सुशांत शेखर :
सोना भले ही भारतीयों के जीवन का अटूट हिस्सा हो और बिना सोने के भारतीय शादियों की कल्पना करना भी मुश्किल हो, लेकिन इन दिनों यही सोना सरकार की नजर में खलनायक बन गया है। जुलाई-सितंबर तिमाही के चालू खाता घाटे (सीएडी) के आँकड़े इसकी वजह बने हैं।
जुलाई-सितंबर तिमाही में भारत का चालू खाता घाटा देश के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी के 5.4% के बराबर पहुँच गया है। यह अब तक का रिकॉर्ड स्तर है। सरकार को लगता है कि चालू खाता बढऩे की सबसे बड़ी वजह सोने का आयात है और इस पर काबू पाने की जरूरत है।
वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने चालू खाता घाटे के आँकड़े आने के कुछ ही दिन बाद अपने इरादे साफ कर दिए। उन्होंने संकेत दिया कि सोने का आयात महँगा किया जा सकता है। मतलब साफ है कि सरकार सोने का आयात महँगा करने के लिए आयात शुल्क में और बढ़ोतरी करने जा रही है। माना जा रहा है कि सरकार इस पर आयात शुल्क मौजूदा 4% से बढ़ा कर 6% कर सकती है। इससे पहले 2012 के बजट में भी सरकार ने आयात शुल्क दोगुना कर दिया था। पिछले बजट के प्रावधानों के तहत मानक गोल्ड बार के आयात पर आयात शुल्क 4% और गैर-मानक सोने पर 10% कर दिया गया था।
सरकार सीएडी बढऩे में भले ही सोने को सबसे बड़ा खलनायक मान रही हो, लेकिन क्या आँकड़़े वाकई इसकी पुष्टि करते हैं? जुलाई-सितंबर तिमाही में भारत में सोने का आयात 2020 करोड़ डॉलर का हुआ जो पिछले साल की इसी अवधि के मुकाबले 30.3% कम है। जाहिर है कि सोने को चालू खाते बढऩे के लिए पूरी तरह जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।
आम भाषा में कहें तो देश में विदेश से आने वाली कुल रकम और विदेश जाने वाली कुल रकम के अंतर को चालू खाता घाटा कहते हैं। मतलब साफ है कि अगर आयात और निर्यात का संतुलन बना रहे तो चालू खाते की स्थिति संतुलित रहती है। लेकिन जुलाई-सितंबर तिमाही में इसका असंतुलन रिकॉर्ड स्तर पर पहुँचने की असली वजह है निर्यात में लगातार कमी।
अप्रैल से सितंबर 2012 के बीच भारत का निर्यात बढऩे की बजाय घट गया। इस दौरान निर्यात में 6.7% की कमी आयी। वहीं पिछले साल इसी दौरान देश का निर्यात 41.8% बढ़ा था। मौजूदा वित्त वर्ष में अप्रैल से नवंबर की बात करें तो निर्यात में 5.7% की कमी आयी है।
निर्यात में लगातार कमी इस वजह से ज्यादा चिंताजनक है कि इस दौरान रुपये की कीमत में भी लगातार गिरावट आयी है। वित्त वर्ष 2011-12 में जुलाई-सितंबर तिमाही में डॉलर के मुकाबले रुपये की औसत कीमत 45.75 रुपये प्रति डॉलर थी। वहीं मौजूदा वित्त वर्ष में इसी तिमाही के दौरान डॉलर की औसत कीमत 55.10 रुपये रही। रुपये के कमजोरी से निर्यातकों को फायदा मिलता है, क्योंकि वे दूसरे देशों के निर्यातकों के मुकाबले बेहतर प्रतिस्पर्धा कर पाते हैं। लेकिन हुआ इसका उलटा। सोचिए अगर कहीं एक डॉलर का भाव 45-46 रुपये के आसपास ही रहा होता तो भारतीय निर्यातकों का क्या हाल हुआ होता!
देश के निर्यात में कमी की मुख्य वजह यूरोप और अमेरिका से माँग में कमी तो है ही, साथ ही घरेलू स्तर पर निर्यातकों को ऊँची ब्याज दरों और कई अन्य दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। मसलन तमिलनाडु का त्रिपुर इलाका कपड़ों के निर्यात का प्रमुख केंद्र है। लेकिन पिछले कुछ महीनों से वहाँ बिजली कटौती इतनी भयानक है कि उद्योगों को हड़ताल करनी पड़ रही है। ऐसा ही हाल उत्तर भारत के कई औद्योगिक क्षेत्रों का है।
जाहिर है सरकार चालू खाता घाटा बढऩे से रोकने के लिए इलाज कुछ और कर रही है, जबकि मर्ज कुछ और है। सरकार को निर्यात बढ़ाने के उपाय करने चाहिए, लेकिन सरकार सोने का आयात महँगा करने की तैयारी में है। आयात महँगा होने से सोने की माँग में तो कमी आ सकती है, लेकिन इसके साथ ही सोने की तस्करी बढऩे का खतरा भी पैदा होगा।
सरकार अगर सोने पर आयात शुल्क 2% और बढ़ा कर 6% कर देती है तो सोना के आयातकों को 120 डॉलर प्रति औंस का शुल्क देना पड़ेगा। जाहिर है कि इससे गैर-कानूनी रास्तों से सोने के आयात को बढ़ावा मिलेगा। हाल ही में बांग्लादेश के रास्ते सोने की तस्करी बढ़ने की खबरें मिली हैं। अगर तस्करी बढ़ती है तो टैक्स से सरकार की कमाई और घट जायेगी। जाहिर है इससे उल्टे नुकसान ही होगा।
हालाँकि निवेश के लिए सोने की भौतिक माँग घटाने की भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की कोशिशें सोने का आयात घटाने में ज्यादा कारगर हो सकती हैं। रिजर्व बैंक ने सोने की निवेश माँग के लिए सोना भौतिक रूप से खरीदने की बजाय डीमैट रूप में खरीदने की वकालत की है। इसके लिए आरबीआई ने सोने से जुड़े वित्तीय उत्पादों को प्रोत्साहन देने की सिफारिशें की हैं।
(निवेश मंथन, जनवरी 2013)