बंदीप सिंह रांगर, चेयरमैन, इंडसव्यू :
अगर हम विश्व अर्थव्यवस्था को आज देखें तो केवल कुछ हफ्ते पहले की तुलना में भी यह काफी बुरी हालत में दिख रही है। इन गर्मियों में दुनिया भर के शेयर बाजारों में 15% से ज्यादा की गिरावट आ गयी। अमेरिका और यूरोप दोनों में आर्थिक विकास दर काफी तीखे ढंग से घटी है।
ये दोनों ही काफी ज्यादा कर्ज और सरकारी घाटे की स्थिति से जूझ रहे हैं। ब्रिक देशों (ब्राजील, रूस, भारत, चीन) की तेज अर्थव्यवस्थाएँ भी कुछ धीमी पड़ती दिख रही हैं, क्योंकि इन सब देशों के केंद्रीय बैंकों (जैसे भारत में आरबीआई) ने महँगाई दर पर काबू पाने के लिए ब्याज दरें बढ़ायी हैं। इसके चलते अब ब्रिक देशों में ज्यादा विकास की वजह से वैश्विक अर्थव्यवस्था में सुधार आने की संभावना कम हो गयी है।
अमेरिका में राजनीतिक दल कर्ज की सीमा को लेकर आपस में जूझते रहे और उसी वजह से अमेरिका की क्रेडिट रेटिंग घटा दी गयी। इससे अटलांटिक महासागर के दोनों ओर सरकारी खजाने (फिस्कल) के संकट का सामना करने वाले राजनीतिक नेतृत्व की कमी खलने लगी है। चाहे अमेरिकी फेडरल रिजर्व हो या यूरोपियन सेंट्रल बैंक (ईसीबी), दोनों ही अब राजनेताओं की ओर इशारा कर रहे हैं कि उन्हें ही अब अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए कड़े फैसले करने होंगे। अमेरिकी फेडरल रिजर्व मौद्रिक ढील (क्वांटिटेटिव ईजिंग) का नया दौर शुरू करने के लिए ज्यादा उत्सुक नहीं लग रहा है। इसका मतलब यह है कि उभरते बाजारों (इमर्जिंग मार्केट्स) में नया पूँजी निवेश सीमित ही रहेगा। अमेरिकी निवेशकों के ऊपर ऐसी कोई बाध्यता नहीं होगी कि वे ज्यादा लाभ हासिल करने के लिए विदेशी बाजारों का रुख करें।
यूरोप में पुर्तगाल से ले कर लातविया तक सारे ही देश 2008 के वित्तीय संकट के बाद से अपने कर्ज में कमी करने के लिए जूझ रहे हैं। इन देशों की अर्थव्यवस्थाएँ इतना भी विकास नहीं कर पा रही हैं कि वे अपने कर्ज पर भविष्य में ब्याज तक चुका सकें। इस संकट ने सभी यूरोपीय देशों को काफी सख्ती से अपने खर्चों में कटौती के लिए मजबूर किया है।
यूरोप के बैंक शायद नकदी के संकट से बच भी जायें। लेकिन सरकारी बांडों की कीमत में कमी के चलते उनकी पूँजी काफी घट जायेगी, जिससे उन्हें नये कर्जों को रोकना पड़ेगा। कर्ज की यह कमी यूरोप को काफी गहरी मंदी में धकेल देगी। और ऐसा होना अमेरिकी अर्थव्यवस्था में किसी सुधार की उम्मीद को खत्म कर देगा, क्योंकि अमेरिकी निर्यात का 21% हिस्सा यूरोपीय संघ के देशों को जाता है।
पश्चिमी देशों में विकास का इस तरह धीमा पडऩा भारत और चीन से होने वाले निर्यात पर भी असर डालेगा। इसके चलते एशिया में भी विकास दरें घट जायेंगी। इसका एक नतीजा यह भी होगा कि यूरोपीय कर्ज को खरीदने की चीन की क्षमता कम हो जायेगी। गौरतलब है कि अभी चीन ने यूरोप के कर्ज बाजार में करीब 600 अरब यूरो का निवेश कर रखा है।
(निवेश मंथन, सितंबर 2011)