बजट से पूरे देश और दुनिया को यह संदेश देना होगा कि भारत सरकार की आर्थिक सुधार की जो रेल गाड़ी पटरी से उतर चुकी है, उसे वापस पटरी पर डाला जा रहा है। बजट केवल वार्षिक बहीखाता नहीं होता है। सबसे बड़ा मुद्दा यह होता है कि अगले 12 महीनों में देश की दिशा क्या रहेगी, नीतियों के स्तर पर और विभिन्न क्षेत्रों में किन बातों को प्राथमिकता दी जायेगी। पिछले 12 महीनों के अंदर हमने देखा है कि हमारा देश आर्थिक मसलों को लेकर लगभग दिशाहीन हो चुका है।
भारत में आर्थिक सुधार शुरू हुए 20 साल पूरे हो चुके हैं। उम्मीद यह थी कि 2011-12 में सुधारों के दूसरे चरण की शुरुआत होगी और हुआ उसका उल्टा। अब सरकार को देश और पूरी दुनिया को यह संदेश देना पड़ेगा कि भारत आर्थिक सुधारों के लिए वचनबद्ध है। आर्थिक सुधारों को द्वितीय चरण में ले जाने का समय आ गया है।
सरकार को बजट में स्पष्ट करना चाहिए कि देश की अर्थव्यवस्था का विस्तार कैसे होगा। सरकार को ज्यादा-से-ज्यादा ध्यान बुनियादी ढाँचे (इन्फ्रास्ट्रक्चर) पर देना पड़ेगा। बुनियादी ढाँचे के अंदर नयी गति और नया जोश लाने के लिए प्रोत्साहन देने की जरूरत है, नीतियों में सुधार की आवश्यकता है। जहाँ-जहाँ अस्पष्टता बनी हुई है, जहाँ-जहाँ परियोजनाएँ रुकी पड़ी हैं, उनको जल्दी से मँजूरी देने की जरूरत है। बजट के माध्यम से यह बात आनी चाहिए। आज भी अर्थव्यवस्था उस गति से नहीं चल पा रही है जिस गति से देश चाहता है। इसका मुख्य कारण यही है कि बुनियादी ढाँचा अब भी बहुत बुरी हालत में है। अगर कोई बहुत तेजी से उडऩा चाहे तो उसके लिए एक वाहन चाहिए और उस वाहन की स्थिति अच्छी होनी चाहिए। देश के विकास का यह वाहन बुनियादी ढाँचा ही है।
बुनियादी ढाँचे के अंदर सबसे पहली बात यह है कि हमारे देश में परिवहन का ढाँचा बहुत ही खराब हालत में है, खासतौर से रेल का। केवल हवाई जहाजों पर निर्भर हो कर हमारा देश प्रगति नहीं कर सकता। रेलवे आज लगभग दीवालिया है। इसका आधुनिकीकरण रुक चुका है। रेलवे का विस्तार रुका पड़ा है। रेलवे में 100% से ज्यादा राजनीतिकरण हो चुका है। होना चाहिए था आधुनिकीकरण, उसकी जगह उसका हो गया संपूर्ण राजनीतिकरण।
इस स्थिति को पलटना होगा। रेलवे के आधुनिकीकरण को शीर्ष प्राथमिकता देने नीतियाँ आनी चाहिए और रेलवे को एक व्यवसाय की तरह चलाया जाना चाहिए। बहुत से ऐसे वर्ग या ऐसे इलाके हैं, जहाँ हमें सब्सिडी या मदद देने की आवश्यकता है। जैसे उत्तर पूर्व या कश्मीर है, वहाँ मदद देनी चाहिए। लेकिन बाकी जगह रेलवे को पेशेवर प्रबंधकों के हवाले कर देना चाहिए। इसको पेशेवर तरीके से चलाना चाहिए। रेलवे को अभी राजनेता जिस तरह चलाते हैं, वह इसके हित में नहीं है। रेलवे का तुरंत आधुनिकीकरण नहीं हुआ और देश में इसका बुनियादी ढाँचा उसी स्तर पर नहीं लाया गया जहाँ चीन पहुँच चुका है, तो हमारे देश का आर्थिक और सामाजिक भविष्य खतरे में रहेगा। आर्थिक और सामाजिक भविष्य पर खतरे से राजनीतिक भविष्य पर भी सवालिया निशान लग जाता है।
दूसरे, मेरा मानना है कि हमें जल-परिवहन पर ध्यान देने के लिए समुद्री परिवहन के ढाँचे पर काफी काम करना होगा। इस बजट में यह प्रतिबद्धता होनी चाहिए कि इस वर्ष उत्तर-पश्चिम और पूर्व में कम-से-कम चार नये गहरे समुद्र के बंदरगाहों का काम शुरू किया जायेगा।
हमारे देश में सड़कों और रेलवे की हालत जर्जर है। दूसरी तरफ हमारे पास काफी बड़ी समुद्री सीमा है। इसलिए तटीय जहाजरानी (कोस्टल शिपिंग) को बड़ी प्राथमिकता दी जानी चाहिए। मेरा प्रस्ताव रहेगा कि सरकार इसके लिए एक नयी कंपनी शुरू करे, जो या तो सरकारी हो या निजी कंपनियों के साथहिस्सेदारीमेंहो।गुजरात, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र जैसे जिन प्रांतों के पास समुद्री तट हैं, उन्हें भी प्रोत्साहित करना चाहिए कि वे निजी हिस्सेदारी में अपनी-अपनी जहाजरानी कंपनियाँ शुरू करें। हमारी जो माल ढुलाई ट्रकों और रेलवे से होती है, उसका लगभग 30% फीसदी बड़ी आसानी से हम समुद्रतटीय मार्गों से ले जा सकते हैं। इसमें हमारी बड़ी बचत होगी। इससे सड़कों पर अभी जो बोझ है, वह भी कम होगा।
समुद्रतटीय परिवहन रेलवे से भी बहुत सस्ता है, क्योंकि वहाँ कोई पटरी बिछाने की जरूरत नहीं है। प्रकृति ने आपको सब दिया है, कुछ नहीं करना पड़ता। अगर आपको कोई चीज गुजरात से कोलकाता ले जानी है, चाहे वह कार हो साइकल हो या सीमेंट हो, तो उसे ट्रकों से क्यों ले जा रहे हैं? आपके सामने समुद्र फैला हुआ है। हम अगर सही व्यवस्था करें तो पूर्वी तट और पश्चिमी तट के बीच की माल ढुलाई का 50% हिस्सा समुद्री मार्ग से जा सकता है।
हमारे देश में बड़ी और चौड़ी नदियाँ हैं। सरकार ने चार साल पहले ही अंतर्देशीय जल परिवहन की नीति घोषित की और इसके बारे में एक प्राधिकरण (अथॉरिटी) भी बनाया। लेकिन कोई काम नहीं हुआ उस पर। नतीजतन हम परिवहन के लिए अपनी तमाम नदियों का प्रयोग नहीं कर पा रहे हैं। इस पर केवल विचार होता रहा है, काम नहीं हुआ है। मैं अपने बजट में इन पर काम होने को प्रमुखता देना चाहूँगा।
इसके अलावा बात आती है ऊर्जा की। ऊर्जा में चाहे बिजली की बात हो या तेल-गैस की बात हो, यह सब चीजें बुनियादी ढाँचे में ही आती हैं। इन सबके अंदर खास तौर से पिछले दो साल के अंदर ढीलापन आ चुका है। इनका अत्यधिक राजनीतिकरण हो चुका है। पर्यावरण के नाम पर, मौसम परिवर्तन के नाम पर हमने तमाम परियोजनाएँ रोक रखी हैं। जिन परियोजनाओं पर रोक लगी हुई है या किसी वजह से वो आगे नहीं बढ़ पा रही हैं, उन्हें आने वाले छह महीनों के अंदर तेजी से स्वीकृति दी जाये। जो तमाम परियोजनाएँ रुकी पड़ी हैं, अगर उनकी शुरुआत अगले छह महीनों में हो जाये तो यह बजट की बहुत बड़ी उपलब्धि होगी।
शिक्षा और स्वास्थ्य को प्रमुखता देनी होगी। बजट में स्वास्थ्य के लिए सरकारी आवंटन को मैं बढ़ा कर दोगुना करना चाहूँगा। वहीं शिक्षा पर खर्च में दोगुनी से भी थोड़ी ज्यादा बढ़ोतरी बजट में करनी पड़ेगी। अभी हम शिक्षा पर सबसे कम खर्च करने वाले देशों में से हैं। हमें यह समझना पड़ेगा कि अगर हम शिक्षा पर निवेश नहीं करेंगे तो जैसी अर्थव्यवस्था की जरूरत है, वह हम बना नहीं पायेंगे।
सैन्य क्षेत्र को लेकर धारणा है कि हमें इस पर ज्यादा पैसे नहीं खर्च करने चाहिए, लेकिन मेरा मानना है कि सेना के आधुनिकीकरण के लिए बजट में 6-8% की बढ़ोतरी जरूरी है। इस बढ़ोतरी में जोर इस बात पर हो कि ज्यादा-से-ज्यादा हथियारों का उत्पादन देश के अंदर हो। इससे देश की अर्थव्यवस्था स्थिर हो सकेगी। साथ ही इसमें सरकारी-निजी हिस्सेदारी ज्यादा हो, जिससे रक्षा में निजी क्षेत्र की भूमिका बढ़ सके। इन सबसे हमारी रक्षा तैयारी बढ़ेगी।
सब्सिडी यानी सरकारी सहायता भी एक बड़ा मुद्दा है। जिसको सब्सिडी की आवश्यकता नहीं है, उसको मिल रही सब्सिडी वापस लेने की शुरूआत मैं अपने बजट में करना चाहूँगा। ईंधन और खाद जैसी चीजों पर सब्सिडी को एकदम खत्म नहीं किया जा सकता। यह राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामला भी है। लेकिन इसे कम करने की शुरुआत करके आगे कैसे चला जायेगा इसकी घोषणा होनी चाहिए।
इसके अलावा जो तमाम सामाजिक योजनाएँ चल रही हैं, जैसे नरेगा वगैरह, उन्हें उत्पादकता और लोगों के विकास से जोडऩा पड़ेगा। अभी इन्हें राजनीतिक योजना या उपहार माना जाता है। मैं इसे बदलना चाहूँगा जिससे वास्तव में बहुत गरीब असहाय लोग इनके दायरे में आ सकें। मेरे बजट के अंदर सामाजिक बीमा की एक पहल होगी, जिसमें राजनेताओं की भूमिका नहीं होगी। उसके लिए एक स्वतंत्र संस्था बनेगी जिसको सरकार से मदद मिलेगी। लेकिन वह ऐसे तरीके से काम करेगी कि लोगों की मदद करने के लिए वह आने वाले समय में अपने साधन स्वतंत्र रूप से जुटा सके। उसमें सरकार की अहम भूमिका होगी, लेकिन साथ-साथ बाजार की भी भूमिका रहेगी। उसके कई तरीके हो सकते हैं। वह संस्था बाजार से, बैंकों से और उन लोगों से भी पैसा उठा सकती है, जिनकी वह मदद कर रही हो। इससे स्वतंत्र रूप में भारत का सामाजिक सुरक्षा नेटवर्क तैयार हो सकेगा। आज तमाम पैसा योजनाओं के नाम पर देकर उम्मीद की जाती है कि इससे सत्ताधारी दल को फायदा होगा। बजट में यह चलन खत्म होना चाहिए। अभी सामाजिक योजनाओं के नाम पर सरकारी घाटे की बड़ी समस्या खड़ी हो जाता है। सरकारों में आपसी होड़ भी शुरू हो जाती है कि तुमने इतना दिया, हम तुमसे ज्यादा देंगे।
इस बजट में मैं एक राष्ट्रीय फंड भी बनाना चाहूँगा, जिसका मकसद पूरे देश में लाखों नये उद्यमियों को खड़ा करना होगा। वे सारे लोग, जिनकी चाहे कितनी भी पढ़ाई हुई हो, कितनी भी उम्र हो, लेकिन अगर उनके अंदर उद्यमी बनने का माद्दा हो और सोच हो तो उनकी मदद की जा सके। लक्ष्य यह रखना चाहिए कि पूरे देश में आने वाले पाँच साल के अंदर हम एक से डेढ़ करोड़ नये उद्यमी अलग-अलग क्षेत्रों में खड़े कर सकें। ये उद्यमी आने वाले समय में हमारे देश की अर्थव्यवस्था की रीड़ की हड्डी बन सकेंगे।
मेरे विचार से भारत की अर्थव्यवस्था अब परिपक्व हो चुकी है। हर साल राष्ट्रीय बजट बनाने की ज्यादा प्रासंगिकता नहीं रह गयी है। हमारे देश की सरकार का काम नीतियाँ बनाना है, नियमन करना है, देश का उत्साह बढ़ा कर रखना है। हर साल बजट बनाना अंग्रेजों की चलायी गयी प्रथा है। आज सालाना बजट के रस्म की कोई जरूरत नहीं है। इसके बदले सरकार हर तीन महीने पर वित्तीय लेखा-जोखा पेश करे, जिससे सरकार आने वाली चुनौतियों का तिमाही स्तर पर सामना कर सके। वार्षिक बजट का मुख्य काम नीति, दिशा और सोच तय करना होना चाहिए, जिससे देश का निर्माण हो सके। आप हर तीन महीने के बाद सरकार को अग्रिम कर (एडवांस टैक्स) देते हैं। सरकार क्यों नहीं तिमाही हिसाब-किताब दे सकती?
विनिवेश प्रक्रिया भी तेज करनी होगी। जो सरकारी कंपनियाँ वित्तीय रूप से आगे चलाने लायक नहीं हैं या अब इतनी शक्तिशाली नहीं हैं, उनका विनिवेश तेजी से एक साल के अंदर करना चाहिए। जो सरकारी कंपनियाँ सरकार को अच्छा कमा कर दे रही हैं, उनको थोड़ी और स्वायत्ता देनी चाहिए, जिससे उनका प्रदर्शन और सुधारा जा सके। सरकारी और निजी क्षेत्र के अंदर एक थोड़ा-सा भेदभाव रहता है, उसको जहाँ तक संभव हो, मैं खत्म करना चाहूँगा।
आखिरी बात यह है कि हमारे राष्ट्रीय बजट की दिशा का प्रांतीय सरकारों से कोई सरोकार नहीं दिखता है। राष्ट्रीय बजट को तमाम प्रदेशों की आकांक्षाओं और मजबूरियों को ध्यान में रख कर बनाया जाये। मेरा बजट पूरे देश का बजट होगा, केवल केंद्र का बजट नहीं होगा।
(निवेश मंथन, फरवरी 2012)