आलोक द्विवेदी :
भले ही देश के स्वास्थ्य बीमा क्षेत्र ने पिछले 10 सालों में जबरदस्त बढ़ोतरी दर्ज की हो,
लेकिन अभी भी इससे जुड़े तीनों प्रमुख भागीदारों के लिए संतुष्टि कोसों दूर दिखती है। जहाँ स्वास्थ्य बीमा कंपनियाँ अपने मूल कारोबार में घाटे का दुखड़ा रोती रहती हैं, वहीं अस्पताल इस बात की शिकायत करते नजर आते हैं कि उन्हें उनकी सेवाओं के मुकाबले कम अदायगी की जाती है। जब क्षेत्र के दो प्रमुख भागीदार इस तरह की दिक्कतों में उलझे हों तो बीमार की दिक्कतें तो बस भगवान भरोसे ही कही जा सकती हैं।
इफ्को-टोकियो जनरल इंश्योरेंस कंपनी के एमडी और सीईओ योगेश लोहिया कहते हैं, ‘अधिकांश स्वास्थ्य बीमा कंपनियाँ अपने मूल कारोबार में नुकसान उठा रही हैं और इसे निवेश आय के जरिये पाटने की कोशिश कर रही हैं, ताकि बहीखाते में कुछ मुनाफा दिख सके।'
अपोलो म्यूनिख हेल्थ इंश्योरेंस कंपनी के सीईओ एंटनी जैकब के अनुसार, ‘बीमा उद्योग में स्वास्थ्य बीमा एकमात्र ऐसा सेगमेंट है जो हर साल 18-20% बढ़ रहा है, लेकिन साथ ही यही वह एकमात्र सेगमेंट है जिसे हर साल कई हजार करोड़ रुपयों का घाटा सहना पड़ रहा है। मेरे आकलन के अनुसार मौजूदा साल 2013-14 में केवल दावों पर हमें तकरीबन 4,000 करोड़ रुपयों का घाटा सहना पड़ सकता है। लगभग इतनी ही राशि का घाटा खर्चों के मद में भी होने की आशंका है।'
लेकिन ग्लोबल हॉस्पिटल्स के एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर चंद्र शेखर की मानें तो बीमा कंपनियाँ जिस घाटे की बात कह रही हैं वह उन्हें खुदरा बीमा की वजह से नहीं हो रहा है।
वे कहते हैं, ‘उन्हें यह घाटा ग्रुप हेल्थ इंश्योरेंस की वजह से हो रहा है। बीमा कंपनियाँ बड़ी-बड़ी कंपनियों को थोक में कम दरों पर समूह बीमा उत्पाद बेच देती हैं। और जब इन कंपनियों के कर्मचारी अपने स्वास्थ्य बीमा का उपयोग करते हैं तो बीमा कंपनियाँ यह कहती हैं कि उन्हें घाटा हो रहा है। चूँकि बीमा कंपनियाँ खुद इस घाटे के लिए जिम्मेदार हैं तो उन्हें इसका दुखड़ा नहीं रोना चाहिए।' शेखर सवालिया लहजे में कहते हैं, ‘आखिर इन बड़ी कंपनियों को कम दर में बीमा क्यों दिया जाना चाहिए?’
मैक्स बूपा हेल्थ इंश्योरेंस कंपनी के सीईओ मनसिजे मिश्र एक तरह से शेखर के सवाल का जवाब देते हुए कहते हैं, ‘ग्रुप इंश्योरेंस क्षेत्र में यथार्थ से दूर काफी प्रतिस्पद्र्धा हो गयी है, जिसकी वजह से कंपनियों ने अतार्किक तरीके से प्रीमियम तय कर रखे हैं। अधिकांश कंपनियों ने प्रीमियम इसलिए कम रखे हैं ताकि वे अधिक लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर सकें। ऐसा करते समय वे बढ़ती हुई चिकित्सकीय लागतों पर भी ध्यान नहीं देते।' लोहिया भी मिश्र की बातों से सहमत दिखते हैं। वे कहते हैं, ‘बीमा कंपनियों के घाटे की अहम वजह यह है कि कोई भी भागीदार उचित कीमत नहीं वसूल रहा है। यह बाजार की अपरिपक्वता को दर्शाता है।'
अस्पतालों पर बीमा कंपनियों का आरोप है कि वे एक ही बीमारी के उपचार के लिए अलग-अलग राशि वसूलते हैं। पर इसके जवाब में शेखर कहते हैं, ‘किसी बीमा के इलाज में भले ही मूल चिकित्सा सेवा एक हो, लेकिन सेवाओं की गुणवत्ता की उम्मीदें अलग-अलग होती हैं। गैर-चिकित्सकीय सेवाओं की बात करें तो इन बीमा कंपनियों की माँग बेहतर कक्ष और अच्छी देखरेख की होती है, जिसकी वजह से अस्पताल अधिक शुल्क वसूलते हैं। एक ही सर्जरी अगर जनरल वार्ड में और सुपर डीलक्स रूम में की जाये तो दोनों स्थितियों में अस्पताल का खर्च अलग-अलग होगा।' शेखर उल्टे यह मानते हैं कि बीमा कंपनियाँ सबसे बेहतर सेवाएँ तो चाहती हैं, पर उनके लिए कम-से-कम खर्च करना चाहती हैं। बीमा कंपनियों का अस्पतालों पर यह आरोप भी है कि वे अनावश्यक रूप से अधिक वसूली करने की कोशिश करते हैं। अस्पताल इन आरोपों को नकारते हुए कहते हैं कि स्वास्थ्य सेवाओं की लागत बहुत बढ़ रही है। बेंगलूरु बैपटिस्ट हास्पिटल के निदेशक और सीईओ डा. एलेक्जेंडर थॉमस के अनुसार, ‘अगर हम पाँच साल पहले की स्थितियों से तुलना करें तो विशेषज्ञता और देखभाल के बेहतर स्तर कायम रखने के लिए किया जाने वाला खर्च काफी बढ़ गया है।' इसी बात को आगे बढ़ाते हुए शेखर कहते हैं, ‘लोगों को और बेहतर सेवाएँ देने के लिए अस्पतालों को अधिक योग्य और अधिक वेतन वाले लोगों को रखना पड़ रहा है। इस लागत को तो बीमा कंपनियों को वहन करना चाहिए।'
दूसरी ओर अस्पताल आरोप लगाते हैं कि बीमा कंपनियों और उनके थर्ड पार्टी ऐडमिनिस्ट्रेटर (टीपीए) द्वारा सही खर्चों को भी गैरवाजिब ठहराया जाता है और उन्हें किसी-न-किसी तरह से कम कराने की कोशिश की जाती है। साथ ही वे यह आरोप भी लगाते हैं कि बीमा कंपनियाँ उनके बिलों को काफी लंबे समय तक लटका कर रखती हैं। थॉमस कहते हैं, ‘हमारे बिलों को समय से चुकाया जाना जरूरी है। हालाँकि बिल चुकाने की प्रक्रिया पूरी करने की अवधि अधिकतम 45 दिन है, लेकिन बीमा कंपनियाँ काफी अधिक समय तक इन्हें लंबित रखती हैं।'
इन आरोपों को नकारते हुए जैकब कहते हैं, ‘स्वास्थ्य बीमा उद्योग की इस पूरी श्रृंखला में यदि एक प्रमुख भागीदार को लगातार घाटा होता रहा तो यह कड़ी कहीं न कहीं टूट जायेगी। ऐसे में यह आवश्यक है कि उद्योग के सभी प्रमुख भागीदार एक साथ बैठें और यह तय करने की कोशिश करें कि यह ढाँचा किस तरह बेहतर तरीके से काम कर सकता है।'
यानी समस्या के हल के लिए जरूरी है कि इन सुविधाओं की लागत (या शुल्क) के बारे में बीमा कंपनियों और अस्पतालों के बीच एक अनुकूलतम मूल्य बिंदु (ऑप्टिमम प्राइस प्वाइंट) तय किया जाये। शेखर के अनुसार, ‘इस समस्या के बारे में इन दोनों के बीच संवाद का अभाव है। इस बारे में उद्योग के विविध मंचों पर तो बात होती है लेकिन फिर उन बातों का फॉलो अप नहीं होता। जब लगातार साथ काम करना है तो ऐसे में इन समस्याओं को सुलझाने के लिए एक संयुक्त मंच बनना चाहिए।'
मिश्र कहते हैं, ‘खास तौर पर कैशलेस बीमा पर मचे इस घमासान की वजह से इरडा ने विस्तृत मानक जारी किये हैं। उम्मीद है कि इन मानकों के लागू होने से ग्राहकों के लिए कैशलेस बीमा प्रक्रिया सहज हो जायेगी।' लोहिया के अनुसार, ‘मुझे उम्मीद है कि आगे आने वाले समय में स्थितियाँ बेहतर होंगी।' न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी के सीएमडी जी. श्रीनिवासन भी लोहिया की तरह आशावादी दिख रहे हैं। उनके अनुसार, ‘समय के साथ बढ़ रही चिकित्सकीय लागत में वृद्धि के अनुरूप हमने भी कीमतों (प्रीमियम) को समायोजित किया है और अब हालात धीरे-धीरे सुधर रहे हैं।'
मिश्र के अनुसार, ‘महँगाई की वजह से और साथ ही साथ नयी चिकित्सा प्रक्रियाएँ आते जाने के कारण चिकित्सा लागत बढ़ रही है। इसके कारण स्वास्थ्य सेवा की लागत में भी वृद्धि हो रही है। मेरा ग्राहकों से अनुरोध है कि वे पॉलिसी दस्तावेज काफी ध्यान से पढ़ें। उनके लिए यह समझना फायदेमंद होगा कि कैशलेस हॉस्पिटलाइजेशन की जरूरत कब पड़ती है और कैसे इसकी प्रक्रिया आरंभ की जाती है। साथ ही यह भी जानना चाहिए कि पॉलिसी के तहत कौन-सी बीमारियों को शामिल किया जाता है और किनको नहीं।'
अधिकांश स्वास्थ्य बीमा कंपनियाँ अपने मूल कारोबार में नुकसान उठा रही हैं और इसे निवेश आय के जरिये पाटने की कोशिश कर रही हैं, ताकि बहीखाते में कुछ मुनाफा दिख सके।
योगेश लोहिया, एमडी और सीईओ, इफ्को-टोकियो जनरल इंश्योरेंस
अधिकांश कंपनियों ने प्रीमियम इसलिए कम रखे हैं ताकि वे अधिक लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर सकें। ऐसा करते समय वे बढ़ती हुई चिकित्सकीय लागतों पर भी ध्यान नहीं देते।
मनसिजे मिश्र, सीईओ, मैक्स बूपा हेल्थ इंश्योरेंस कंपनी
हमारे बिलों को समय से चुकाया जाना जरूरी है। हालाँकि बिल चुकाने की प्रक्रिया पूरी करने की अवधि अधिकतम 45 दिन है, लेकिन बीमा कंपनियाँ काफी अधिक समय तक इन्हें लंबित रखती हैं।
डॉ. एलेक्जेंडर थॉमस, सीईओ, बेंगलूरु बैपटिस्ट हॉस्पिटल
समय के साथ बढ़ रही चिकित्सकीय लागत में वृद्धि के अनुरूप हमने भी कीमतों (प्रीमियम) को समायोजित किया है और अब हालात धीरे-धीरे सुधर रहे हैं।
जी. श्रीनिवासन, सीएमडी, न्यू इंडिया एश्योरेंस
(निवेश मंथन, फरवरी 2014)