राजेश रपरिया, सलाहकार संपादक :
अनिश्चितता और अस्थिरता का माहौल देश में दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है। निराशा और बेबसी से उपजी अटकलों से आर्थिक-राजनीतिक अस्थिरता को और हवा मिल रही है।
डॉलर के सापेक्ष रुपये की कीमतों में गिरावट आने और लोकसभा के चुनाव समय से पहले होने की अटकलें अनचाहे विश्वास में बदलती जा रही हैं। अब मुद्रा बाजार के जानकार डॉलर के सापेक्ष रुपये की कीमत 60 रुपये तक गिरती देख रहे हैं। इससे आर्थिक रणनीतिकारों और बाजार का पसीना छूटना लाजमी है। इस आशंका की मूल वजह है इस समय देश के चालू खाते का घाटे (सीएडी) का ऐतिहासिक चरम पर होना। दिसंबर 2012 को समाप्त तिमाही में यह घाटा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 6.7% पर पहुँच गया, जो इससे पिछली तिमाही में 5.4% था। ज्ञातव्य है 1991 के महासंकट के समय में भी यह घाटा सकल घरेलू उत्पाद का 3% था। वित्त मंत्रालय भी चालू खाते के घाटे को लेकर आश्वस्त नहीं है। इस घाटे से रिजर्व बैंक की जान भी सांसत में है। रिजर्व बैंक ने स्पष्ट कहा है कि यह घाटा सहन-सीमा से बाहर हो गया है और लगातार इतने विकराल घाटे का वित्तपोषण करना बेहद मुश्किल है।
भारतीय अर्थव्यवस्था एक अजीब विडंबना से गुजर रही है। जब कोई भी देश आर्थिक मंदी की चपेट में आता है तो प्राय: वहाँ महँगाई दर में पर्याप्त कमी होती है और चालू खाते के घाटे में अपेक्षित गिरावट होती है। संकटग्रस्त यूरो क्षेत्र के कई देशों में यह प्रवृति साफ देखी जा सकती है। वित्त वर्ष 2003 में देश की आर्थिक विकास गिर कर 4% हो गयी थी। तब महँगाई दर भी औसतन 3.4% तक गिर गयी थी और चालू खाते में घाटे के बदले अधिशेष (सरप्लस) था। इस समय देश में विकास दर ऐतिहासिक रूप से न्यूनतम पर आ गयी है, पर चालू खाते का घाटा न केवल चरम पर है, बल्कि खतरे की सीमा 2.5% से बहुत ऊपर है। महँगाई दर भी सुकून के स्तर से ऊपर है। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक की वृद्धि दर दो अंकों से अधिक बनी हुई है।
भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियादी दिक्कत यह है कि हमारे निर्यात वैश्विक मंदी से अपेक्षाकृत ज्यादा प्रभावित होते हैं। लेकिन आर्थिक मंदी का हमारे आयात बिल पर कोई खास प्रभाव देखने में नहीं आता है। यानी मंदी के प्रति आयात बिल लचीला नहीं है। खास कर दो वस्तुओं - तेल और सोने के आयात से हमारा व्यापार घाटा और चालू खाते का घाटा बहुत ऊँचा बना हुआ है। नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के परिणामों की बिडंबना यह है कि विकास दर न्यूनतम होने और महँगाई दर अधिक होने के बाद भी इन दोनों वस्तुओं के आयात बिल मे ंगिरावट दर्ज नहीं होती है। पेट्रोल, डीजल और गैस की बढ़ती खपत के लिए बिजली उत्पादन और वितरण के कुप्रबंधन और अक्षमता के साथ-साथ मकानों, मॉलों और कारों में बढ़ता उपभोग तेल बिल की इस अनम्यता के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेवार है।
जाहिर है कि अधिक आय वर्ग का तबका ही ईंधन का ऐसा उपभोग करने में समर्थ है। सोने की सतत अधिक माँग के लिए निस्संकोच रूप से केवल और केवल देश का संपन्न वर्ग जिम्मेवार है। विकसित देशों और चीन में भी सोने की माँग और खपत भारत से कम है, जबकि प्रति व्यक्ति आय की तुलना में वे हमसे बहुत आगे हैं। अकाट्य तथ्य है कि हिंदुस्तान की 85% आबादी सोने की खरीद में पहले से असमर्थ है। संपन्न तबके के व्यर्थ विलासी उपभोग का बोझ 85% आबादी ढोने को अभिशप्त है। इस संपन्न वर्ग की आय पर मंदी और महँगाई का आनुपातिक प्रभाव नहीं पड़ता है। इसकी मूल वजह यह है कि संपन्न वर्ग के अधिसंख्य लोगों के पास बेहिसाब काला धन है, जो दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है। सरकार के तमाम प्रयासों के बाद भी इन दोनों के उपभोग में कोई खास गिरावट नहीं आने से डॉलर महँगा होने की आशंकाएँ बलबती हो रही हैं। निर्यात में कोई विशेष वृद्धि की उम्मीद नहीं है। नतीजतन डॉलर की आमद पर ही रुपये और चालू खाते का वित्तपोषण निर्भर है। राजनीतिक अस्थिरता और अनिश्चितता से इस आशंका को और हवा मिल रही है।
लोकसभा के समय पूर्व चुनावों और उसके परिणामों को लेकर बाजार का विश्वास हिल चुका है, पर बाजार का यह डर आधी हकीकत और आधा फसाना है। अगर वामपंथ समर्थित और नियंत्रित कोई सरकार केंद्र में काबिज हो, तभी मौजूदा नतीजों पर अंकुश लग सकता है। पर इसकी संभावना दूर-दूर तक नहीं है। केंद्र में जो भी सरकार काबिज होगी, वह कांग्रेस या भाजपा के समर्थन पर ही बनेगी। ये दोनों दल नवउदारवादी नीतियों के वाहक हैं। इसलिए समय पूर्व चुनाव से यह डर वाजिब नहीं लगता है। उल्टे इससे चीजें और स्पष्ट होंगी, क्योंकि इस गठबंधन सरकार का कोई इकबाल नहीं रह गया है। हमारी आमुख कथा में ंबाजार के डर और चुनावों को लेकर विस्तार से चर्चा की गयी है।
(निवेश मंथन, अप्रैल 2013)