंधन, महँगाई, भ्रष्टाचार, विकास दर और रोजगार को लेकर उसकी कटु आलोचना होती रही है। इन्हीं मुद्दों के कारण देश में कांग्रेस के खिलाफ असंतोष की प्रचंड लहर है, जिसे मोदी ने अपने रणनीतिक कौशल और मीडिया प्रबंधन से अपने पक्ष में मोड़ लिया है।
मोदी के प्रति युवाओं की दीवानगी ने उन्हें लोकप्रियता के नये शिखर पर पहुँचाया है। पिछले 20-22 सालों से बढ़ते बाजारीकरण ने युवाओं की इच्छाएँ-प्राथमिकताँ बदल दी हैं। युवाओं की आज सर्वोच्च प्राथमिकता एक अदद बेहतर जीविका है। इसीलिए मोदी विरोधियों पर कठोर प्रहारों के बीच रोजगार, दक्षता विकास और नये कल-कारखानों का उद्घोष करना अपने भाषणों में कभी नहीं भूलते हैं।
युवाओं को लगता है मोदी के आते ही देश की रुकी गाड़ी निकल पड़ेगी, रोजगारों की बरसात होगी, महँगाई छू-मंतर हो जायेगी, देश भ्रष्टाचार से मुक्त हो जायेगा और विदेशों से 150 दिनों में काला धन वापस लाने से लॉटरी लग जायेगी। आसमान से तारे तोड़ लाने जैसी ये भारी उम्मीदें ही मोदी के लिए खतरा हैं। असल में मोदी ही, मोदी के लिए ही खतरा हैं। हाँ, इतना तय है कि यदि मोदी केंद्र में सरकार में आते हैं, तो निर्णयहीनता और कुप्रबंधन का दौर खत्म हो जायेगा।
(निवेश मंथन, मई 2014)