नरेंद्र तनेजा, ऊर्जा विशेषज्ञ
डीजल की कीमत बढ़ाने के बारे में फैसला करने में सरकार को थोड़ा समय लगने का कारण यही है कि डीजल राजनीतिक रूप से ज्यादा संवेदनशील है। लेकिन मुझे लगता है कि सरकार बस थोड़ा समय ले रही है और डीजल के दाम बढ़ाने की तैयारी लगभग पूरी हो चुकी है। सरकार किसी भी समय ज्यादा तो नहीं, लेकिन 2.50 रुपये प्रति लीटर के करीब बढ़ा सकती है।
डीजल का संबंध सड़क परिवहन, रेलवे, ट्रैक्टर, सिंचाई के पंप वगैरह इन सब पर पड़ता है। इस तरह डीजल के दाम बढऩे से प्रभावित होने वालों की संख्या काफी बड़ी होती है। डीजल की कीमत जब भी बढ़ायी जाती है, तो उसका महँगाई दर पर असर पेट्रोल की तुलना में पाँच गुना ज्यादा होता है। फिर सरकार का यह भी मानना है कि वह अगर डीजल की कीमत बढ़ायेगी तो विपक्ष उसका सबसे ज्यादा फायदा उठाने की स्थिति में होता है।
अगर आप सारे पेट्रोलियम उत्पादों को देखें, जिसमें पेट्रोल, डीजल, मिट्टी तेल (केरोसिन), रसोई गैस (एलपीजी), टर्बाइन ईंधन वगैरह शामिल हैं, तो इसमें पेट्रोल का हिस्सा केवल 10% है, जबकि डीजल का हिस्सा लगभग 36-40% हो जाता है।
आज अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की जो कीमतें हैं वे बढ़ तो जरूर रही हैं, लेकिन इतनी ज्यादा नहीं हैं कि सरकार एकदम से किसी दबाव में हो। सरकार के ऊपर दबाव दो तरफ से पड़ रहा है। एक तो तेल क्षेत्र की सरकारी कंपनियों का आर्थिक स्वास्थ्य बेहद खराब हो चुका है, इसलिए वे सरकार पर जोर डाल रही हैं। दूसरे, एक ऐसा तबका है जो मानता है कि आर्थिक सुधारों को आगे बढऩा चाहिए। उनका कहना है कि जब तक आप डीजल की कीमत को नियंत्रण-मुक्त नहीं करेंगे या कम-से-कम बाजार के साथ उसका थोड़ा-बहुत तालमेल नहीं बिठायेंगे, तो बड़ी मुश्किल स्थिति बन जायेगी जिससे यह क्षेत्र और भी पिछड़ जायेगा।
लेकिन अगर सरकार केवल डीजल के दाम बढ़ा देने का फैसला करे या साथ में रसोई गैस (एलपीजी) के सिलिंडर की कीमत भी 30-35 रुपये बढ़ा देती है तो मुझे नहीं लगता कि यह कोई बहुत अच्छा फैसला होगा। सरकार को साथ में थोड़ा सा कर ढाँचे में भी सुधार करना होगा, इस बारे में राज्य सरकारों को साथ ले और पेट्रोल-डीजल पर लगने वाले वैट में रियायत दिलाना होगा। अगर इस क्षेत्र में मुकम्मल सुधार की ओर बढ़ा जाये और उसके एक भाग के रूप में डीजल की कीमत बढ़े तो हमें उसका स्वागत करना चाहिए, या कम-से-कम उसे बर्दाश्त करना चाहिए।
लेकिन अगर सरकार बिना कुछ और कदम उठाये, कर ढाँचे में बिना कोई सुधार किये केवल डीजल की कीमत कुछ बढ़ा दे, तो मुझे लगता है कि वह गलत कदम होगा। उसकी कोई आवश्यकता नहीं है और उससे कुछ फायदा नहीं होने वाला है। न तो उससे तेल कंपनियों को कोई बहुत बड़ा लाभ होने वाला है, न सरकार को। उल्टे इससे महँगाई और बढ़ जायेगी, आम उपभोक्ता और पिस जायेगा।
अगर सरकार डीजल के दाम भी बढ़ाती है और उसके साथ-साथ कर ढाँचे में कोई सुधार नहीं भी करती है, तो वह कम-से-कम इतना बोल दे कि इस कीमत बढ़ोतरी का एक पैसा भी सरकार की जेब में नहीं जायेगा। सरकार यह कहे कि जो भी कीमत बढ़ रही है, उसका सारा पैसा तेल कंपनियों के पास जायेगा।
पिछली बार जब सरकार ने पेट्रोल की कीमत में एक साथ 5 रुपये प्रति लीटर की भारी-भरकम बढ़ोतरी की, तो उसमें से ढाई रुपये तो फिर सरकार के ही खजाने में पहुँच गये (विभिन्न करों और शुल्कों के रूप में)। कंपनियों को तो वह सारा पैसा मिला नहीं। पेट्रोल की खुदरा कीमत में केंद्र और राज्यों के कर और शुल्क वगैरह का हिस्सा लगभग 50% है, अगर आप शिक्षा उपकर (एजुकेशन सेस) वगैरह सब मिला लें।
जहाँ तक सब्सिडी यानी सरकारी सहायता की बात है, सवाल है कि कौन किसको सब्सिडी दे रहा है? जो उपभोक्ता है, वही वास्तव में सब्सिडी दे रहा है। आपकी एक जेब से निकाल कर अगर दूसरी जेब में थोड़ा दे भी दिया गया, 10 रुपये निकाल कर के आप 2 रुपये वापस दे भी देते हैं, तो वह सब्सिडी तो नहीं कहलायेगी।
अंडररिकवरी और घाटा दो अलग-अलग चीजें हैं। सरकार भी अंडररिकवरी की बात करती है। यह एक आर्थिक शब्द है, जिसका मतलब अनुमानित घाटा (नोशनल लॉस) है। यह उनकी मान्यता है कि उन्हें जितना लाभ मिलना चाहिए था उतना नहीं मिल रहा।
हकीकत तो यही है कि पेट्रोल की कीमत में जो बढ़ोतरी की गयी, वह खुद सरकार ने ही की, तेल कंपनियों ने नहीं। हालाँकि सरकार ने यह कहा था कि वह पेट्रोल की कीमत तय करने की छूट तेल कंपनियों को दे रही है। यह केंद्रीय मंत्रिमंडल का फैसला था। लेकिन हमने यह देखा है कि वास्तव में कंपनियों को वह स्वायत्तता दी ही नहीं गयी है। पिछले कई महीनों से कंपनियाँ कीमत बढ़ाना चाह रही थीं। लेकिन राज्यों के विधानसभा चुनाव आने वाले थे, इसलिए सरकार ने उनको इस बात की इजाजत नहीं दी थी। चुनाव प्रक्रिया खत्म होने के 18 घंटों के भीतर सरकार ने उनको इजाजत दे दी और कीमतें बढ़ा दी गयीं। वह भी सीधे-सीधे 5 रुपये प्रति लीटर। इतनी बढ़ोतरी एक साथ पहले शायद कभी नहीं की गयी। दुनिया भर में कहीं भी कभी पेट्रोल जैसी जरूरी चीज की कीमत एक साथ इतनी नहीं बढ़ायी गयी होगी।
सरकार चाहे कुछ भी सोचे कि पेट्रोल का हिस्सा तो काफी कम है, लेकिन हकीकत यह है कि अर्थव्यवस्था में सबके ऊपर इसका असर आ जाता है। जो लोग अपनी कीमतें बढ़ाने के लिए इसका फायदा उठाना चाहते हैं, वे उठा लेते हैं। जब सरकार ने पेट्रोल के दाम बढ़ाये तो आम आदमी की नजर में तेल की कीमत बढ़ गयी। इसलिए जो व्यक्ति पेट्रोल वाली गाड़ी नहीं चलाता है, जैसे ट्रक वाला, वह भी अपनी कीमत बढ़ा देता है। डीजल और सीएनजी की गाड़ी चलाने वाले भी अपने किराये बढ़ा देते हैं। धारणा यह बन जाती है कि तेल महँगा हो गया है, इसलिए उनको भी अपनी कीमतें बढ़ाने का लाइसेंस मिल गया है, चाहे वे पेट्रोल की गाड़ी चला रहे हों या नहीं। सब्जी वाला जब गृहिणी के पास जाता है तो कहता है, आपने सुना ही होगा कि तेल की कीमत बढ़ गयी है, इसलिए सब्जी महँगी हो गयी। हालाँकि सब्जी ढोने वाले ट्रक डीजल से चलते हैं।
जिस हिसाब से हमारा पूरा पेट्रोलियम क्षेत्र चलाया जा रहा है और उसके पीछे की जो सोच है, वह बिल्कुल पुरानी हो चुकी है। सरकार अब भी 60 और 70 के दशक की सोच के साथ पेट्रोलियम क्षेत्र को चला रही है। जब तक सरकार अपनी सोच बदल कर नीतियों को नहीं बदलती है, और जब तक इस क्षेत्र पर सरकार के नियंत्रण को थोड़ा ढीला नहीं करती है, तब तक यह समस्या बनी रहेगी।
पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस क्षेत्र काफी तकनीकी क्षेत्र है। मुझे नहीं लगता कि सरकार या उसके नौकरशाह या राजनेता इस क्षेत्र को दक्षता से चलाने में सक्षम हैं। इनका काम अच्छी नीतियाँ बनाना और नियमन (रेगुलेट) करना होना चाहिए। लेकिन इस क्षेत्र को कैसे चलाया जाये, यह काम खुद सरकार की कंपनियों, जैसे इंडियन ऑयल, एचपीसीएल, बीपीसीएल, ओएनजीसी वगैरह के ऊपर छोड़ देना चाहिए। जब तक इन कंपनियों को स्वायत्तता दी जानी चाहिए। जो व्यापार की बात है, कीमत क्या हो, यह फैसला मंत्रिमंडल को नहीं करना चाहिए। यह इन कंपनियों को तय करना चाहिए और इन कंपनियों के बीच भी आपस में प्रतिस्पर्धा होनी चाहिए। जब तक हम इस तरह का माहौल नहीं बनायेंगे, तब तक यह समस्या बनी रहेगी।
आज तो कीमतें फिर भी ऐसी हैं कि लोग उसे दे पा रहे हैं। लेकिन हम उस दिशा की ओर बढ़ रहे हैं, जहाँ अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कमी होनी शुरू हो जायेगी। तब कीमतें काफी ज्यादा हो जायेंगी। कच्चे तेल की कीमतें 150 रुपये प्रति बैरल के ऊपर भी जा सकती हैं। उस समय सरकार अगर चाहेगी तब भी वह इस क्षेत्र को ठीक तरह से चला नहीं पायेगी। उस समय कंपनियाँ ही ठीक तरह से चला पायेंगी। इससे पहले कि ज्यादा देरी हो जाये, मुझे लगता है कि सरकार को इस क्षेत्र से जुड़ी नीतियों का आधुनिकीकरण करना चाहिए।
पेट्रोल की कीमत पाँच रुपये या डीजल की कीमत 2-3 रुपये बढ़ा देना कोई समाधान नहीं है। सरकार को लंबे समय के लिए कोई नयी दृष्टि रखनी होगी और वहाँ तक जाने का खाका बनाना होगा। ऐसा करने पर भी समाधान एक रात में नहीं निकलेगा। नतीजे देखने में कम-से-कम 3 साल का समय लगेगा।
इस रास्ते पर पहला कदम यही हो सकता है कि राजनीतिक आम सहमति बनायी जाये। सभी दलों की बैठक होनी चाहिए, जिसमें यह तय हो कि इसको लेकर हम राजनीति नहीं करेंगे। फिर एक राष्ट्रीय पेट्रोलियम मूल्य नीति बनायी जाये, जिस पर सभी राजनीतिक दलों की सहमति हो। चाहे कोई भी दल सत्ता में आये, वही नीति लागू रहेगी। हमें ध्यान रखना चाहिए कि हम 80% तेल आयात करते हैं। इस पर अभी 97 अरब डॉलर खर्च हो रहा है, जो हमारी पूरी अर्थव्यवस्था का लगभग 9% है। यह नीति बनाने में हम जितनी देरी करेंगे, उतना ही हम देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ करेंगे।
लेकिन ऐसा करने के लिए केंद्र सरकार को काफी तैयारी की आवश्यकता है। उसे सारे प्रदेशों के साथ बैठ कर बातचीत करनी होगी और एक आम सहमति बनानी होगी। उसे इस पूरे मुद्दे पर एक राजनीतिक चर्चा शुरू करनी होगी, जो काफी बड़ी कवायद है।
अगर सरकार गंभीर हो तो यह सब चीजें कर सकती है। लेकिन अभी सरकार का पूरा नजरिया एकदम कामचलाऊ किस्म का है। कोई समस्या आयी है तो वह बस वहाँ एक पट्टी लगा देना चाहती है, जैसे अगर छत से पानी टपक रहा है तो बस वहाँ कुछ मरम्मत कर दें, लेकिन समस्या की जड़ तक नहीं जायें। सरका की ये जो कामचलाऊ नीति है, उसके चलते पूरा पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस क्षेत्र आईसीयू में पहुँच चुका है, बुरी तरह बीमार है।
अभी सरकार इसलिए बेफिक्र है कि कीमत चाहे जितनी भी बढ़ जाये, लोग वह कीमत चुका ही देते हैं। उपभोक्ता के पास विकल्प नहीं होता। लेकिन अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतें आगे चल कर बढ़ ही सकती हैं। अगर सरकार की नीतियाँ ऐसे ही चलती रहीं और तेल की कीमतें बढ़ती रहीं तो संभव है कि लोग पेट्रोलियम की कीमतों को लेकर उठ खड़े हों।
अगर अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत 150 डॉलर प्रति बैरल तक चली जाये तो सारी दुनिया के देशों की हालत खराब होगी। लेकिन उस समय हमारी हालत ज्यादा खराब होगी क्योंकि तेल के लिए आयात पर हमारी निर्भरता ज्यादा है। इसलिए जरूरी है कि तेल और प्राकृतिक गैस क्षेत्र को बिना समय गँवाये राजनीति से मुक्त कर आधुनिक बनाया जाये और इसमें सुधार किया जाये। यह क्षेत्र देश के आर्थिक भविष्य के लिए इतना महत्वपूर्ण है कि इसे अधर में लटकाये नहीं रखा जा सकता। इस क्षेत्र के भविष्य से कोई समझौता करना पूरे देश के भविष्य के लिए खतरनाक होगा।
(निवेश मंथन, अगस्त 2011)