राजेश रपरिया, सलाहकार संपादक :
पश्चिम बंगाल के शारदा घोटाले से उपजे आक्रोश और असंतोष से तृणमूल कांग्रेस की राज्य सरकार और देश की नियामक संस्थाओं की नींद उड़ गयी है।
पिछले बीस सालों में ऐसी अनेक फरेबी कंपनियों ने खासकर मेहनतकश जनता को लूटा है। देश के नीत-नियंता जितने नये कायदे-कानून बनाते हैं, जितना ही कागजी कार्रवाई का बोझ बढ़ता है, फरेबी कंपनियों के हाथों मेहनतकश जनता के लुटने की गुंजाइश भी उतनी ही बढ़ जाती है।
भारतीय रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर के सी चक्रवर्ती ने शारदा घोटाले के बाद बयान दिया है कि बैंकिंग और वित्तीय सेवाओं की पहुँच ग्रामीण इलाकों में मेहनतकश जनता के बीच होती तो ऐसे हादसे नहीं होते। लेकिन ठग कंपनियों की काली करतूतें इस तर्क का समर्थन नहीं करती हैं। स्पीकएशिया के फर्जीवाड़े को ही ले लें। इस कंपनी ने इंटरनेट की सहायता से ऑनलाइन मल्टीलेवल मार्केटिंग का झाँसा देकर जनता को अरबों रुपये का चूना लगा दिया। इस फर्जीवाड़े से दो निष्कर्ष बेहिचक निकाले जा सकते हैं। स्पीकएशिया के इस फर्जीवाड़े के ज्यादातर शिकार ग्रामीण क्षेत्र के नहीं थे, क्योंकि गाँवों में अभी इंटरनेट की सुविधा बहुत कम है। दूसरे, इंटरनेट देश की निम्न प्रति व्यक्ति आय को देखते हुए काफी महँगी सेवा है। इसका इस्तेमाल करना अधिकांश आबादी के सामथ्र्य से बाहर है। जो लोग इंटरनेट की सेवाएँ लेते हैं, क्या वे बैंक सेवाओं की पहुँच के बाहर हैं। यह माना जा सकता है ऐसे सभी लोगों के बैंक खाते होंगे। इसलिए श्री चक्रवर्ती के वक्तव्य में कोई वजन नजर नहीं आता है। अनेक फरेबी कंपनियाँ सोने के सिक्कों में भारी मुनाफे का झाँसा देकर जनता को ठग चुकी हैं। जो व्यक्ति सोने के सिक्के खरीद सकता है, क्या वह बैंकिंग सेवाएँ लेने में सक्षम नहीं होगा? यह बात गले के नीचे नहीं उतरती है। इसलिए यह कहना कि ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग-वित्तीय सेवाओं के विस्तार से फरेबी योजनाओं पर अंकुश लगेगा, यह सोचना ही हकीकत से मुँह मोडऩा होगा।
आज बैंकों में खाता खोलने के लिए आम आदमी को कितनी मशक्कत करनी पड़ती है, यह तो भुक्तभोगी ही अच्छी तरह जानते हैं। फिर सबसे बड़ा सवाल यह भी है कि निम्न आय वर्ग के लोग क्या कभी बैंकों की प्राथमिकता में रहे हैं? बैंक ऐसे लोगों की उपेक्षा करने में सारी शक्ति लगा देते हैं। कभी इस कागज के लिए तो कभी उस कागज के लिए चक्कर कटवा कर ही निम्न बचत के लोगों को वे भगा देते हैं। दूसरी ओर फरेबी कंपनियों का एजेंट उनके दरवाजे पर जाता है और बिना किसी तामझाम के उनसे जमा राशि लेता है। प्राय: यह एजेंट उनका परचित होता है। असल में मुख्य समस्या मार्केटिंग की है। इसमें फरेबी कंपनियों के आगे हमारी बैंकिंग व्यवस्था कमजोर पड़ जाती है। इसमें कमीशन का भी बड़ा हाथ है।
ग्रामीण क्षेत्रों में डाकघरों की बचत योजनाओं का जमा संग्रह बेहतर रहा है। लेकिन पश्चिम बंगाल के पूर्व आवास मंत्री गौतम देव का यह बयान आँखें खोल देने वाला है कि अप्रैल-अक्टूबर 2012 के दरम्यान पश्चिम बंगाल में छोटी बचत और डाकघरों का जमा संग्रह मात्र 194 करोड़ रुपये था, जबकि लक्ष्य 8370 करोड़ रुपये का था। जाहिर है कि लोग अब डाकघरों की बचत योजनाओं से दूर हो रहे हैं। क्यों? सर्वज्ञात जवाब है कि फरेबी योजनाओं पर लाभ की दर ज्यादा होती है। बैंकों और डाकघरों में उसके मुकाबले यह लाभ दर खासी कम होती है। इसलिए लोग फरेबी योजनाओं की तरफ ज्यादा आकर्षित होते हैं।
सर्वमान्य धारणा है कि मानव का लालच इन पोंजी या फरेबी योजनाओं की असली ताकत है। लेकिन यह इस तस्वीर का एक पहलू है। हर महीने महज 50-500 रुपये की बचत करने वाले लोग ही भारी मात्रा में फरेबी योजनाओं के शिकार होते हैं। पर इन लोगों का अधिक लाभ का लालच उनकी आर्थिक मजबूरियों और जिम्मेदारियों से निर्देशित होता है। उन पर विवाह, बच्चों की शिक्षा वगैरह के दायित्वों को पूरा करने का अनिवार्य सामाजिक दवाब होता है। आज बच्चों को पढ़ाना लिखाना या इलाज कराना वगैरह कितना महँगा हो गया है, यह किसी से छिपा नहीं है।
यदि हमारे नीति निर्माता इस मेहनतकश निम्न आय वर्ग के लोगों के लिए उचित लाभ का कोई वित्तीय उत्पाद मुहैया करा दें तो पोंजी योजनाओं के जाल-बटटे का फलता फूलता वृक्ष स्वयं ही सूखने लग जायेगा। केवल लालच को उनकी लूट का जिम्मेवार ठहराने से इस समस्या का निदान होने वाला नहीं है। ज्यादा कानूनी तामझाम से इन लुटेरों को भी लूटने वाले लोगों की एक और फौज खड़ी हो जायेगी, जैसा कि हम सभी एक अरसे से देख रहे हैं।
(निवेश मंथन, मई 2013)