राजेश रपरिया, सलाहकार संपादक
लालच एक ऐसी बला है जो व्यक्ति का विवेक देखते-देखते ही हर लेती है। लालच के दुष्परिणामों को लेकर अनेक कथाएँ हैं, जो हमने बचपन से सुनी हैं। अज्ञानियों की बातें छोड़ें, बड़े-बड़े अनुभवी जानकार और विशेषज्ञ माने जाने वाले शख्स भी आये दिन लालच के चंगुल में फँस जाते हैं। दुनिया ने जितनी तरक्की की है, तकनीक जितनी ही उन्नत हो रही है, लालच का जाल उतना ही घना होता जा रहा है।
पिछले 20-30 सालों की बात करें तो लालच के नये मायावी अवतारों ने कई बार आसानी से धन उपार्जन करने की लालसा रखने वालों को तबाह कर दिया है। इस साइबर युग में लालच ने फिर से नया अवतार लिया है और शिकार का नया तरीका ढूँढ़ निकाला है। हमारी आमुख कथा इसी नये भस्मासुरी अवतार पर आधारित है।
असल में असावधानी, अकर्मण्यता और प्रमाद के साथ-साथ अधिकाधिक धनार्जन के लालच में लोग अपनी गाढ़े पसीने की कमाई भी गँवा बैठते हैं। पिछले 20-25 सालों में बदलते आर्थिक परिवेश में इन अवगुणों के कारण आम भारतीयों के लाखों करोड़ रुपये डूबे हैं। बदली नयी उदारीकृत आर्थिक व्यवस्था ने अगर धन उपार्जन और निवेश के बेहिसाब नये अवसर मुहैया कराये हैं, तो उनमें जोखिम और जटिलताएँ भी कम नहीं हैं।
आज सोने-चाँदी, अन्य कमोडिटी, शेयर, म्यूचुअल फंड, भू-संपदा, मुद्रा, मियादी जमा (फिक्स्ड डिपॉजिट) आदि में निवेश के अधिकाधिक अवसर और विकल्प मौजूद हैं, लेकिन जोखिम भी उतना ज्यादा है। सोने-चाँदी और भू-संपदा जैसे परंपरागत निवेशों में जटिलताएँ और जोखिम पहले से कई गुना ज्यादा हैं। चाँदी हाल में करीब 76,000 रुपये प्रति किलोग्राम का भाव छू रही थी, अब यह 55,000 हजार रुपये प्रति किलोग्राम के आसपास आ गयी है। शेयर बाजार में ऑप्शन और फ्यूचर के विकल्प पैदा हुए हैं, जो देखने में बड़े लुभावने लगते हैं। हींग लगे ना फिटकरी, रंग चोखा होय। पर तनिक-सी चूक से इससे गंभीर घावों के अलावा कुछ नहीं मिलता है।
जोखिम और जटिलाएँ बढऩे का मूल कारण यह है कि उदारीकृत वैश्विक अर्थ प्रणाली में पूँजी की भौगोलिक सीमाएँ टूट रही हैं। अर्थव्यवस्था और बाजार को प्रभावित करने वाले कारकों की सूची लंबी होती जा रही है। एक वक्त था, जब अमेरिका-ईराक का भीषण युद्ध भी भारतीय शेयर बाजार को प्रभावित नहीं कर पाता था। लेकिन आज अमेरिका को जुकाम भी हो जाये, तो सारी दुनिया का खांसते-खांसते दम फूल जाता है। साल 2008 में सब प्राइम के महा फर्जीवाड़े से गहरा घाव लगा अमेरिका अर्थव्यवस्था को, लेकिन रक्त बहा पूरी दुनिया का जो अब भी थमा नहीं है।
चौथी तिमाही के नतीजों में इस बार निराश करने वाली कंपनियों की संख्या ज्यादा रही। अनेक क्षेत्रों की कंपनियों का कामकाज बढिय़ा है, लेकिन उनके शेयरों में उत्साहकारी चाल नहीं है। कच्चे तेल और ब्याज की बढ़ती कीमतों ने उनके दमदार कामकाज और प्रदर्शन पर पानी फेर दिया है। जमीन-जायदाद क्षेत्र की कंपनियाँ के शेयर धूल चाट रहे हैं। धातु कंपनियों के भविष्य के अनुमानों को लेकर विशेषज्ञों का गणित गड़बड़ा रहा है। ऊर्जा कंपनियों के शेयरों में करंट ही गायब हो गया है। आधारभूत (इन्फ्रास्ट्रक्चर) क्षेत्र की कंपनियों की बुनियाद हिली हुई है, जिनके कंधों पर विकास की बुनियाद टिकी हुई है। निवेश मंथन के इस अंक में मौजूदा आर्थिक परिदृश्य को पहचाने और विश्लेषित करके का प्रयास किया गया है।
जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता का एक ही गुर है - सतर्कता-सावधानी। दो-ढाई हजार साल पहले जन्मे तमिल भाषा के आदि महाकवि तिरूवल्लुवर का यह नीति वाक्य आज भी पारस पत्थर है - जो प्राणी सतत सर्तक नहीं है, वह कभी सफल नहीं हो सकता है। निवेश की दुनिया में सफल होने के लिए सतर्क, सावधान रहना ही अंतिम कसौटी है।
निवेश मंथन ने निवेशकों को सतत सतर्क बनाये रखने का बीड़ा उठाया है। इसमें हम कितने सफल होंगे, यह आपकी राय, आपके आकलन और आपकी हिस्सेदारी पर निर्भर करेगा। आपके सुझावों और सहभागिता से ही निवेश मंथन की सफलता का मार्ग प्रशस्त होगा।
(निवेश मंथन, अगस्त 2011)