इंटरनेट पर सर्वेक्षण कराने वाली कंपनी स्पीक एशिया ऑनलाइन प्राइवेट लिमिटेड के लुभावने कारोबार का हिसाब दिमाग घुमा देने वाला है। खुद कंपनी के बयानों के मुताबिक इसके भारत में 19 लाख सदस्य (पैनलिस्ट) हैं। इसके कामकाज को समझ कर यही पता चलता है कि तकरीबन हर सदस्य ने इस कंपनी को 5,500 रुपये का छमाही या 11,000 रुपये का सालाना शुल्क दिया होगा। अगर सीधा हिसाब लगायें तो कंपनी ने इस तरह भारत में अपने सदस्यों से करीब 2,000 करोड़ रुपये तक की रकम पा ली है। अगर निवेश मंथन का यह अनुमान सच के करीब नहीं है तो क्या स्पीक एशिया बतायेगी कि उसे और उसके साथ जुड़ी अन्य कंपनियों को इन 19 लाख सदस्यों से ई-जीन का ग्राहक बनने, परीक्षा देने या किसी भी और नाम पर कुल कितनी रकम मिली है?
सिंगापुर के यूनाइटेड ओवरसीज बैंक (यूओबी) ने इसके दो खाते पिछले महीने बंद कर दिये थे। कंपनी ने मीडिया को अपने ताजा बयान में भरोसा दिलाने वाले अंदाज में कहा है कि उसके पास 1.6 करोड़ डॉलर (करीब ७१ करोड़ रुपये) से अधिक की राशि उपलब्ध है और नया खाता खुलते ही उसमें से सदस्यों को पैसा मिलना शुरू हो जायेगा।
स्पीक एशिया के सीईओ (भारत) मनोज कुमार ने निवेश मंथन को इस बात की पुष्टि की कि 1.6 करोड़ डॉलर की यह राशि यूओबी के बंद हुए दो खातों की ही राशि है। स्पीक एशिया से जुड़ी सिंगापुर की ही एक अन्य कंपनी हारेन वेंचर्स प्रा.लि. (एचवीपी) के भारत में कलेक्शन एजेंटों के खातों में 102 करोड़ रुपये होने की बात भी इस बयान में कही गयी है। मनोज कुमार ने बताया कि इन दो राशियों के अलावा कोई और रकम नहीं है। स्पीक एशिया ने इससे पहले 27 मई को अपनी वेबसाइट पर अपने सदस्यों के नाम लिखे एक संदेश में भी उन्हें भरोसा दिलाते हुए कहा था कि उसके यूओबी खातों में जो रकम बची थी, वह उसके सदस्यों, अपने विक्रेताओं (वेंडरों) और कर्मचारियों के लिए ही है।
लेकिन अगर यूओबी खातों की 1.6 करोड़ डॉलर की रकम और भारत में एचवीपी के एजेंटों के खातों के 102 करोड़ रुपये को जोड़ भी दें तो कुल 173 करोड़ रुपये होते हैं। कंपनी की अब तक की 2000 करोड़ रुपये की अनुमानित कमाई के मुकाबले यह रकम बेहद छोटी लग रही है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि बाकी पैसे कहाँ हैं?
जानी-मानी आर्थिक पत्रकार सुचेता दलाल ने हाल में अपनी एक रिपोर्ट में यह खुलासा किया कि स्पीक एशिया के सदस्य जो पैसा देते थे, वह एक भारतीय कंपनी स्पीक इंडिया नेटवर्क मार्केटिंग प्राइवेट लिमिटेड के खातों में जाता था। ये खाते आईसीआईसीआई बैंक, आईएनजी, भारतीय स्टेट बैंक और दर्जनों अन्य बैंकों में खोले गये थे। इन खातों से 1,000 करोड़ रुपये से भी ज्यादा पैसा विदेश भेजा गया। स्पीक एशिया को साफ करना होगा कि यह बात सच है या नहीं।
अगर मीडिया में इस कंपनी के कामकाज पर बवाल नहीं मचता और सिंगापुर के बैंक ने इसके खाते बंद नहीं किये होते तो उसे अपने 19 लाख सदस्यों (पैनलिस्ट) को सर्वेक्षण फॉर्म भरने के लिए हर हफ्ते 1000 रुपये देने पड़ते। सीधा हिसाब लगायें तो यह कुल रकम 190 करोड़ रुपये होती है, लेकिन कंपनी खुद ही अपने पास केवल 173 करोड़ रुपये की रकम होने का हिसाब दे रही है। ऐसे में क्या यह संदेह स्वाभाविक नहीं होगा कि यह एक ऐसा बुलबुला था जो फूटने ही वाला था? क्या इससे यह नतीजा नहीं निकाला जा सकता कि कंपनी अपने सारे सदस्यों को एक हफ्ते का पैसा देने की भी हालत में नहीं रह गयी थी?
अगर अगले एक साल में उसके सदस्यों की संख्या 19 लाख पर स्थिर रह जाती, तो भी उसे अगले 52 हफ्तों के दौरान 9880 करोड़ रुपये (52 हफ्ते गुने 190 करोड़ रुपये) का भुगतान करना होता। क्या स्पीक एशिया बतायेगी कि वह कहाँ से लाने वाली थी इतना पैसा?
गौरतलब है कि इससे पहले 16 मई 2011 को कंपनी ने केवल 360 करोड़ रुपये की आमदनी का ब्योरा दिया था। यह केवल 9 महीनों का ब्योरा था, जबकि भारत में उसका कामकाज डेढ़ साल पुराना हो चुका है?
हम भारत के लोग मानो लुटने के लिए तैयार बैठे रहते हैं। किसी समय प्लांटेशन के नाम पर लाखों लोग ठगे गये। सब जानते हैं कि पैसे पेड़ पर नहीं उगते, लेकिन प्लांटेशन कंपनियों की लुभावनी बातों के जाल में आने वालों की संख्या लाखों में रही। कभी किसी कंपनी ने लोगों को अनाप-शनाप ब्याज देने का वादा करके ठगा और चंपत हो गयी।
सिटी बैंक के एक रिलेशनशिप मैनेजर ने लोगों को 36' तक ब्याज मिलने का लालच दे कर लोगों को ठगा। ऐसे समझदार और जानकार लोग भी उसके झांसे में आये, जिनका अपना काम ही निवेश के लायक कंपनियाँ चुनना है! अब इंटरनेट पर कुछ बार क्लिक करके बस सर्वेक्षण फॉर्म भरने के हजारों रुपये पाने के लालच में पडऩे वाले भी लाखों हैं।
स्पीक एशिया नाम की जिस कंपनी का पूरे भारत में एक दफ्तर नहीं, उसके सदस्यों की संख्या 19 लाख पर पहुँच गयी। केवल स्पीक एशिया ही नहीं, ऐसी छोटी-बड़ी तमाम कंपनियाँ हैं जो इसी तर्ज पर बड़ी संख्या में लोगों को लुभाने की कोशिश कर रही हैं। यहाँ तक कि मीडिया में इन सबके बारे में तमाम नकारात्मक खबरें आने के बाद भी इस सम्मोहन में फंसे लोगों का भ्रम टूट नहीं रहा।
क्या है यह कारोबार?
स्पीक एशिया अपने सदस्य (पैनलिस्ट) बनाने के लिए लोगों को यह लालच देती है कि हर सदस्य को हर हफ्ते इंटरनेट पर दो सर्वेक्षण फॉर्म भरने के लिए 20 डॉलर मिलेंगे, यानी एक फॉर्म भरने पर 10 डॉलर। रुपये में देखेंगे तो यह रकम हर हफ्ते करीब ९00 रुपये हो जाती है। कोई भी यह सर्वेक्षण फॉर्म भर सकता है, बस उसे इस स्पीक एशिया का सदस्य बनना होगा। किसी तरह की खास योग्यता की जरूरत नहीं, केवल कंप्यूटर पर क्लिक-क्लिक करना आना चाहिए और अंग्रेजी भाषा समझ में आनी चाहिए। पर हाँ, सदस्य बनने के लिए साल भर के 11,000 रुपये देने होंगे।
हर हफ्ते 20 डॉलर मिलते रहे तो सालाना सदस्यता के 11,000 रुपये बस तीन महीने में वापस मिल जाते हैं। इस हिसाब से साल के 52 हफ्तों में आपको इंटरनेट के सर्वेक्षण के फॉर्म भर कर ही 1040 डॉलर यानी मोटे तौर पर 45,000-50,000 रुपये की कमाई हो सकती है। हर हफ्ते कंप्यूटर पर कुछ क्लिक-क्लिक करने भर से अगर इतनी कमाई हो सके तो किसे अच्छा नहीं लगेगा? इस लालच में पडऩे वाले लोगों की कतार लंबी होती गयी।
कैसे बढ़ी इतनी तादाद?
स्पीक एशिया ने संदर्भ (रेफरेंस) देने पर अलग से भुगतान का लालच भी दे रखा है। इसके तहत उसका कोई सदस्य अगर किसी नये व्यक्ति को स्पीक एशिया का सदस्य बनाये तो उसे इसके लिए 1,000 रुपये मिलेंगे। अगर वह दो नये सदस्य बना दे तो उस पर 3,000 रुपये मिलेंगे। यही नहीं, उनके हवाले से बने सदस्य जितने फॉर्म भरेंगे, उसके लिए भी प्रति फॉर्म 150 रुपये मिलेंगे।
जब स्पीक एशिया का सदस्य बनने वाले व्यक्ति को शुरुआती हफ्तों या महीनों में कुछ कमाई होने लगती है तो कंपनी पर उसका भरोसा जम जाता है। ऐसे में वह नये सदस्य बना कर अपनी कमाई और बढ़ाने के लालच में फंसता है। वह नये सदस्यों को खुद अपना उदाहरण देता है कि उसे लगातार पैसे मिल रहे हैं, इसलिए कंपनी की योजना में कोई गड़बड़ी नहीं है।
इस तरह एक से दो और दो से चार सदस्य बनते चले जाते हैं। हर व्यक्ति अपने नीचे की श्रृंखला को लंबी बनाना चाहता है, ताकि उसे अपने काम के साथ-साथ दूसरों के काम से भी कमाई होती रहे। यह मल्टी लेवल मार्केटिंग का काफी पुराना तरीका है, जिसमें एक तरह से लोगों का पिरामिड बनता चला जाता है।
क्यों लगे गड़बड़ी के आरोप?
इसके कामकाज पर सबसे पहला सवाल यह उठा कि एक ऑनलाइन सर्वेक्षण फॉर्म भरने के बदले किसी को 500-1000 रुपये देना संभव ही नहीं है। लोगों ने इसे बाजार की हकीकत से कोसों दूर माना। स्पीक एशिया ने दावे किये थे कि भारती एयरटेल, आईसीआईसीआई बैंक, आईएनजी वैश्य बैंक, बाटा और नेस्ले जैसी बड़ी कंपनियाँ उससे सर्वेक्षण कराती हैं। कंपनी ने अपने कारोबारी मॉडल के बारे में लोगों का भरोसा जमाने के लिए इन नामों का इस्तेमाल किया था। लेकिन जब मीडिया में इस कंपनी के बारे में चर्चा हुई तो इन सारी कंपनियों ने स्पीक एशिया से कोई भी सर्वेक्षण कराने का एकदम खंडन कर दिया। मुंबई में 16 मई को आयोजित एक संवाददाता सम्मेलन में कंपनी ने इस बात को माना कि उसने इन कंपनियों के बारे में झूठ बोला था। कंपनी ने इसके लिए माफी भी मांगी।
बार-बार पूछे जाने के बाद भी स्पीक एशिया ने न तो अपने ग्राहकों के बारे में बताया, न ही सदस्यों से मिलने वाली रकम और उनके डेटाबेस को बचने के अलावा अपनी कमाई के दूसरे स्रोतों के बारे में बताया। इससे यह साफ तौर पर समझा जा सकता है कि कंपनी को केवल दो रास्तों से पैसा मिल रहा था - जितने नये सदस्य बनते जा रहे थे, उनके सदस्यता शुल्क से और फिर लाखों लोगों के नाम-पते वगैरह जमा होने के चलते उस डेटाबेस को बेचने से।
जब निवेश मंथन ने कंपनी के सूत्रों से यह खंगालने की कोशिश की कि आखिर क्यों उन्होंने झूठ का सहारा लिया और बड़ी-बड़ी कंपनियों के नाम अपने ग्राहकों के तौर पर सामने रखे तो उन्होंने मान लिया कि उनकी ओर से इस बारे में गलती हुई। लेकिन इसके बाद हमें यह समझाया गया कि आईसीआईसीआई बैंक, बाटा या नेस्ले जैसी कंपनियों ने उन्हें भले ही सर्वेक्षण का काम नहीं सौंपा, लेकिन किसी और की ओर से भी तो इन ब्रांडों के बारे में सर्वेक्षण कराया जा सकता है।
जब हमने जोर डाला कि अगर ऐसा है तो कंपनी अपने असली ग्राहकों का नाम सामने रख दे। तब इन सूत्रों ने फिर से अपनी बात पलट कर कहा कि ऐसा कोई ग्राहक नहीं था और कंपनी खुद अपनी रिसर्च रिपोर्ट तैयार करने के लिए ऐसे सर्वेक्षण कराती है।
लेकिन इसके ठीक बाद मीडिया में फिर से कंपनी के बयान आये कि उससे कुछ ग्राहकों ने सर्वेक्षण कराये और वह उनके नाम गोपनीय रखना चाहती है। क्या इन बदलते बयानों से लोगों के मन में यह स्वाभाविक अंदेशा नहीं बन सकता है कि यह कंपनी परत-दर-परत झूठ का ही सहारा लेती रही है?
क्यों मीडिया की खबरों में इस पर लगा पोंजी योजना का ठप्पा?
मीडिया में आने वाली काफी खबरों में स्पीक एशिया के कारोबार को लेकर शक जताया गया कि यह एक पोंजी योजना है। इन्वेस्टर ग्रीवांसेज फोरम के अध्यक्ष और पूर्व सांसद किरीट सोमैया ने भी मुंबई पुलिस से लेकर वित्त मंत्रालय तक को भेजी योजना में यही शिकायत की। जब किसी भी तरह की निवेश योजना में आप नये निवेशकों से मिलने वाले पैसों से ही पुराने निवेशकों को कुछ-कुछ भुगतान करते रहते हैं, तो उसे पोंजी योजना कहते हैं। पोंजी योजनाएँ चलाना ठगी का पुराना तरीका है। चाल्र्स पोंजी नाम के एक व्यक्ति की वजह से ऐसी ठगी को यह नाम मिला।
ऐसी योजनाओं में जब तक नये निवेशकों की संख्या लगातार बढ़ती रहे, तब तक पुराने निवेशकों को पैसा देते रहने में उस कंपनी को कोई दिक्कत नहीं आती। कभी-न-कभी यह बुलबुला फूट ही जाता है। लेकिन जब तक ठगी की ऐसी योजना का भंडाफोड़ होता है, तब तक बड़ी तादाद में लोग उसकी चपेट में आ चुके होते हैं।
स्पीक एशिया और ऐसी दूसरी कई कंपनियों के कामकाज को देख कर इसी तरह का संदेह होना स्वाभाविक है। कंपनी के पास आय का कोई और बड़ा जरिया नहीं होने के आधार पर किरीट सोमैया ने भी वित्त मंत्रालय को भेजी अपनी शिकायत में इस बात अंदेशा जताया कि नये सदस्यों को बनाने से जो पैसा मिल रहा था, उसी में से कुछ पैसा पुराने सदस्यों को दिया जा रहा था।
स्पीक एशिया की सफाई
स्पीक एशिया अब तक मीडिया से जितनी बातचीत की है और अपने सदस्यों को जो ईमेल वगैरह भेजे हैं, उनमें कंपनी का दावा है कि उसने कोई कानून नहीं तोड़ा है, किसी को ठगा नहीं है और उसके सारे सदस्यों को समय पर भुगतान मिलता रहा है।
कंपनी ने मुंबई में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस किया और 16 मई 2011 को जारी एक बयान में कहा कि उसने भारत में अपना कामकाज जनवरी 2010 में शुरू किया था। इसने बताया कि पिछली तीन तिमाहियों में 8.05 करोड़ डॉलर (करीब 360 करोड़ रुपये) की आमदनी हासिल की और इस दौरान उसके 12 लाख सदस्यों ने ५.२ करोड़ डॉलर (करीब 232 करोड़ रुपये) पाये।
कंपनी के मुताबिक इन सदस्यों को यह आमदनी सर्वेक्षण फॉर्म भरने, इंटरनेट पर विज्ञापन देख कर उस पर अपनी राय देने और नये सदस्य बनाने के लिए संदर्भ (रेफरेंस) देने से हुई। कंपनी के मुताबिक यह सारी रकम उन्हें विदेशी मुद्रा के लेन-देन के लिए भारतीय रिजर्व बैंक की ओर से अधिकृत रास्तों से बैंकों के जरिये दी गयी।
भारत में अपना एक भी दफ्तर नहीं होने के बाद भी स्पीक एशिया ने यह सारा कारोबार कैसे किया? कंपनी के मुताबिक उसने दूसरे विदेशी ऑनलाइन व्यवसायों की तरह ही भारत में लेनदेन के लिए अपना एक प्रतिनिधि (कलेक्शन रिप्रेजेंटेटिव) बनाया। इस प्रतिनिधि ने 30 अप्रैल 2011 तक सारे लेनदेन पर भारत सरकार को 68 करोड़ रुपये के सेवा कर (सर्विस टैक्स) का भुगतान भी किया।
लेकिन यहाँ इस बात को समझना जरूरी है कि बैंकों के जरिये विदेशी मुद्रा का लेन-देन करने, इस लेन-देन के लिए आरबीआई की किसी मंजूरी (अगर हो तो) या सेवा कर का भुगतान से कंपनी के कामकाज पर कोई वैधानिक मुहर नहीं लग जाती। इनमें से किसी भी जगह कंपनी को उसका कामकाज सही होने का प्रमाण-पत्र नहीं मिल जाता - न तो आरबीआई अधिकृत रास्तों से विदेशी मुद्रा के लेनदेन से, न ही सेवा कर का भुगतान करने से।
हालाँकि स्पीक एशिया के कुछ औपचारिक और अनौपचारिक बयानों को देख कर आपको यह आभास हो सकता है कि मानो उसे अपने कामकाज के लिए आरबीआई, सेबी और यहाँ कि पीएमओ की भी मंजूरी मिली हुई है। ध्यान देने की बात यह है कि कंपनी केवल अपनी औपचारिक वेबसाइट के माध्यम से ही नहीं, बल्कि कई ब्लॉग वगैरह के जरिये भी अपने सदस्यों को आश्वस्त करने की कोशिश कर रही है। हालाँकि इस बात की पुष्टि करना जरा मुश्किल ही है कि ऐसे ब्लॉग चलाने के पीछे खुद कंपनी के अधिकारी शामिल हैं या नहीं।
क्यों आशंका है ठगी की?
अगर कंपनी ने अब तक किसी भी सदस्य का पैसा नहीं रोका, उस पर ठगी और धोखाधड़ी के आरोप क्यों लग रहे हैं? किरीट सोमैया ने इस बारे में वित्त मंत्रालय को भेजी अपनी शिकायत में कंपनी के कामकाज के बारे में कई सवाल उठाये। उन्होंने लिखा कि बार-बार अनुरोध करने के बावजूद कंपनी ने अपने ग्राहकों या आमदनी के स्रोतों के बारे में कोई जानकारी नहीं दी है। कंपनी अपने वास्तविक कारोबार का भी कोई ब्योरा नहीं दे पा रही है। किरीट सोमैया ने साफ लिखा कि कंपनी अपने कुछ निवेशकों को जो भुगतान कर रही है, वह बस दूसरे (नये) निवेशकों से मिलने वाले पैसों से ही हो रहा है।
कहीं आप एक जुर्म में साझेदार तो नहीं बन रहे?
स्पीक एशिया के काफी सदस्य कंपनी के बारे में काफी नकारात्मक खबरें छपने के बावजूद कंपनी पर भरोसा जताते रहे। उनका सवाल यही था कि अगर यह कंपनी गलत होती तो हमें समय पर भुगतान कैसे मिलता रहता? दरअसल हर पोंजी योजना में निवेशक इसी बात की वजह से धोखे में रहते हैं। जो कंपनी उन्हें लगातार पैसा दे रही हो, उसके बारे में कुछ भी गलत सुन कर उन्हें लगता है कि कोई उनकी अपनी कमाई को रोकने वाली बात कर रहा है। ऐसे में शायद वे यही सोचने लगते हैं कि मीडिया और उस कंपनी का विरोध करने वाले दूसरे लोग बेवजह उनकी कमाई का रास्ता बंद करा रहे हैं।
हमने गाजियाबाद में स्पीक एशिया के एक सदस्य से बात की, जो इससे करीब छह महीनों से जुड़े हैं। नाम न लिखने की शर्त पर उन्होंने बताया कि वे कंपनी को अब तक 1.5४ लाख रुपये दे चुके हैं। खुद अपने नाम पर और अपने परिवार के दूसरे सदस्यों के नाम से उन्होंने कुल 14 आईडी बनवायी। इन पर कंपनी से उन्हें अब तक 40,000 रुपये की कमाई हो चुकी है और वह पैसा उन्हें मिल भी चुका है। इस दौरान वे 12 और लोगों को भी स्पीक एशिया का सदस्य बनवा चुके हैं। यानी कंपनी ने उनके सहारे और भी 1.32 लाख रुपये कमाये।
अब इस मिसाल में आप खुद ही देख लें कि शुद्ध रूप से किसे पैसा मिला - इस सदस्य को या स्पीक एशिया को? भले ही इस सदस्य को लगता रहा कि उनकी कमाई हो रही है, लेकिन हकीकत में पैसा उनकी जेब से निकल कर स्पीक एशिया के पास गया।
लेकिन अब भी वे इस कंपनी के पक्ष में ही बोल रहे हैं। उन्हें आज भी इस कंपनी को लेकर कोई शंका नहीं है। वे यहाँ तक कहते हैं कि अगर कंपनी ठीक प्रकार से चल रही है तो और लोगों को भी इसमें पैसा लगाना चाहिए। स्पीक एशिया के अधिकारियों की तर्ज पर उनका भी कहना है कि एक टीवी चैनल ने जानबूझ कर खुद इसी क्षेत्र में अपनी एक वेबसाइट को चलाने के लिए स्पीक एशिया का विरोध शुरू किया। हालाँकि हकीकत यह है कि मनीलाइफ फाउंडेशन अरसे से इस कंपनी के खिलाफ अभियान चला रहा है। हाल में केवल किसी एक टीवी चैनल ने इस मुद्दे को नहीं उछाला, बल्कि आज तक जैसे अन्य प्रतिस्पर्धी चैनलों और तमाम अखबारों ने भी इस बारे में काफी आलोचनात्मक खबरें दिखायीं और छापीं।
इस सदस्य का कहना है कि लोगों को अगर आर्थिक लाभ हो रहा है तो पैसा कहाँ से आ रहा है, यह जानने में किसी की रुचि नहीं है। उनकी राय है कि कंपनी किस तरह से कमा रही है इससे मुझे कोई लेना-देना नहीं है। बड़ी बात बस यही है कि मुझे फायदा हो रहा है। लेकिन इस तरह की सोच से आज असल में फायदा किसे हो रहा है, यह आप ऊपर देख चुके हैं। आखिर मीडिया में कंपनी के कामकाज का खुलासा होने के बाद भी लोग क्यों ऐसी भाषा बोल रहे हैं? एक अन्य सदस्य ने अनौपचारिक बातचीत में कहा कि बंधु अपने पैसे फंसे हुए हैं, इसीलिए हम यह सब बोल रहे हैं। हम बस चाहते हैं कि इस समय कंपनी किसी तरह से टिक जाये और हमारा पैसा वापस निकल जाये। बाद में इस कंपनी का जो होना हो वह हो।
कुछ सदस्यों ने तो माना कि इस कंपनी से जुड़ते समय भी उन्हें भी इसके कामकाज में सब कुछ ठीक नहीं होने का अहसास था। पर उन्हें लग रहा था कि अगर कोई घोटाला निकला भी तो शायद साल-दो-साल बाद ऐसा होगा। तब तक उनकी अपनी कमाई तो हो ही जायेगी। ऐसा करने वाले लोगों ने यह नहीं सोचा कि अगर यह सच में एक जालबट्टा है तो उस दौरान खुद उनके हाथों से इसमें फंसने वालों की संख्या कितनी हो जायेगी। ऐसे लोगों में खुद उनके अपने दोस्त होंगे, परिवार के लोग होंगे या आस-पड़ोस के ही लोग होंगे। जिन लोगों ने इसे गोरखधंधा मान कर भी इसमें कदम रखा और दूसरों को भी खींचा, उनके मन में आज क्या यह बात नहीं आ रही होगी कि वे एक धोखाधड़ी के एजेंट बन गये?
कैसे-कैसे लोग पड़े लालच में?
वैसे तो हर उम्र और हर तबके के लोग स्पीक एशिया के लुभावने तिलिस्म में फंसे, लेकिन अगर इंटरनेट वेबसाइटों पर आने वाले लोगों की संख्या का विश्लेषण करने वाली वेबसाइट एलेक्सा के मुताबिक युवाओं को इसने अपनी ओर ज्यादा खींचा। इसके आँकड़े बताते हैं कि स्पीक एशिया की वेबसाइट पर आने वालों में 18-24 साल की उम्र के युवाओं की संख्या सबसे ज्यादा रही, इसके बाद 25-34 साल के युवा भी सामान्य इंटरनेट आबादी की तुलना में इस वेबसाइट की ओर ज्यादा आकृष्ट हुई। लेकिन 35 साल या इससे ज्यादा के लोगों ने इस वेबसाइट का रुख कम ही किया। इस वेबसाइट को ज्यादातर पुरुषों ने ही देखा, महिलाओं ने इसे घास नहीं डाली। मजेदार पहलू यह भी है कि बाल-बच्चेदार लोग इसके पचड़े में कम फंसे। लेकिन जो लोग इस वेबसाइट पर आये उनमें ज्यादातर लोग पढ़े-लिखे थे, कम-से-कम स्नातक थे।
एक सरकारी बैंक में वरिष्ठ पद संभालने के बाद सेवानिवृत हो चुके एक व्यक्ति बताते हैं कि स्पीक एशिया के विज्ञापनों से आकर्षित हो कर उन्होंने इससे जुडऩे का मन बना लिया था। यहाँ तक कि वे अपने रिश्तेदारों को भी इसकी योजना के बारे में बताने और इससे जुडऩे के लिए प्रेरित करने लगे थे। लेकिन तभी मीडिया में इसे लेकर बवाल मच गया और वे सावधान हो गये।
नोएडा में एक समाचार चैनल के कई पत्रकार भी इसकी योजना में पैसा फंसने का किस्सा सुनाते हैं। कई चार्टर्ड एकाउंटेंट (सीए) न केवल इस कंपनी से जुड़े, बल्कि तमाम लोगों को भी इसकी ओर खींचा। अगर बैंक के वरिष्ठ अधिकारी, सीए, पत्रकार जैसे सजग, जानकार और समझदार लोग ऐसे प्रलोभन में पड़ सकते हैं, तो बाकी लोगों के बारे में क्या कहा जाये। मीडिया में आयी कुछ खबरों के मुताबिक कुछ पुलिस अधिकारी भी इस सूची में शामिल हैं!
कहीं नहीं सुनवाई
शेयर बाजार के निवेशकों के हित की रक्षा का जिम्मा सँभालने वाला भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) यह कह कर अपना पल्ला झाड़ सकता है कि इस तरह के मामले उसके क्षेत्राधिकार में नहीं आते। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) का काम इस मामले में केवल यह देखना होगा कि विदेशी मुद्रा के लेनदेन में कहीं हवाला का पैसा नहीं तो लगा। अगर विदेशी मुद्रा लेनदेन में कोई गड़बड़ी नहीं हो तो आरबीआई का काम वहीं खत्म।
किरीट सोमैया काफी पहले ही मुंबई पुलिस के सामने शिकायत दर्ज करा चुके हैं, लेकिन पुलिस ने अब तक कोई कार्रवाई नहीं की है। इसके बाद ही सोमैया ने भारत सरकार के वित्त मंत्रालय को शिकायत भेजी थी। लेकिन ऐसा लगता नहीं है कि वित्त मंत्रालय में अब तक इसमें कोई खास दिलचस्पी ली हो।
मई 2011 के तीसरे हफ्ते में ही छपी कुछ खबरों में बताया गया कि मुंबई पुलिस इस मामले में तफ्शीश कर रही है। ऐसी खबरें भी आयीं कि सरकार इस मामले की जाँच एसएफआईओ यानी सीरियस फ्रॉड्स इन्वेस्टिगेशन ऑफिस को सौंपने जा रही है। उसी दौरान यह भी छपा कि आयकर (इन्कम टैक्स) विभाग ने इस मामले में अपनी छानबीन शुरू कर दी है।
लेकिन स्पीक एशिया के अधिकारियों को इन सब खबरों से शायद ही कोई परेशानी हुई हो। निवेश मंथन से अनौपचारिक बातचीत में इस कंपनी के एक प्रतिनिधि ने दावा किया कि जून के पहले हफ्ते तक कंपनी को किसी तरह का कोई नोटिस नहीं मिला है और किसी भी जांच एजेंसी ने उनसे कोई जवाब नहीं मांगा है। कंपनी ने ऐसा ही दावा अपनी वेबसाइट पर भी कर रखा है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या सरकार 19 लाख लोगों का सारा पैसा डूब जाने का इंतजार कर रही है? या फिर किसी जनहित याचिका पर अदालती आदेशों के बाद ही कोई जांच एजेंसी सक्रिय होगी?
स्पीक एशिया : कुछ खास सवाल
द्य क्या स्पीक एशिया बतायेगी कि सिंगापुर के यूनाइटेड ओवरसीज बैंक (यूओबी) ने उसके दो खाते बंद करने के बाद कितनी रकम का डिमांड ड्राफ्ट सौंपा है? मीडिया में आयी ताजा खबरों के मुताबिक कंपनी ने सात जून को अपने बयान में कहा कि उसके पास 1.6 करोड़ डॉलर की रकम उपलब्ध है और नया खाता खुलते ही इसमें से सदस्यों को पैसा दिया जा सकेगा। 1.6 करोड़ डॉलर का मतलब तो बस करीब 71 करोड़ रुपये है। तो क्या इसका मतलब यह नहीं है कि कंपनी अपने सभी सदस्यों को हफ्ते भर का भुगतान करने की भी हालत में नहीं है? आखिर 19 लाख लोगों को एक हफ्ते के 1000 रुपये का भुगतान करने के लिए 190 करोड़ रुपये चाहिए।
द्य मुख्य रूप से भारत में ही सारा कामकाज होने के बावजूद कंपनी ने सिंगापुर में अपना दफ्तर क्यों रखा है? क्या ऐसा इसीलिए है कि वह भारत के कानून की पहुँच से दूर रह कर भी भारत के लोगों के बीच एक पोंजी योजना चला सके? कंपनी ने अपनी वेबसाइट पर अपने कामकाज की तुलना लिंक्डइन से की है जिसके नौ लाख से ज्यादा भारतीय सदस्य हैं। लेकिन लिंक्डइन एमएलएम कंपनी नहीं है।
द्य खबरों के मुताबिक इस कंपनी ने सिंगापुर में बीते पाँच सालों के दौरान तीन बार नाम बदला। सिंगापुर में नियमों को पूरा नहीं करने की वजह से इसे काली सूची में डाले जाने की भी खबरें छपी हैं। क्या ये खबरें सच हैं?
द्य स्पीक एशिया ऑनलाइन प्रा.लि. की प्रमोटर कंपनी वर्जिन आईलैंड्स में बनी एक होल्डिंग कंपनी पोडियम रिंग इंटरनेशनल लिमिटेड है। खुद कामकाजी कंपनी स्पीक एशिया सिंगापुर में और फिर उसकी प्रमोटर कंपनी कर चोरों के स्वर्ग (टैक्स हैवेन) कहे जाने वाले वर्जिन आईलैंड्स में! कोई भी समझदार व्यक्ति क्या मतलब निकालेगा इन सब बातों का?
द्य क्या यह सच है कि भारत में उसके सदस्य जो पैसा देते थे, वह भारत में ही बनी एक कंपनी स्पीक इंडिया नेटवर्क मार्केटिंग प्राइवेट लिमिटेड के खातों में जाता था? अगर ऐसा है तो कंपनी बार-बार क्यों यह कहती रही है कि भारत में उसका कोई स्थायी ढाँचा (पर्मानेंट इस्टैब्लिशमेंट) नहीं है?
द्य क्या कंपनी बतायेगी कि सिंगापुर में गठित स्पीक एशिया ऑनलाइन प्रा.लि. और भारत में बनी स्पीक इंडिया नेटवर्क मार्केटिंग प्रा.लि. के बीच किस तरह का संबंध है? क्या स्पीक इंडिया नेटवर्क मार्केटिंग को स्पीक एशिया की सहायक (सब्सीडियरी) कंपनी नहीं कहा जा सकता है? और अगर दोनों कंपनियों के बीच इस तरह का कोई संबंध नहीं है तो स्पीक एशिया के सदस्यों के पैसे स्पीक इंडिया के खातों में क्यों जमा हो रहे थे?
द्य दूसरे देशों में कामकाज के बारे में कंपनी लगातार गोलमोल बातें क्यों कर रही है? कभी वह कहती है कि उसका कामकाज केवल भारत में है। लेकिन 16 मई को मीडिया को जारी बयान में इसने भारत के अलावा मलयेशिया, इंडोनेशिया, वियतनाम, फिलीपींस, नेपाल, बांग्लादेश और सिंगापुर में भी उसका कारोबार फैला है।
द्य कंपनी ने दावा किया है कि अभी वह बांग्लादेश में सीधे कोई कामकाज नहीं कर रही है। फिर वहाँ उसके कई कर्मचारियों की गिरफ्तारी कैसे हुई और ये गिरफ्तारियाँ क्यों की गयीं?
द्य कंपनी ने अपने ऊपर आरोप लगने और विवाद छिडऩे के बाद भी मीडिया को ऐसा कोई दस्तावेज क्यों मुहैया नहीं कराया, जिससे उसकी अपनी विश्वसनीयता साबित हो?
द्य अपना सारा कामकाज मल्टी-लेवल मार्केटिंग (एमएलएम) और प्रत्यक्ष बिक्री (डायरेक्ट सेलिंग) पर आधारित होने के बावजूद कंपनी ने इंडियन डायरेक्ट सेलिंग एसोसिएशन की सदस्यता क्यों नहीं ली? स्पीक एशिया इस बात से इन्कार करती है कि वह एमएलएम कंपनी है। उसका तर्क है कि संदर्भ देने के कार्यक्रम (रेफरल प्रोग्राम) में शामिल होना उसके सदस्यों के लिए जरूरी नहीं है। लेकिन यही बात ढेर सारी एमएलएम कंपनियों के लिए भी कही जा सकती है जो संदर्भ देना जरूरी नहीं बनाते और केवल इसके लिए प्रोत्साहन देते हैं।
द्य ध्यान देने की बात यह भी है कि एक तरफ स्पीक एशिया मल्टीलेवल मार्केटिंग कंपनी होने से इन्कार करती है, और दूसरी तरफ भारत में उसकी जिस सहायक कंपनी के खातों में पैसे जमा होने की खबरें आ रही हैं, उसके नाम में ही नेटवर्क मार्केटिंग लगा है, जो एमएलएम का ही दूसरा नाम है।
द्य कंपनी का कहना है कि वह 11,000 रुपये का सालाना शुल्क अपनी ई-जीन सर्वे टुडे का ग्राहक बनने के लिए लेती है और इस ई-जीन के ग्राहकों को कंपनी की सदस्यता मुफ्त मिलती है। आप कान को सीधे पकडऩे के बदले हाथ घुमा कर पकड़ें तो क्या आपने कान नहीं पकड़ा?
द्य कंपनी का दावा है कि ई-जीन का ग्राहक बनना तीन तरीकों में से केवल एक तरीका है। लोग दो दूसरे तरीकों से भी मुफ्त सदस्य बन सकते हैं। इनमें पहला तरीका यह है कि आवेदक विश्व की 20 सबसे बड़ी ऑनलाइन सर्वेक्षण कंपनियों में से किसी एक से कम-से-कम 1000 डॉलर (यानी लगभग 45,000 रुपये) की सालाना आमदनी का प्रमाण अगर दे, तो वह स्पीक एशिया का मुफ्त सदस्य बन सकता है। दूसरा तरीका यह है कि अगर कोई व्यक्ति कंपनी की एक परीक्षा और साक्षात्कार में सफल रहे तो वह उसका मुफ्त सदस्य बन सकता है। ध्यान देने वाली बात यह है कि परीक्षा में बैठना भी मुफ्त नहीं है। फिर भी, क्या कंपनी यह बता सकती है कि उसके 19 लाख सदस्यों में से कितने लोग इन दो तरीकों से मुफ्त सदस्य बने हैं?
द्य कंपनी ने 27 मई 2011 को एक बयान में कहा कि कुछ बैंकों ने हमारे भारत-स्थित एजेंटों के खातों पर तात्कालिक रोक (फ्रीज) लगा दिया है। ...हम सरकारी अधिकारियों (अथॉरिटीज) और संबंधित बैंकों के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय जा रहे हैं। क्या कंपनी बतायेगी कि उसने अब तक किन-किन अधिकारियों और बैंकों के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय या किसी अन्य अदालत में कोई याचिका दाखिल की है?
द्य कंपनी की जनसंपर्क एजेंसी ने निवेश मंथन को ईमेल से भेजे जवाब में कहा कि कंपनी कानूनी रास्ता अख्तियार करने जा रही है, लिहाजा वह अभी किसी सवाल का जवाब नहीं देगी। लेकिन हम तो सवाल पूछेंगे। और हमारा आखिरी सवाल यही है कि कानूनी रास्ता अख्तियार करने का मतलब क्या है? क्या वह किसी अदालत में कोई याचिका दाखिल करने जा रही है? अगर हाँ, तो किसके खिलाफ? अगर नहीं, तो कानूनी रास्ता अख्तियार करने का मतलब क्या है?
कितना सही मानेंगे ऐेसे सर्वेक्षण को?
तथ्यों को देखने से अव्वल तो ऐसा आभास होता है कि स्पीक एशिया का कोई ऐसा ग्राहक ही नहीं था, जिसने उससे असल में कोई सर्वेक्षण कराया हो। क्या कोई कंपनी स्पीक एशिया के 19 लाख लोगों के बीच सर्वेक्षण कराने के लिए हर सर्वेक्षण फॉर्म के 500 रुपये देने को तैयार होगी? एक क्षण के लिए मान लेते हैं कि स्पीक एशिया अपने ग्राहक से मिलने वाला पूरा पैसा अपने सदस्यों को दे देती थी। तब भी केवल ऐसे एक सर्वेक्षण का बजट 95 करोड़ रुपये होता है। क्या कंपनी के पास हर हफ्ते लगातार ऐसे दो ग्राहक थे, जो उसे 95 करोड़ रुपये दे रहे थे?
रिसर्च और सर्वेक्षण के क्षेत्र की जानी-मानी कंपनी आईएमआरबी इंटरनेशनल के ग्रुप बिजनेस डायरेक्टर तरुण अभिचंदानी साफ कहते हैं कि यह रकम हद से ज्यादा बड़ी है और ऐसा खर्च करना किसी कंपनी के लिए संभव नहीं है।
अभिचंदानी कहते हैं कि कोई कंपनी ऑनलाइन सर्वेक्षण इसी लिए कराती है कि ऐसे सर्वेक्षण काफी कम खर्च में किये जा सकते हैं। लोग अपना खर्च बढ़ाने के लिए ऑनलाइन सर्वेक्षण नहीं कराते। अगर सर्वेक्षण फॉर्म भरवाने के लिए 500-1000 रुपये देने ही हैं तो कोई सीधे लोगों के पास जा कर सर्वेक्षण क्यों नहीं करा लेगा, क्योंकि उसमें मिलने वाले जवाब की गुणवत्ता बेहतर मानी जाती है?
अभिचंदानी कहते हैं कि जिस तरह से स्पीक एशिया ने अपने विज्ञापन दिये और लोगों को लुभावने वादों से खींचने की कोशिश की, वह अपने-आप में रिसर्च और सर्वेक्षण के सिद्धांतों के विपरीत है। उनका सीधा कहना है कि यह गोरखधंधा है और तुरंत बंद होना चाहिए। अगली बात यह है कि आम उपभोक्ताओं के बीच कराये जाने वाले सर्वेक्षण में जवाब देने वालों का बिना किसी तय क्रम के यानी बेतरतीब (रैंडम) चुनाव करना पड़ता है। अगर आपके सारे सर्वेक्षण पहले से बने-बनाये सदस्यों के बीच ही हो रहे हों और सभी सदस्य उसका जवाब दे रहे हों तो इसे रैंडम सर्वेक्षण नहीं माना जा सकता।
अभिचंदानी साफ करते हैं कि पहले से लोगों का पैनल बना कर सर्वेक्षण कराना हमेशा गलत नहीं कहा जा सकता। लेकिन उनके मुताबिक रैंडम सर्वेक्षण के बदले पहले से चुने हुए लोगों के बीच सर्वेक्षण तब कराया जाता है, जब यह किसी बड़े छोटे और खास तरह के (नीश) समूह के बीच कराना हो। जाहिर है कि 19 लाख लोगों का समूह छोटा और खास तरह का समूह नहीं माना जा सकता।
एक खास पहलू यह भी है कि अगर किसी सर्वेक्षण में जवाब देने वालों को पैसे दिये जा रहे हों, और वह भी एक बड़ी रकम, तो ऐसे सर्वेक्षण को रिसर्च के सिद्धांतों के लिहाज से विश्वसनीय नहीं माना जा सकता। सर्वेक्षण में लोगों को प्रोत्साहन देने के लिए छोटे-मोटे उपहार देने का चलन स्वीकार कर लिया गया है, हालाँकि उस पर भी बहस चलती है। अभिचंदानी के मुताबिक अगर किसी को सर्वेक्षण का जवाब देने के लिए बड़ी रकम दी जा रही है तो यह माना जायेगा कि उसके जवाब बनावटी हैं, क्योंकि वह व्यक्ति जवाब देने के लिए बंध गया है। उसके जवाब ईमानदार नहीं होंगे। वे बताते हैं कि आम तौर पर रिसर्च कंपनियाँ नकद भुगतान नहीं करती हैं, वे कूपन और उपहार जैसे दूसरे तरीकों से प्रोत्साहन देती हैं। यह प्रोत्साहन ज्यादा बड़ा नहीं हो सकता और केवल सामान्य प्रोत्साहन ही दिया जा सकता है।
अमेरिका जैसे देश में भी पोंजी योजनाओं से ठगी
अमेरिका जैसे देश में भी बर्नार्ड मेडॉफ की ६५ अरब डॉलर (करीब 2900 अरब रुपये) की पोंजी योजना का भंडाफोड़ हुआ, जहाँ निवेशकों की सुरक्षा के कानून बेहद सख्त हैं और जहाँ आम लोगों की वित्तीय समझदारी तुलनात्मक रूप से काफी बेहतर कही जा सकती है। यह अमेरिकी इतिहास की सबसे बड़ी पोंजी योजना है, जिसमें 73 साल के बर्नार्ड मेडॉफ को 150 साल की जेल की सजा हो चुकी है। उसकी कंपनी से जुड़े तमाम लोगों पर भी मुकदमा चल रहा है और उसके कई पूर्व कर्मचारियों ने अदालत में अपना गुनाह मान लिया है। दरअसल पोंजी योजनाओं से ठगी अमेरिका में ही शुरू हुई और वहीं ऐसी योजनाओं को पोंजी का नाम मिला।
कौन था चाल्र्स पोंजी?
चाल्र्स पोंजी (1882-1949) इटली का एक ठग था और अमेरिका में ठगी के सबसे बड़े कारनामों की फेहरिश्त में उसका नाम आता है। उसे केवल नये निवेशकों से मिलने वाले पैसों से ही पुराने निवेशकों को पैसे देते रहने वाली ठगी योजनाओं का पिता माना जाता है। इसीलिए ऐसी ठगी को पोंजी योजना कहा जाने लगा। चाल्र्स पोंजी की ठगी 1920 के दशक में परवान चढ़ी, जब उसने अपने ग्राहकों को केवल 45 दिनों में 50% फायदा या 90 दिनों में पैसा दोगुना करने का लालच दिया था।
क्या कानून वाकई लाचार है?
स्पीक एशिया का मामला उठने के बाद यह बहस भी छिड़ी है कि क्या भारतीय कानून ऐसे मामलों में एकदम लाचार है? क्या मौजूदा कानूनों के तहत सरकार या कोई भी जाँच एजेंसी दखल नहीं दे सकती? कई कानूनी जानकारों की यह राय है कि जब तक कोई व्यक्ति ठगी या धोखाधड़ी के आरोप में इस कंपनी के खिलाफ शिकायत न दर्ज कराये, तब तक पुलिस या अन्य एजेंसियां कार्रवाई नहीं कर सकतीं। दूसरी दिक्कत यह बतायी जा रही है कि कंपनी का भारत में कोई दफ्तर नहीं होने और यहाँ उसका कोई पंजीकरण (रजिस्ट्रेशन) नहीं होने के कारण उसके खिलाफ कार्रवाई करनी मुश्किल होगी। लेकिन कंपनी ने अपने सदस्यों से किस तरीके से पैसा लिया, वह पैसा किन खातों में गया और उसके आगे कहाँ गया, इन सबकी जाँच हो तो यह कार्रवाई इतनी मुश्किल भी नहीं हो सकती।
किस्से कम नहीं
रामसर्वे डॉट कॉम
मिर्जापुर की यह कंपनी राम नरेश सर्वे इंटरनेशनल प्रा.लि. हाल में सिंतबर 2010 में ही बनी। इसका 11 महीने का सदस्य बनने वालों को 3,500 रुपये देने होते थे। हर हफ्ते यह कंपनी दो सर्वेक्षण फॉर्म भेजती थी, और हर फॉर्म के लिए 250 रुपये देने का वादा था। यानी केवल डेढ़ महीने में आपके पैसे वापस और उसके बाद मुफ्त की कमाई चालू। इस कंपनी से जुडऩे वाले एक-दो सदस्यों ने बताया कि इसमें कम-से-कम दो नये सदस्य बनवाने के बाद ही अपने पैसे मिलने शुरू होते थे, लेकिन इस बात की पुष्टि नहीं की जा सकी। कंपनी की वेबसाइट पर इस बारे में बेहद कम जानकारी मिली। पिछले एक-महीनों से अलग-अलग शहरों से इसके बारे में लोगों की शिकायतों पर पुलिस की कार्रवाई की खबरें आती रही हैं।
सिटी लिमोजीन
मुंबई के मेकर्स टावर्स में आईएसओ 9000 का तमगा लेकर बैठी इस कंपनी की लक्जरी कार योजना भी कम लुभावनी नहीं थी। इसमें निवेशक को किसी लक्जरी कार की कीमत का केवल 25% हिस्सा देना था। बाकी पैसा यह कंपनी लगाती और ड्राइवर के वेतन, पेट्रोल और रखरखाव के खर्च भी खुद उठाती। कंपनी का कहना था कि वह कार को सरकारी संस्थानों वगैरह को किराये पर देगी। निवेशक को हर 2-3 महीनों में से 2-3 दिन खुद वह कार इस्तेमाल करने का मौका मिलता। साथ ही कंपनी 5 साल तक निवेशक को हर महीने किराये की एक रकम भी देती और इसके बाद वह कार निवेशक को ही मिल जाती। योजना बड़े लुभावने तरीके से दिलचस्प है, लेकिन अगर आज आप इंटरनेट पर इस कंपनी का नाम खोजें तो हर जगह केवल इसके निवेशकों की शिकायतें ही मिलेंगी, जो अपनी गाढ़ी कमाई डूबने का रोना रो रहे हैं।
स्टॉकगुरु इंडिया
दिल्ली के एक व्यक्ति लोकेश्वर देव जैन ने इसे चलाया था। वित्तीय सलाहकार होने का दावा करने वाली इस कंपनी की योजना में 1,000 रुपये का पंजीकरण शुल्क करने के बाद कम-से-कम 10,000 रुपये का शुरुआती निवेश करना होता था। यह कंपनी हर महीने 20% फायदे का लालच दे रही थी। यहाँ तक कि निवेशकों को भविष्य की तारीख के चेक भी पंजीकरण कराने के समय ही दे दिये जाते थे। लेकिन इस साल फरवरी में इसका बुलबुला फूट गया। ध्यान रखें कि साल-दर-साल केवल 20% का फायदा लेते चले गये वारेन बफेट दुनिया के सबसे अमीर निवेशक बन गये। लेकिन हर महीने 20% पाने के लालच में पड़े लोगों ने अपनी लुटिया डुबा ली। लोकेश्वर जैन इन दिनों फरार बताया जाता है।
गोल्डक्वेस्ट इंडिया
इस कंपनी के बारे में भी इंटरनेट के शिकायती मंचों पर होने वाली चर्चा ही ज्यादा मिलती है। ऐसे ही एक शिकायती फोरम पर रविकांत नाम के व्यक्ति बता रहे हैं कि उन्होंने इसके फेर में केवल अपने 6 लाख रुपये ही नहीं, अपने मित्रों और परिवार के लोगों के साथ संबंध भी गँवा दिये। यह कंपनी अपनी मार्केटिंग शाखा क्वेस्टनेट इंडिया के जरिये मल्टीलेवल मार्केटिंग का कारोबार चलाती थी। इंटरनेट पर दर्ज शिकायतों से पता चलता है कि इस कंपनी के निवेशकों को सोने के सिक्के एंटीक के नाम पर ऊँची कीमत पर बेचे जाते थे और उन्हें भरोसा दिलाया जाता था कि इन सिक्कों की कीमत बहुत कम समय में कई गुना हो जायेगी। इस कंपनी के एमडी पुष्पम अप्पलनायडू को चेन्नई पुलिस ने मई 2008 में गिरफ्तार किया था। उस समय की खबरों के मुताबिक 8000 से ज्यादा निवेशकों ने इसके खिलाफ पुलिस में शिकायतें दर्ज करायी थीं।
अभय गांधी
एक ताजा किस्सा अहमदाबाद के अभय गांधी का है, जो शेयर कारोबार करने वाली कंपनी एआईएसई कैपिटल मैनेजमेंट प्रा.लि. का निदेशक और प्रमोटर है। इस पर भी पोंजी योजना चला कर लोगों को ठगने का आरोप है। उसने अपनी कंपनी के जरिये दो लाख रुपये का निवेश करने वालों को हर तिमाही में 20% का फायदा दिलाने और चार लाख रुपये या इससे ज्यादा का निवेश करने वालों को हर तिमाही में 40% का फायदा दिलाने का लालच दिया। खबरों के मुताबिक दूसरों को अमीर बनने का सपना दिखाने वाले अभय गांधी ने जुलाई 2011 तक अभिनेत्री दीपिका पादुकोण से शादी करने, सितंबर 2012 तक ऑडी कार खरीदने और सितंबर 2030 तक 10,000 करोड़ रुपये जुटाने के सपने देख रखे थे। अभी वह अपने पूरे परिवार के साथ फरार बताया जा रहा है। ठ्ठ