सरकार और कॉर्पोरेट क्षेत्र के दिग्गजों के खिलाफ कुछ चुनिंदा व्यक्तियों की यह लड़ाई सफलता के इस अंजाम तक पहुँच सकेगी, यह सोचने वाले लोग शुरुआत में कम ही होंगे। संचार (टेलीकॉम) क्षेत्र का विवादों से पुराना नाता रहा है।
इस क्षेत्र में निजी कंपनियों के आने के बाद ऐसा कोई वक्त नहीं रहा, जब सरकार पर पक्षपात के आरोपों की बौछार न रही हो।लेकिनयूपीएसरकारकीपहलीपारीमें 2004 मेंदयानिधिमारनकेसंचार मंत्री बनने के बाद इस क्षेत्र को जानने-समझने वालों में कसमसाहट बढऩे लगी। ए. राजा के मई 2007 में संचार मंत्री बनने के बाद तो मानो मंत्रालय का माहौल ही बदल गया।
टेलीकॉम घोटाले पर चले मुकदमे में देश की सबसे बड़ी अदालत के सामने कई बड़े सवाल थे। एक सवाल यह था कि क्या पहले आओ पहले पाओ की जिस नीति के आधार पर लाइसेंस और स्पेक्ट्रम दिये गये, वह कानूनन कितनी सही थी? दूसरा सवाल था कि 2001 में तय कीमत पर 2008 में स्पेक्ट्रम जैसी कीमती और दुर्लभ चीज निजी कंपनियों को देना कितना सही था? तीसरा सवाल यह था कि क्या ऐसा करते समय कोई मनमानी की गयी, कुछ लोगों के साथ पक्षपात और बाकी के साथ अन्याय किया गया? न्यायालय ने पहले आओ पहले पाओ की नीति को सरकारी संपत्तियों, ठेके, लाइसेंस वगैरह देने के लिए उपयुक्त नहीं माना है। इसने 2001 में तय कीमत को 2008 के लिए वास्तविक और उचित नहीं माना। साथ ही इसने स्पष्ट कहा कि दूरसंचार विभाग के अधिकारियों ने सितंबर 2007 और मार्च 2008 के बीच तत्कालीन संचार मंत्री (ए. राजा) के नेतृत्व में जो कार्य किये, वे पूरी तरह इकतरफा, मनमाने, ओछे और जनहित के विरुद्ध थे।साथयेकार्यसमानताकेसिद्धांतकेभीविरुद्ध थे। इस न्यायालय के समक्ष जो चीजें प्रस्तुत की गयीं, वे दिखाती हैं कि संचार मंत्री सरकारी खजाने को नुकसान पहुँचाते हुए कुछ कंपनियों के साथ पक्षपात करना चाहते थे।
अदालत में दायर याचिकाओं की मांग से सवाल उठे थे कि क्या ये लाइसेंस ऐसे आवेदकों को दिये गये, जो इसके लिए योग्य नहीं थे? क्या ये आवेदक लाइसेंस की शर्तों को पूरा करने में असफल रहे और इस वजह से उनका लाइसेंस रद्द किया जाना चाहिए?
अदालत ने अपने सामने आयी याचिकाओं को मानते हुए दो फरवरी 2012 को अपने आदेश में कहा कि 10 जनवरी 2008 को या इसके बाद निजी कंपनियों को जारी होने वाले सभी लाइसेंस (2जी के ऐसे कुल 122 लाइसेंस) और उनके आधार पर दिया गया स्पेक्ट्रम अवैध करार देकर रद्द किया जाता है। लेकिन अदालत ने यह भी कहा कि उसका यह आदेश चार महीने बाद लागू होगा। यानी इन लाइसेंसों और स्पेक्ट्रम पर चलने वाली सेवाएँ अगले चार महीनों तक जारी रह सकेंगी।
साथ ही अदालत ने टीआरएआई को निर्देश दिया है कि वह 2011 में केंद्र सरकार के फैसलों को ध्यान में रखते हुए नीलामी के जरिये 2जी लाइसेंस और स्पेक्ट्रम आवंटन के बारे में अपनी नयी सिफारिशें दे। न्यायालय ने कहा है कि यह नीलामी वैसी ही होनी चाहिए, जैसी 3जी के लिए की गयी थी। टीआरएआई की इन सिफारिशें मिलने के बाद इन पर विचार करके उचित कदम उठाने के लिए केंद्र सरकार को अदालत ने एक महीने का समय दिया है।
सर्वोच्च न्यायालय ने 2जी स्पेक्ट्रम मामले में अपने ताजा आदेश में स्पष्ट शब्दों में कहा है कि ‘दूरसंचार विभाग के अधिकारियों ने सितंबर 2007 और मार्च 2008 के बीच तत्कालीन संचार मंत्री (ए. राजा) के नेतृत्व में जो कार्य किये, वे पूरी तरह इकतरफा, मनमाने, ओछे और जनहित के विरुद्ध थे।साथयेकार्यसमानताकेसिद्धांतकेभीविरुद्धथे।इसन्यायालयकेसमक्ष जो चीजें प्रस्तुत की गयीं, वे दिखाती हैं कि संचार मंत्री सरकारी खजाने को नुकसान पहुँचाते हुए कुछ कंपनियों के साथ पक्षपात करना चाहते थे।‘
आखिर सर्वोच्च न्यायालय किन बातों को देख कर इस नतीजे पर पहुँचा? न्यायमूर्ति जी. एस. सिंघवी और न्यायमूर्ति अशोक कुमार गांगुली ने अपने फैसले में लिखा कि संचार और सूचना तकनीक मंत्री बनते ही उन्होंने (राजा ने) निर्देश दिया कि यूएएस लाइसेंस जारी करने की सारी प्रक्रिया टीआरएआई की सिफारिशें मिलने तक रोक दी जायें। टीआरएआई ने जब 28 अगस्त 2007 को अपनी सिफारिशें पेश कीं तो उन्हें संपूर्ण टेलीकॉम कमीशन के सामने नहीं रखा गया, जिसमें बाकी लोगों के अलावा वित्त सचिव भी होते। टीआरएआई की सिफारिशों के महत्वपूर्ण वित्तीय परिणाम होने वाले थे, इसके बावजूद टेलीकॉम कमीशन की बैठक की सूचना इसके किसी भी अस्थायी सदस्य को नहीं दी गयी। टेलीकॉम कमीशन की यह बैठक 10 अक्टूबर 2007 को हुई थी। इसमें दूरसंचार विभाग के जिन अधिकारियों ने हिस्सा लिया, उनके सामने टीआरएआई की सिफारिशों को मानने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। अगर वे ऐसा नहीं करते तो उन्हें मंत्री के गुस्से का सामना करना पड़ता। संचार मंत्री को पता था कि वित्त सचिव ने 2001 में तय की गयी कीमत पर 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन का विरोध किया था। इसीलिए उन्होंने इस मामले में वित्त मंत्री या वित्त मंत्रालय के अधिकारियों से विचार विमर्श ही नहीं किया।
जब प्रधानमंत्री ने दो नवंबर को उन्हें पत्र लिख कर सलाह दी कि स्पेक्ट्रम की कमी को ध्यान में रख कर इसके आवंटन में पारदर्शिता और निष्पक्षता बरती जाये, तो यह सलाह मिलने के कुछ ही घंटों के भीतर संचार मंत्री ने उनकी सलाह खारिज कर दी।
संचार मंत्री ने लाइसेंस के लिए आवेदनों पर विचार करते समय 25 सितबंर 2007 की अंतिम तिथि तय करने का फैसला कर लिया, जबकि इसके केवल एक दिन पहले ही दूरसंचार विभाग ने प्रेस रिलीज जारी करके एक अक्टूबर 2007 की अंतिम तिथि घोषित की थी। मंत्री के इस स्वैच्छिक निर्णय से कुछ ऐसी रियल एस्टेट कंपनियों को फायदा मिल गया जिन्हें टेलीकॉम सेवाएँ देने का कोई पिछला अनुभव नहीं था और जिन्होंने संचार मंत्री की ओर से खुद तय की गयी अंतिम तिथि के ठीक एक दिन पहले 24 सितंबर 2007 को ही अपने आवेदन दाखिल किये थे।
अंतिम तिथि 25 सितंबर तय करने का फैसला संचार मंत्री ने दो नवंबर 2007 को ही लिया था, लेकिन इसे 10 जनवरी 2008 तक सार्वजनिक नहीं किया गया। पहले आओ पहले पाओ की जो नीति 2003 से लागू थी, उसे उन्होंने सात जनवरी 2008 को बदला और यह बदलाव 10 जनवरी को 2008 को ही प्रेस रिलीज में शामिल किया गया।इसकेचलतेमंत्रीयादूरसंचारविभागकेअधिकारियोंतकपहुँचरखनेवालेकुछआवेदकोंकोआशयपत्र (एलओआई) की शर्तें पूरी करने के लिए पहले से ही डिमांड ड्राफ्ट, बैंक गारंटी वगैरह तैयार कर लेने का मौका मिला, क्योंकि इसी बात को लाइसेंस और स्पेक्ट्रम आवंटन में वरीयता तय करने का आधार बना दिया गया था।
संपूर्ण टेलीकॉम कमीशन की बैठक नौ जनवरी 2008 को होने वाली थी, जिसमें लाइसेंस और स्पेक्ट्रम देने के मुद्दे पर विचार होना था। लेकिन इस बैठक को सात जनवरी को टालने का फैसला किया गया, ताकि वित्त सचिव और तीन अन्य महत्वपूर्ण विभागों के सचिव दूरसंचार विभाग की ओर से अपनायी गयी प्रक्रिया पर आपत्ति न कर सकें।
आवेदकों को 10 जनवरी 2008 को जिस ढंग से आशय पत्र जारी किये गये, उससे कोई संदेह नहीं रह जाता है कि सब कुछ पहले से तय करके रखा गया था। इसका मकसद उन लोगों को फायदा पहुँचाना था, जिन्हें पहले आओ पहले पाओ की नीति पर अमल के तरीके में किये गये बदलाव के बारे में पहले से पता था। इसी के चलते जिन कंपनियों ने 2004 या 2006 में ही अपने आवेदन दिये थे, वे वरीयता में पीछे चली गयीं, जबकि अगस्त और सितंबर 2007 में आवेदन जमा करने वाली कंपनियाँ अधिक वरीयता पा कर प्राथमिकता के आधार पर स्पेक्ट्रम पाने की अधिकारी बन गयीं।
कैसे अटकी 2001 पर सूई
दरअसल पिछली बार 2001 का ही वह अंतिम मौका था जब नीलामी के आधार पर टेलीकॉम लाइसेंस और स्पेक्ट्रम बाँटे गये थे। इसके बाद 2003 में सभी तरह की सेवाएँ देने वाली टेलीकॉम कंपनियों के लिए एक यूनिफाइड लाइसेंस देने का काम जरूर हुआ।
साल 2004 में आम चुनाव के बाद सरकार बदली। सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार जिक्र किया है कि 2004 और 2006 में यूनिफाइड लाइसेंस के लिए जमा कई आवेदनों पर कोई फैसला नहीं किया गया, हालाँकि 2003 में ही मंत्रालय ने पहले आओ पहले पाओ की नीति अपनाते समय फैसला किया था कि ऐसे आवेदनों पर 30 दिन के अंदर फैसला किया जायेगा। गौरतलब है कि यह दयानिधि मारन का कार्यकाल था।
मोबाइल सेवाओं की शुरुआत के समय हर सेवा क्षेत्र (सर्किल) में दो लाइसेंस दिये गये थे। टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया (टीआरएआई) ने 23 जून 2000 को अपनी सलाह में कहा था कि दूरसंचार विभाग या एमटीएनएल तीसरे मोबाइल ऑपरेटर की भूमिका निभाये। साथ ही इसने चौथे मोबाइल ऑपरेटर को लाने के लिए बोली के जरिये प्रवेश शुल्क तय करने की सलाह दी। सरकार ने पाँच जनवरी 2001 को चौथे मोबाइल ऑपरेटर के लाइसेंस के दिशानिर्देश जारी किये। इसी लाइसेंस के लिए 2001 में हुई नीलामी से तय कीमत पर ए. राजा ने 2008 में भी लाइसेंस दिये।
पहले आओ पहले पाओ नीति
यूपीए सरकार अपने बचाव में बार-बार कहती रही है कि पहले आओ पहले पाओ की जिस नीति के आधार पर ए. राजा ने लाइसेंस बाँटे, वह नीति तो एनडीए सरकार ने बनायी थी। यह बात सच होने के बावजूद इसमें तथ्य को कुछ वैसे ही तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है, जैसे खुद सर्वोच्च न्यायालय के शब्दों में ए. राजा ने पहले आओ पहले पाओ की नीति को तोड़ा मरोड़ा। न्यायालय ने अपने फैसले में विस्तार से बताया है कि ए. राजा ने 2003 की पहले आओ पहले पाओ की नीति में किस तरह से बदलाव किये। इन बदलावों को सार्वजनिक नहीं किया गया, ताकि इनका फायदा केवल उन लोगों को मिले जिन्हें राजा फायदा पहुँचाना चाहते थे। यानी राजा 2003 में एनडीए की बनायी नीति पर नहीं चल रहे थे। वे उसका तोड़-मरोड़ कर इस्तेमाल कर रहे थे।
इस नीति के संदर्भ को समझने के लिए वापस 2003 में चलना होगा। सीडीएमए तकनीक वाली डब्लूएलएल मोबाइल सेवा पर कानूनी विवाद निपटने के बाद टीआरएआई ने 27 अक्टूबर 2003 को यूनिफाइड ऐक्सेस लाइसेंस के बारे में अपनी सिफारिशें दी थीं। उस समय आम टेलीफोन (लैंडलाइन) सेवाएँ देने वाली कंपनियाँ बेसिक लाइसेंस पर काम कर रही थीं। सेलुलर मोबाइल लाइसेंस तो अलग था ही। इन सभी को मिला कर एक लाइसेंस बनाते समय तय किया गया कि नये यूनिफाइड लाइसेंस का प्रवेश शुल्क किसी सर्किल में चौथे सेलुलर ऑपरेटर के शुल्क के बराबर होगा। ऑपेरटरों को यह छूट दी गयी थी कि वे चाहें तो अपना मौजूदा लाइसेंस ही बनाये रखें या फिर नया यूनिफाइड लाइसेंस ले लें।
रिलायंस इन्फोकॉम को (जो बेसिक लाइसेंस के तहत डब्लूएलएल मोबाइल सेवाएँ दे रही थी), यूनिफाइड लाइसेंस पाने के लिए कुल 1096 करोड़ रुपये के अलावा 485 करोड़ रुपये का जुर्माना भी देना पड़ा था। इस तरह 2003 में यूनिफाइड लाइसेंस के लिए प्रवेश शुल्क का आधार 2001 में लगी बोलियों के आधार पर तय कीमत को बनाया गया।
पहले आओ पहले पाओ की नीति का आगाज यहीं हुआ। सरकार ने यह तय किया था कि यूनिफाइड लाइसेंस एक लगातार चलती रहने वाली प्रक्रिया के तहत दिया जायेगा। जो भी आवेदन आयेंगे, उन पर 30 दिनों के अंदर फैसला किया जायेगा। लेकिन इस फैसले पर 2004 से अमल नहीं हुआ। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में जिक्र किया है कि कैसे कुछ कंपनियों के 2004 और 2006 में जमा किये गये आवेदनों को भी 2008 तक लटका कर रखा गया। गौरतलब है कि साल 2004 में सरकार बदली, एनडीए के हाथ से सत्ता छूटी और यूपीए की पहली पारी का आगाज हुआ। कांग्रेस ने मानो द्रमुक के नाम पर संचार क्षेत्र का पट्टा लिख दिया।
प्यादा वजीर पर भारी?
प्रधानमंत्री ने 23 फरवरी 2006 को स्पेक्ट्रम की कीमत के मसले पर मंत्रियों का समूह (जीओएम) गठित किया। संचार मंत्री को इस जीओएम के कार्यक्षेत्र पर ऐतराज हो गया। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में इस प्रकरण का जिक्र करते हुए लिखा है कि संचार मंत्री ने जीओएम के कार्यक्षेत्र में बदलाव के लिए अपने पत्र के साथ जो मसौदा भेजा, उसमें दिलचस्प ढंग से स्पेक्ट्रम की कीमत के महत्वपूर्ण मुद्दे को रखा ही नहीं गया था। कैबिनेट सचिव ने 7 दिसंबर 2006 को पत्र लिख कर उन्हें बताया कि प्रधानमंत्री ने जीओएम के कार्यक्षेत्र में बदलाव की बात मान ली है। जीओएम के कार्यक्षेत्र से स्पेक्ट्रम के मुद्दे को हटा लिया गया था। अब कोई समझायेगा कि ज्यादा किसकी चलती थी, प्रधानमंत्री की या राजा की?
यूनिफाइड लाइसेंस की 2003 की नीति में दिसंबर 2005 में कुछ बदलाव करते समय भी तय किया गया कि किसी सेवा क्षेत्र यानी सर्किल में लाइसेंस जारी करने की संख्या पर कोई सीमा नहीं होगी। पर करीब डेढ़ साल बाद दूरसंचार विभाग ने अप्रैल 2007 ने टीआरएआई से कहा कि वह एक सर्किल में ऑपरेटरों की संख्या सीमित करने और उनसे संबंधित शर्तों की समीक्षा के बारे में अपनी सलाह दे।
टीआरएआई ने 28 अगस्त 2007 को अपनी सलाह में मुक्त प्रतिस्पर्धा पर जोर देते हुए ऑपरेटरों की संख्या सीमित नहीं करने की सलाह दी। इसने यह भी कहा कि 2जी सेवाओं के लिए 800, 900 और 1800 मेगाहर्ज के बैंड को छोड़ कर बाकी सारा स्पेक्ट्रम भविष्य में नीलामी के जरिये दिया जाना चाहिए।
घोटाले का घटनाक्रम
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में इसके बाद के घटनाक्रम पर बहुत खास ध्यान दिया। दूरसंचार विभाग के डीडीजी (एएस) ए. के. श्रीवास्तव ने 24 सिंतबर 2007 को एक नोट में लिखा कि 22 सेवा क्षेत्रों में 12 कंपनियों के कुल 167 आवेदन आये हैं और इतनी बड़ी संख्या में आवेदनों को किसी एक समय पर सँभालना मुश्किल होगा। उन्होंने सुझाव दिया कि 10 अक्टूबर 2007 को नये यूनिफाइड लाइसेंस के आवेदन पाने की अंतिम तिथि घोषित कर दिया जाये। संचार मंत्री ए. राजा ने यह सलाह नहीं मानी। उन्होंने आदेश दिया कि यह अंतिम तिथि एक अक्टूबर 2007 की रखी जाये। विभाग ने 24 सितंबर 2007 को ही प्रेस नोट जारी कर घोषित किया कि यूएएस लाइसेंस के लिए एक अक्टूबर 2010 के बाद कोई नया आवेदन स्वीकार नहीं किया जायेगा।
विभाग के सामने उस समय यूएएस लाइसेंस के लिए वोडाफोन एस्सार स्पेसटेल का 2004 का आवेदन भी लटका पड़ा था। आइडिया सेलुलर, टाटा टेलीसर्विसेज लिमिटेड और एयरसेल के इसी तरह के 2006 के आवेदन पर भी कोई फैसला नहीं हुआ था। श्रीवास्तव की सूची के तहत कुल 167 आवेदनों की संख्या में ये पुराने आवेदन भी शामिल थे।
केवल हफ्ते भर में, यानी 24 सितंबर से 1 अक्टूबर 2007 के बीच यूएएस लाइसेंस के 300 से ज्यादा नये आवेदन आ गये। टेलीकॉम कमीशन के सदस्य (टेक्नोलॉजी) ने कानून मंत्रालय को पत्र लिख कर इतनी बड़ी संख्या में आने वाले आवेदनों को निपटाने के बारे में अटॉर्नी जनरल या सॉलिसिटर जनरल की राय मांगी। कानून मंत्री ने एक नवंबर को फाइल पर अपनी टिप्पणी में लिखा कि यह सारा मसला मंत्रियों के अधिकृत समूह को सौंपा जाना चाहिए और उसी प्रक्रिया में अटॉर्नी जनरल की कानूनी राय ली जानी चाहिए। कानून मंत्री की यह टिप्पणी ए. राजा के सामने आयी। उन्होंने दो नवंबर को फाइल पर लिखा, इस पर चर्चा करें। उसी दिन उन्होंने दो कदम उठाये। पहला, उन्होंने अपने विभाग के डायरेक्टर (एएस-1) के एक नोट को मंजूरी दे दी, जिसमें मौजूदा नीति के तहत नये आवेदकों को आशय पत्र (एलओआई) जारी करने की बात थी। राजा ने खुद फाइल पर यह भी लिखा कि जिनके आवेदन 25 सितंबर 2007 तक मिले हों, उन्हें एलओआई जारी किया जाये। दूसरा, राजा ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर कानून मंत्री की सलाह की आलोचना की और इसे पूरी तरह संदर्भ से अलग बताया। इसी पत्र में राजा ने भविष्य का संकेत दिया कि दूरसंचार विभाग ने 25 सिंतबर 2007 तक मिले आवेदनों को निपटाने के लिए पहले आओ पहले पाओ की मौजूदा नीति को जारी रखने का फैसला किया है। उन्होंने बताया कि इसके बाद आने वाले आवेदनों को निपटाने की प्रक्रिया बाद में सोची जायेगी, अगर 25 सितंबर तक के आवेदनों को निपटाने के बाद कोई स्पेक्ट्रम बच जाये।
इस बीच उद्योग जगत के बड़े खिलाड़ी प्रधानमंत्री कार्यालय में गुहार लगाने पहुँचने लगे थे। मीडिया में भी इन सब बातों पर खबरें छप रही थीं। लिहाजा प्रधानमंत्री ने राजा को 2 नवंबर 2007 को पत्र लिखा और नये लाइसेंस देते समय उचित और पारदर्शी प्रक्रिया अपनाने की सलाह दी। प्रधानमंत्री ने लिखा कि इस संबंध में आगे कोई कदम उठाने से पहले आप मुझे स्थिति के बारे में बतायें। प्रधानमंत्री के इसी पत्र में जिन मुद्दों पर विचार के लिए कहा गया, उसमें नीलामी की पारदर्शी प्रक्रिया और प्रवेश शुल्क में संशोधन की बात शामिल थी।
सर्वोच्च न्यायालय का आदेश स्पष्ट कहता है कि राजा ने संचार मंत्री के तौर पर प्रधानमंत्री के सुझावों पर विचार करने की जहमत नहीं उठायी। प्रधानमंत्री का पत्र मिलने के कुछ घंटों के भीतर ही उन्होंने जवाब भेज कर उन सुझावों को नकार दिया। राजा ने अपने जवाब में लिखा कि स्पेक्ट्रम की नीलामी करना नये आवेदकों के लिए अनुचित, भेदभाव वाला, मनमाना और ओछा तरीका होगा, क्योंकि इससे उन्हें बराबरी का मौका (लेवल प्लेइंग फील्ड) नहीं मिलेगा।
दूरसंचार सचिव ने 20 नवंबर 2007 को कैबिनेट सचिव के सामने स्पेक्ट्रम नीति रखी। इस दौरान वित्त सचिव भी मौजूद थे। 22 नवंबर को वित्त सचिव ने दूरसंचार सचिव को पत्र लिख कर सवाल उठाया कि 2001 में तय 1600 करोड़ रुपये की कीमत 2007 में लाइसेंस देते समय कैसे लागू की जा सकती है। इसके जवाब में दूरसंचार सचिव ने 29 नवंबर को लिखा कि टीआरएआई ने अगस्त 2007 में अपनी सिफारिशों में प्रवेश शुल्क या लाइसेंस शुल्क में बदलाव का कोई सुझाव नहीं दिया है।
सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी है कि पहले आओ पहले पाओ की नीति को संचार मंत्री ने कब बदला, यह रिकॉर्ड से स्पष्ट नहीं है। मगर इस पर अमल के बारे में प्रधानमंत्री को पहले से बता कर संचार मंत्री ने ऐसा आभास देने की कोशिश की कि उन्होंने इस बारे में प्रधानमंत्री की मंजूरी ले ली है। संचार मंत्री ने 26 दिसंबर 2007 को प्रधानमंत्री को लिखा कि दूरसंचार विभाग यूएएस लाइसेंस के आवेदकों को एलओआई देते समय पहले आओ पहले पाओ की नीति अपनाता रहा है। मतलब यह कि जिसका आवेदन पहले मिलेगा, उसके आवेदन पर पहले विचार होगा और योग्य पाने पर उसे एलओआई जारी किया जायेगा। इसी तरह एलओआई की शर्तें पूरी करने पर लाइसेंस जारी करते समय भी पहले आओ पहले पाओ की नीति अपनायी जायेगी। मतलब यह कि जो आवेदक एलओआई की शर्तें पहले पूरी करेगा, उसे पहले लाइसेंस जारी होगा।
राजा ने इस पत्र में लिखा कि यूएएस लाइसेंस की संख्या पर कोई सीमा नहीं होने के कारण बहुत सारे आवेदकों को एक साथ एलओआई जारी होंगे। ऐसे में जो आवेदक एलओआई की शर्तें पहले पूरी करेगा, उसे पहले लाइसेंस दिया जायेगा। प्रधानमंत्री को लिखे गये इस पत्र के 12 दिनों बाद दूरसंचार विभाग के डीडीजी (एएस) ने पहले आओ पहले पाओ की इस बदली हुई नीति पर एक नोट तैयार किया। संचार मंत्री ने इस नोट पर उसी दिन मुहर लगा दी।
लगभग उसी समय 9 जनवरी 2008 को समूचे टेलीकॉम कमीशन की बैठक होने वाली थी। इसमें स्पेक्ट्रम की कीमत पर भी चर्चा होनी थी। यह बैठक 15 जनवरी तक टाल दी गयी। इस बैठक को टालने का फैसला 7 जनवरी को हुआ। तीन दिन बाद 10 जनवरी को दूरसंचार विभाग ने प्रेस रिलीज जारी कर कहा कि जितने भी योग्य आवेदकों ने 25 सितंबर 2007 तक आवेदन जमा किये थे, उन्हें एलओआई जारी करने का फैसला किया गया है।
उसी दिन एक और प्रेस रिलीज जारी की गयी, जिसमें सभी आवेदकों को 45 मिनट के भीतर दूरसंचार विभाग के मुख्यालय में इकट्ठा होकर विभाग का जवाब ले लेने के लिए कहा गया। एलओआई पाने वाले सभी आवेदकों को तय अवधि के भीतर किसी भी कामकाजी दिन सुबह 9 बजे से शाम 5.30 बजे के बीच एलओआई की शर्तें पूरी करने की जानकारी दाखिल करने के लिए कहा गया। सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि यह रिलीज जारी होने के बाद 10 जनवरी को ऐसे आवेदकों ने भी एलओआई लिया, जो यूएएस लाइसेंस के योग्य नहीं थे। उसी दिन 120 आवेदनों की मंजूरी ली गयी और 78 आवेदनों पर एलओआई की शर्तें पूरी कर लेने की जानकारी भी।
पुराने लाइसेंसों का क्या होगा?
इस मुकदमे में वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे ने तर्क दिया था कि अगर यूनिफाइड लाइसेंसों को जारी करते समय संस्थागत ईमानदारी का उल्लंघन किया गया, तो 2001 के बाद से जारी सभी लाइसेंसों को रद्द किया जाना चाहिए। लेकिन न्यायालय ने कहा कि जिन्हें 2001 से 24 सितंबर 2007 के दौरान लाइसेंस दिये गये, उन्हें इस मुकदमे में पक्ष नहीं बनाया गया और उनके लाइसेंसों की वैधता पर अदालत में इससे पहले सवाल नहीं किया गया। लिहाजा अदालत ने साल्वे के तर्क को नहीं माना।
लेकिन कानूनी जानकार मानते हैं कि ऐसे पुराने लाइसेंसों पर भी आगे जा कर तलवार लटक सकती है। इस मुकदमे से जुड़े रहे एक वरिष्ठ अधिवक्ता ने निवेश मंथन से बातचीत में कहा कि सर्वोच्च न्यायालय ने पहले आओ पहले पाओ की नीति को गलत माना है। लिहाजा इस नीति केआधार पर जो पुराने लाइसेंस जारी हुए हैं, उन्हें चुनौती देने वाली कोई नयी जनहित याचिका अगर दायर हो जाये तो उन्हें आश्चर्य नहीं होगा।
शेयर बाजार में घबराहट नहीं
टेलीकॉम क्षेत्र पर एक ताजा रिपोर्ट में आनंद राठी सिक्योरिटीज ने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय का आदेश भारती एयरटेल और वोडाफोन जैसी प्रमुख जीएसएम मोबाइल कंपनियों के लिए सकारात्मक है। वहीं आइडिया सेलुलर और रिलायंस कम्युनिकेशंस के लिए इसने फैसले को मिले-जुले असर वाला माना। इस ब्रोकिंग फर्म का कहना है कि अदालत के फैसले के बाद स्पेक्ट्रम की आपूर्ति बढ़ेगी, इस क्षेत्र में विलय-अधिग्रहण को बढ़ावा मिलेगा और कॉल दरें वगैरह तय करने में अनुशासन ज्यादा होगा। इसका अनुमान है कि 2जी स्पेक्ट्रम की नयी नीलामी में बोलियाँ 3जी की तुलना में करीब 50% कम ही रहेंगी। लेकिन इस फैसले के बाद 2001-07 के दौरान जारी लाइसेंसों को लेकर ब्लैक स्वान यानी अचानक आने वाले संकट का जोखिम बढ़ जायेगा। यह संकट भारती और आइडिया के पुराने लाइसेंसों पर भी होगा।
(निवेश मंथन, फरवरी 2012)