भारत की आर्थिक विकास दर लगातार सुस्त पडऩे से उद्योग जगत का भरोसा डगमगा गया है।
खास कर विनिर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) क्षेत्र के सामने चुनौतियाँ ज्यादा गंभीर हैं। उद्योग संगठन फिक्की के दो ताजा सर्वेक्षणों से जो तस्वीर उभरती है, वह वाकई चिंताजनक है।
उद्योग संगठन फिक्की ने हाल में 2013-14 की पहली तिमाही के लिए आर्थिक अनुमानों का सर्वेक्षण (इकोनॉमिक आउटलुक सर्वे) किया था, जिसके नतीजे कतई उत्साहजनक नहीं थे। लेकिन इस सर्वेक्षण के बाद भी जिस तरह स्थितियाँ बदल रही हैं, उनसे लगता है कि इस सर्वेक्षण के नतीजे भी कुछ अधिक आशावादी थे! इस सर्वेक्षण में पूर्वानुमान लगाया गया कि साल 2013-14 में भारत की विकास दर 6% रह सकती है। लेकिन अब तमाम विश्लेषक विकास दर 5% से भी नीचे फिसलने की बातें कर रहे हैं।
बैंक ऑफ अमेरिका मेरिल लिंच की ताजा रिपोर्ट में 2013-14 की विकास दर 4.8% रहने का अनुमान लगाया गया है। कुछ विश्लेषकों ने तो विकास दर 4% के भी करीब चले जाने की आशंका जतायी है। इस सर्वेक्षण में डॉलर की विनिमय दर का सालाना औसत 56 रुपये प्रति डॉलर रहने का अनुमान जताया गया, लेकिन जिस तरह डॉलर की कीमत लगातार 60-61 रुपये के आसपास चल रही है और रुपये में इससे भी ज्यादा कमजोरी की आशंका बन रही है, उससे साफ है कि 56 रुपये प्रति डॉलर का आकलन मुँह के बल गिरने वाला है।
जाहिर है कि इस सर्वेक्षण की अवधि यानी मई-जून 2013 से लेकर अब तक भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति और भी कमजोर होती गयी है। साल 2012-13 में विकास दर घट कर केवल 5.0% रह गयी, जो एक दशक की सबसे निचली सालाना विकास दर है। पहले यह उम्मीद बन रही थी कि शायद भारतीय अर्थव्यवस्था ने अपना सबसे बुरा दौर पार कर लिया है और अब स्थितियाँ सँभलनी शुरू होंगी। इसी उम्मीद के आधार पर अर्थशाियों ने आम तौर पर 2013-14 के लिए 6% से 6.5% तक विकास दर के अनुमान जताये थे।
लेकिन अगर ताजा हाल देखें तो अक्टूबर-दिसंबर 2012 और फिर जनवरी-मार्च 2013 में विकास दर 5% से नीचे ही रही है। मॉर्गन स्टैनले ने हाल में अपनी रिपोर्ट में कहा है कि अप्रैल-जून तिमाही में भी विकास दर सुधरने के आसार नहीं हैं। अगर साल की पहली छमाही की विकास दर 5% के नीचे रह गयी तो कोई करिश्मा ही पूरे साल की विकास दर को 6% के पास ले जा सकेगा। हालात को भाँपते हुए भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने 30 जुलाई को अपनी मौद्रिक नीति की पहली तिमाही समीक्षा में 2013-14 की विकास दर का अनुमान घटा कर 5.5% कर दिया। मई में घोषित सालाना नीति में आरबीआई ने 5.7% विकास दर का अनुमान रखा था।
फिक्की और पीडब्लूसी की एक अन्य ताजा रिपोर्ट ने विनिर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) क्षेत्र की हालत सामने रखी है। औद्योगिक उत्पादन और पूरी अर्थव्यवस्था की विकास दर को तेज करने में इस क्षेत्र की अहम भूमिका है। लेकिन जीडीपी में इस क्षेत्र का योगदान बढ़ा कर 25% करने के लक्ष्य की ओर बढऩे के बदले इसका योगदान 2010-11 के 16.2% से घट कर 2012-13 में 15.2% पर आ गया है। इस क्षेत्र की विकास दर 2010-11 में 9.7% थी, जो अगले साल एकदम से घट कर 2.7% और 2012-13 में तो बस 1% रह गयी।
विनिर्माण क्षेत्र की विकास दर तेज करने की राह में आने वाली प्रमुख अड़चनों का जिक्र इस सर्वेक्षण में किया गया है। ऊँची ब्याज दर सबसे बड़ी अड़चन के रूप में सामने आयी है। उद्योग जगत पहले से ही माँग करता रहा है कि आरबीआई ब्याज दरें घटाने में ज्यादा तेजी दिखाये, लेकिन पहले ऊँची महँगाई दर और उसके बाद चालू खाते के घाटे या करंट एकाउंट डेफिसिट (सीएडी) की चिंता के चलते आरबीआई ने उद्योग जगत की यह माँग अनसुनी की।
अब आरबीआई के सामने रुपये की कमजोरी के चलते एक नयी मुसीबत सामने आ गयी है। इस मुसीबत से पार पाने के लिए आरबीआई ने जो कदम उठाये हैं, उनके चलते उल्टे ब्याज दरें बढऩे लगी हैं। नकदी सोखने वाले इन कदमों के चलते तमाम बैंकों ने अपनी जमा (डिपॉजिट) दरें और बेस दरें बढ़ाने का फैसला किया है। यह हालत तब है, जब आरबीआई ने प्रत्यक्ष रूप से अपनी नीतिगत दरों यानी रेपो दर और रिवर्स रेपो दर में कोई वृद्धि नहीं की है। कुछ अर्थशास्यों का मानना है कि अगर रुपये में कमजोरी इसी तरह बढ़ती रही तो आरबीआई कहीं रेपो दर में वृद्धि का भी फैसला न कर ले। अगर ऐसा नहीं भी होता है, तो इतना स्पष्ट है कि ब्याज दरें घटने की उम्मीद तो निकट भविष्य के लिए छोड़ ही देनी चाहिए। ऐसे में विकास तेज करने के रास्ते की यह सबसे बड़ी अड़चन आने वाले कुछ महीनों में दूर होने की आशा नहीं बनती।
फिक्की के सर्वेक्षण में इसके बाद घरेलू माँग में कमी, तेल/ईंधन के दाम और वेतन बढ़ोतरी के दबाव को अगली बड़ी अड़चनों में गिना गया है। अर्थशाी मानते हैं कि अगर लगातार कई तिमाहियों तक विकास दर घटती चली गयी तो एक ऐसा दुष्चक्र पैदा हो सकता है, जिसमें घरेलू माँग बुरी तरह घट जाये। जहाँ तक तेल/ईंधन की लागत का सवाल है, अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के भावों में हाल की नरमी अस्थायी साबित हुई है और भाव फिर से ऊपर आ गये हैं। साथ में रुपये की कमजोरी के चलते इस मोर्चे पर भारत को दोहरा नुकसान झेलना पड़ता है।
वेतन वृद्धि के दबाव को साफ तौर पर उपभोक्ता महँगाई दर से जोड़ कर देखा जा सकता है। भले ही थोक महँगाई दर (डब्लूपीआई) के मोर्चे पर हाल में कुछ राहत मिली है, लेकिन उपभोक्ता महँगाई दर (सीपीआई) 10% के आसपास ही अटकी है।
फिक्की-पीडब्लूसी के इंडिया मैन्युफैक्चरिंग बैरोमीटर सर्वेक्षण एक दिलचस्प पहलू यह है कि पूरे क्षेत्र की आय में वृद्धि को लेकर लोगों का नजरिया ज्यादा आशावादी नहीं है, पर उन्हें खुद अपनी आय क्षेत्र से ज्यादा तेजी से बढऩे की उम्मीद है। अगले 12 महीनों के लिए जहाँ इस क्षेत्र की आय बढऩे का औसत अनुमान केवल 4% है, वहीं कंपनियों की अपनी आय बढऩे का औसत अनुमान 15% से कुछ ज्यादा है। जहाँ एक ओर 87% कंपनियों का आकलन है कि उनके क्षेत्र की विकास दर 2013-14 में 10% से कम ही रहेगी, वहीं 55% कंपनियाँ खुद अपने कारोबार में 10% से ज्यादा वृद्धि की उम्मीद रखती हैं।
विनिर्माण क्षेत्र में कंपनियों के मार्जिन पर साफ तौर पर दबाव बनने लगा है। सर्वेक्षण के मुताबिक 43% कंपनियों ने बताया कि बीते छह महीनों में उनकी बिक्री की तुलना में इन्वेंट्री यानी बिक्री के लिए तैयार माल का अनुपात बढ़ गया है। यह बाजार से माँग कम निकलने और बिक्री घटने का लक्षण है। ऐसी हालत में मोल-तोल करने की उनकी क्षमता घट जाती है और उन्हें उत्पादों के वांछित दाम नहीं मिलते। एक तरफ 58% ने बताया है कि बीते छह महीनों में उनकी लागत बढ़ी है, वहीं केवल 20% कंपनियाँ अपने उत्पादों के दाम बढ़ा पायी हैं और 39% कंपनियों को दाम घटाने पड़े हैं। इस स्थिति के चलते 50% कंपनियों के मार्जिन में कमी आयी है।
हालाँकि 54% ने आने वाले 12 महीनों में स्थिति सुधरने की उम्मीद जतायी है। मतलब यह है कि इस क्षेत्र की ज्यादातर कंपनियों की राय में बाजार अपने सबसे बुरे दौर को पार कर चुका है और आने वाले महीने बेहतर साबित होंगे। उम्मीद करते हैं कि उनकी यह उम्मीद सच हो।
(निवेश मंथन, अगस्त 2013)