आशीष कुमार चौहान, एमडी एवं सीईओ, बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज :
नयी तकनीक के दम पर बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज (बीएसई) ने करेंसी डेरिवेटिव सेगमेंट में अपनी हिस्सेदारी तकरीबन 20% करने में कामयाबी हासिल कर ली है।
दो महीने से भी कम समय में यह सफलता पाने के बाद आने वाले दिनों में हम अन्य सेग्मेंट में भी इस तकनीक को लागू कर रहे हैं ताकि उनमें भी हिस्सेदारी बढ़ायी जा सके। यह इस बात के बावजूद हुआ है कि अभी केवल 20-30% लोग ही नयी तकनीक से जुड़े हैं।
नयी तकनीक है 50 गुना तेज
दरअसल किसी एक्सचेंज के लिए स्पीड का काफी अधिक महत्व है। हमारी मौजूदा व्यवस्था में हम 10,000 ऑर्डर प्रति सेंकेड लेते हैं और उनका रिस्पांस टाइम 10 मिली सेकेंड होता है। लेकिन नयी व्यवस्था में हम 5 लाख ऑर्डर प्रति सेकेंड ले रहे हैं और उनका रिस्पांस टाइम 200 माइक्रो सेकेंड है। यानी हम 50 गुना अधिक ऑर्डर ले रहे हैं, साथ ही रिस्पांस टाइम घट कर पहले का 50वां हिस्सा हो गया है। इसकी वजह से नवंबर 1994 में ऑटोमेशन की शुरुआत के बाद से पहली बार बीएसई बढ़त की स्थिति में है।
अगले तीन सालों हमने रिस्पांस टाइम को घटा कर 20 माइक्रो सेकेंड करने का लक्ष्य रखा है और अगले पाँच सालों में हम इसे 1 माइक्रो सेकेंड से भी कम करने की कोशिश करेंगे। डॉयचे बोर्स, जिसकी बीएसई में 5% हिस्सेदारी है, ने यह तकनीक विकसित की है। इनके साथ बनायी गयी व्यवस्था के तहत हमारी शुरुआती लागत काफी कम है। लेकिन अगर यह सफलतापूर्वक चला, तो हम आय का एक हिस्सा इन्हें देंगे।
मौजूदा व्यवस्था बोल्ट हो जायेगी बंद
नये प्लेटफॉर्म को हमने अभी करेंसी डेरिवेटिव सेगमेंट और इंट्रेस्ट रेट फ्यूचर्स के लिए लागू किया है। इसे 7 फरवरी से इक्विटी डेरिवेटिव्स के लिए लागू किया जायेगा, इसके बाद अप्रैल-मई तक इक्विटी स्पॉट के लिए। इसके साथ ही हम तकरीबन 19 सालों से चल रही व्यवस्था बोल्ट को बंद कर देंगे और सब कुछ नयी तकनीक पर आ जायेगा। भारत में अभी तक ऐसा नहीं हुआ है कि किसी स्थापित व्यवस्था को बदला गया हो।
इस नये प्लेटफॉर्म की वजह से कारोबारी किसी सूचना पर सबसे तेज तरीके से काम कर सकते हैं। इसके अलावा वे ऑर्डर बुक की कतार में सबसे आगे आ जायेंगे। यही नहीं, इस प्लेटफॉर्म पर कारोबार न करने से उसको नुकसान बहुत होगा क्योंकि अगर वे धीमे एक्सचेंज में ऑर्डर डालते हैं तो वे पुराने डेटा पर ट्रेड करते हैं।
हमने 28 जनवरी से इंट्रेस्ट रेट फ्यूचर्स की शुरुआत की है। यह उन सभी के लिए उपयोगी है जो ब्याज दरों के उतार-चढ़ाव से प्रभावित होते हैं। इस इंस्ट्रुमेंट का इस्तेमाल करके इस उतार-चढ़ाव के जोखिम को हेज किया जा सकता है। बैंकिंग क्षेत्र को इसकी बहुत जरूरत है। बेसल 3 नियमों के आने के बाद उनको बाजार में अपने कुछ जोखिमों की हेजिंग करनी पड़ेगी, जो पारदर्शी है। इंट्रेस्ट रेट डेरिवेटिव इससे पहले तीन बार असफल हो चुका है। चौथी बार में यह सफल होगा या नहीं होगा, इस सवाल का जवाब भविष्य के गर्भ में है। दरअसल डेरिवेटिव या किसी भी उत्पाद को जब आप बाजार में उतारते हैं तब उसकी खामियाँ पता चलती हैं और फिर आप उसको सुधारते हैं। कई बार इसमें काफी समय लग जाता है।
मेरा मानना है कि इस बार यह अच्छे स्वरूप में सामने आया है। अब इसमें फिजिकल सेटलमेंट के बजाय नकद सेटलमेंट किया जायेगा। पहले इसमें फिजिकल सेटलमेंट होता था तो यदि एक्सपायरी के समय किसी कारोबारी का सौदा खुला रह जाता था तो उसे डिलीवरी देनी पड़ती थी या लेनी पड़ती थी। बाजार में लिक्विडिटी की कम मात्रा को देखते हुए यह एक मुश्किल काम था।
कई सेग्मेंट में अग्रगामी है बीएसई
पिछले चार-पाँच सालों में बीएसई ने काफी मेहनत कर एक ऐसा ढाँचा तैयार किया है जहाँ पर बीएसई की तुलना दुनिया के बेहतरीन एक्सचेंजों से की जा रही है। यह तुलना हर क्षेत्र में हो रही है- चाहे वह अनुपालन हो, दूरदर्शिता हो या विविध प्रकार के उत्पादों की उपलब्धता हो। पिछले तीन-चार सालों में कई सेग्मेंट में बीएसई ने अग्रगामी की भूमिका निभायी है। एसएमई की सूचीबद्धता में बीएसई की हिस्सेदारी अच्छी-खासी है। पुराने सेग्मेंटों में भी बीएसई की बाजार हिस्सेदारी बढ़ रही है।
हमने हर बार इस बात पर ध्यान दिया कि किस तरह हम ऐसे उत्पाद विकसित करें जो अधिक निवेश-केंद्रित हों। अगर भारत को प्रगति करनी है तो पूँजी निर्माण आवश्यक है। और यह निवेश से ही संभव है। उत्पादों में ट्रेडिंग हो, लेकिन ट्रेडिंग ही भारी न पड़े। ट्रेडिंग ही एकमात्र गतिविधि न बन जाये। ऐसा न हो कि हम सट्टेबाजों की पीढ़ी विकसित कर डालें।
(निवेश मंथन, फरवरी 2014)