विनोद शर्मा, राजनीतिक संपादक, हिंदुस्तान टाइम्स :
कांग्रेस और भाजपा की आर्थिक नीतियों में कोई फर्क नहीं है, सिवाय सामाजिक क्षेत्र पर निवेश को लेकर।
संसद के बाहर भाजपा के नेता खाद्य सुरक्षा विधेयक की आलोचना कर रहे थे। वे कह रहे थे कि यह देश के खजाने पर भारी बोझ बनेगा, जिसे देश नहीं वहन कर सकता है। उनका कहना था कि देश में फसल खराब होने पर इस कानून के कारण भारत को आयात करना होगा, जिसके चलते विदेशी मुद्रा और सरकारी घाटे की समस्या विकराल होगी।
अगर खुदरा (रिटेल) में एफडीआई की बात करें तो मोदी ने कारोबारियों के संगठन के मंच पर उन्हें सलाह दी कि वे प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार हों। इसलिए दोनों की आर्थिक नीतियों में जमीन-आसमान का अंतर नहीं है। यह वैसा नहीं है, जैसा वाम दलों और भाजपा के मामले में है।
भाजपा आर्थिक नीतियों में मध्य-मार्ग से थोड़ा दक्षिण की ओर है, और कांग्रेस मध्य-मार्ग से थोड़ा बायीं ओर है। वाजपेयी का शाइनिंग इंडिया इसलिए विफल हुआ कि पहली पीढ़ी के आर्थिक सुधारों से पैदा आय का समान ढंग से वितरण नहीं हुआ। कांग्रेस ने कहा कि हमें सुधारों से पैदा संसाधनों में लोगों को उनका हिस्सा देना है, अवसर देना है, ताकि अलोकप्रिय होकर ये सुधार अटक न जायें।
गरीबी रेखा से नीचे की जो जनता है, या इस रेखा से थोड़ा ऊपर भी जो लोग हैं, जिनकी तादाद 18 करोड़ बतायी जाती है, उन्हें सरकारी मदद की जरूरत है। उनके लिए आज भी कल्याणकारी राज्य की प्रासंगिकता बनी हुई है। इनको आप बाजार की शक्तियों के भरोसे नहीं छोड़ सकते हैं। कोई भी दल ऐसा नहीं कर सकता।
अब भाजपा कह रही है कि हम खाद्य सुरक्षा कानून में बदलाव करेंगे। देखते हैं कि वे क्या बदलाव करते हैं। देखते हैं कि भूमि अधिग्रहण कानून में वे क्या बदलाव कर पाते हैं। कुछ नहीं करेंगे, और करेंगे भी नगण्य मात्र। सामाजिक क्षेत्र में निवेश की जो प्रतिबद्धताएँ एक बार कर दी जाती हैं, उन्हें वापस लेना मुश्किल हो जाता है। सदन के पटल पर कोई विरोध नहीं करता है, केवल बाहर-बाहर दबी जुबान में करते हैं। इसलिए मैं नहीं समझता कि इनकी आर्थिक नीतियों में ज्यादा फर्क है।
भारत की विकास दर हाल में घटने के कई कारण रहे हैं। एक कारण भ्रष्टाचार है, एक कारण अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का धीमा पडऩा है। यूरोप में माँग घटने से हमारे निर्यात में कमी आयी। कार्बन ईंधन यानी पेट्रोलियम के लिए हम आयात पर काफी ज्यादा निर्भर हैं।
वादों की भी कोई सीमा होती है!
कोई यह दावा कर दे कि अगले पाँच वर्षों में मैं अर्थव्यवस्था की विकास दर 10% कर दूँगा या 7-8% कर दूँगा तो ऐसा कोई पंटर ही कर सकता है। आज शेयर बाजार कहाँ पहुँचा हुआ है? आप कहेंगे कि ऐसा मोदी के कारण है। लेकिन सारे आर्थिक संकेतकों को बाजार नकार क्यों रहा है?
आर्थिक विकास जरूरी है। कांग्रेस अपने घोषणा-पत्र में जो दावे कर रही है, उस पर यकीन करना नहीं करना अपनी जगह, लेकिन भाजपा क्या कह रही है? जो बीत गया, वह बीत गया। आने वाले की बात करें। अतीत में क्या जायें! जो अंदर आ रहा है नया विद्यार्थी, जो कह रहा है कि मैं टॉप करूँगा, स्वर्ण पदक लाऊँगा, उसकी प्रतिभा का आकलन होना चाहिए। मोदी जी बड़े अर्थशास्त्री हैं, वे ले आयेंगे विकास दर को ऊँचे स्तर पर! वे हर चीज ठीक कर देंगे भई! उन्होंने बड़ी बेवकूफी की है कि लोगों की महत्वाकांक्षाएँ इतनी बढ़ा दी हैं। वादों की भी कोई सीमा होती है। जब वादे पूरे नहीं होते तो जनता यह समझती है कि हमारा परिहास किया गया है, हमारे साथ धोखा किया गया है। लेकिन इस चुनाव में तो वादों के लिए मानो आसमान की भी सीमा नहीं है। नये शहर बसायेंगे, रोजगार दे देंगे, सब कुछ का आधुनिकीकरण कर देंगे। कह रहे हैं कि भारत को उभरती अर्थव्यवस्था के रूप में विश्व मंच पर ला देंगे। विश्व मंच पर लोग पहले से ही भारत को मान्यता दे रहे हैं। मसला यह है कि भारत के अंदर ही हम लोग अपना सम्मान नहीं कर पाते हैं, क्योंकि राजनीति बहुत बँटी हुई है। लेकिन बाहर के लोगों ने भारत को खारिज नहीं कर दिया है।
आम राय वाली राजनीति जरूरी
हमारी अर्थव्यवस्था में नयी जान डालने के लिए ऐसी राजनीति की जरूरत है, जो बड़े मुद्दों पर एक राय बनाने में कामयाब रहे और एक-दूसरे की टाँग खींचने में न जुटी रहे। मगर इस मामले में भाजपा ने जो बोया है, मुझे डर है कि उसे बाद में कहीं उसी की फसल काटनी न पड़ जाये। मिली-जुली राजनीति में मजबूत प्रधानमंत्री कनिष्ठ सहयोगी दलों के लिए जहर होता है। उन्हें यह डर होता है कि मजबूत प्रधानमंत्री है तो उसे हमेशा जरा डिगाये रखा जाये ताकि वह हमारे प्रांतों में हमारी जमीन खा जाये कहीं।
भारत की आर्थिक समृद्धि के लिए तीन तरह की स्थिरता चाहिए। एक तो यह कि वैश्विक परिदृश्य स्थिर और पूर्वानुमान योग्य होना चाहिए। दूसरे, सरकार के पास पर्याप्त बहुमत होना चाहिए, जिससे वह स्थिर हो। तीसरे, सामाजिक धरातल पर भी स्थिरता होनी चाहिए और भारत को एक शांतिपूर्ण देश बने रहना चाहिए, जहाँ लोग आ कर निवेश कर सकें। तभी निवेशक आकर्षित होंगे।
अगर कोई दल हजारों करोड़ रुपये खर्च करके चुनाव लड़े और मोदी प्रधानमंत्री बन जायें, तो केजरीवाल कहेंगे कि मोदी नहीं बल्कि मुकेश अंबानी के प्रॉक्सी प्रधानमंत्री बने हैं। फिर मोदी क्या करेंगे? क्या वे ऐसी नीति बना पायेंगे जिससे तेल-गैस क्षेत्र को राहत मिलती हो?
जीएसटी पर एक राय क्यों नहीं बनी? जीएसटी समिति के अध्यक्ष सुशील मोदी थे ना? एक राय नहीं बनी, क्योंकि आप अपने प्रतिद्वंद्वी की झोली में कोई जीत नहीं डालना चाहते थे। अब मोदी कांग्रेस शासित राज्यों और दूसरे दलों के सामने जीएसटी के मामले में कौन-सा दम-खम दिखा लेंगे? भाजपा ने जो बोया है, उसी की फसल काटेगी।
जीएसटी वही लागू करा सकेगा, जिसके प्रधानमंत्री होने पर एक व्यापक राष्ट्रीय सहमति होगी। मेरा मानना है कि सुषमा स्वराज, या फिर आडवाणी भी व्यापक सहमति बनाने के लिए कहीं बेहतर स्थिति में होंगे। हालाँकि मोदी इन दोनों की तुलना में कहीं ज्यादा लोकप्रिय हो चुके हैं।
यह सरकार डीटीसी लागू नहीं करा सकी, क्योंकि उसके पास पर्याप्त संख्या नहीं थी। यह मसौदा पहली बार कब बना, किसने बनाया, वह सब बातें छोड़ें। संसद के भीतर, राज्य-सभा में आँकड़े देख लें। अगर आप विपक्ष से पूछें तो वे कहेंगे कि सरकार ने हमें भरोसे में नहीं लिया और हमारी उपेक्षा करते रहे। कानून बनाने के प्रश्न पर चाहे जो भी सत्ता में हो और जो भी विपक्ष में हो, दोनों की बराबर भागीदारी होती है। यह जरूर है कि सरकार की जिम्मेदारी ज्यादा होती है।
अगर एक राय बन पायी तो जीएसटी भी लागू हो जायेगा और डीटीसी भी बन जायेगा। एनडीए अगर सत्ता में आता भी है तो इसके पास उच्च सदन में बहुमत नहीं होगा। इसकी भी स्थिति वही होगी, जो यूपीए की थी। फिर आप अपना निष्कर्ष खुद निकाल लें।
शख्सीयत बदलनी पड़ेगी मोदी को
भाजपा चाँद ले आने के वादे कर रही है। बेशक, युवाओं को रोजगार चाहिए। उन्हें रोजगार देना होगा। उनमें उद्यमिता विकसित करनी होगी। उन्हें ऐसा परिवेश देना होगा, जिसमें वे अपना कारोबार शुरू कर सकें। रोजगार का सृजन एक राष्ट्रीय प्रयास होना चाहिए। यह संख्याओं का प्रश्न नहीं है कि कितने रोजगारों का सृजन किया जायेगा। यह देश को ऐसा माहौल देने का प्रश्न है, जिसमें रोजगारों का सृजन हो सके। आप मरुभूमि में सेब नहीं उगा सकते। सेब तो पहाड़ों पर ही होगा। कांग्रेस ने 10 करोड़ रोजगारों की बात कही, कल को भाजपा 15 करोड़ रोजगारों की बात कर दे, ये सब बातें प्रभावित नहीं करती हैं। घोषणा-पत्रों में यह ब्यौरा नहीं होता कि कैसे करेंगे। इस सरकार ने रोजगार सृजन के लिए बीते 10 सालों में बहुत कुछ नहीं किया। हो सकता है कि उसके पास इसके कुछ कारण रहे हों। लेकिन ऐसे में अगले 10 साल में 10 करोड़ नौकरियों का उनका वादा विश्वसनीय तो नहीं लगता।
हमारे देश में नीतियों का विरोध करने की प्रथा है, लेकिन वैकल्पिक नीति देने की प्रथा नहीं है। सरकार का काम है नीतियाँ बनाना और विपक्ष का काम है विरोध करना। लेकिन वैकल्पिक नीति भी तो दें। वह नहीं होता है। घोषणा-पत्रों में वादे होते हैं, लेकिन कैसे क्रियान्वित होंगे उसका कोई ब्यौरा नहीं होता।
नरेंद्र मोदी को सबसे पहले तो यह दिखाना होगा कि वे एक निर्णायक और संवेदनशील प्रधानमंत्री हैं। लोकतंत्र में मजबूत प्रधानमंत्री का कोई मतलब नहीं होता। उन्हें दंड-बैठक करवानी है क्या! राज तो सबको अपने साथ लेकर ही हो सकता है। रोजगार दिलवाने में वे तभी सक्षम होंगे, जब उद्योगपतियों और निवेशकों को यह लगेगा कि इनकी सरकार सटीक और सँभली हुई सरकार है और इसे गिराने के लिए ज्यादा लोग सक्रिय नहीं हैं। सबसे पहले इन्हें अपनी सरकार के स्वरूप के जरिये यह संदेश देना होगा। इनके जैसी शख्सीयत के लिए यह मुश्किल काम होगा। लेकिन अगर वे ऐसा कर लेते हैं तो आगे की बात हो सकती है। फिर निवेश होगा, बुनियादी ढाँचा विकसित होगा, घरेलू उद्योगों का विस्तार होगा, बाहर से निवेश आयेगा। जब इस तरह से चहल-पहल होगी, तभी रोजगार के अवसर बढ़ेंगे।
उसके लिए सबसे बड़ा कदम यह होता है कि आप सबको अपना इरादा सही होने का, और किसी के लिए खतरा नहीं होने का भरोसा दिलायें। अभी तक उनकी जो शख्सीयत है, उसे देखते हुए मुझे लगता है कि उन्हें खुद को जरा बदलना पड़ेगा। मोदी अगर सरकार बनाते हैं तो उन्हें जनता को भरोसा दिलाने, उद्योगों को प्रेरित करने और विदेशी निवेशकों को लुभाने के लिए अपने छह महीनों के शुरुआती समय में ही कुछ कर गुजरना होगा। रही बात भ्रष्टाचार की, तो वह गुजरात में भी है। भ्रष्टाचार ऐसा रोग है, जो सर्जरी से भी दूर नहीं होता। इसे जड़ से मिटाने के लिए आयुर्वेदिक उपचार की जरूरत है। लेकिन ऐसा उपचार समय लेता है। इसलिए गंजे को कंघा बेचने वालों की भी कुछ सीमाएँ हैं!
स्वास्थ्य का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, सिर पर एक छत का अधिकार और भोजन का अधिकार - ये चार ऐसी बुनियादी चीजें हैं जो मनुष्य के अस्तित्व के लिए सबसे जरूरी हैं। किसी भी सरकार की जिम्मेदारी है कि वह ये चीजें उपलब्ध कराये। जो नयी सरकार आये, उसे सबसे पहले महँगाई और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने, सामाजिक सौहाद्र्र बनाये रखने और अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने की चेष्टा करनी होगी। अर्थव्यवस्था मजबूत होने पर बहुत-सी चीजें अपने-आप हो जायेंगी। उससे रोजगार भी पैदा होगा। मोदी को बोलना कम और काम ज्यादा करना होगा। मोदी के दर्शन हमने बहुत कर लिये हैं, अब प्रदर्शन की जरूरत है।
(निवेश मंथन, अप्रैल 2014)