तकरीबन सभी क्षेत्रों पर पिछले कारोबारी चौथी तिमाही में कम या ज्यादा दबाव दिखा है, लेकिन शेयर ब्रोकिंग कंपनियों पर इस समय दोहरा दबाव दिख रहा है। जो शेयर बाजार में सूचीबद्ध कंपनियाँ हैं, उनका दबाव तो उनके तिमाही नतीजों में झलक ही रहा है।
बाजार के बाकी खिलाड़ी भी बातचीत में उस दबाव का आभास दे देते हैं। हाल में कई ब्रोकिंग फर्मों ने काफी छँटनियाँ भी की हैं। लागत घटाने के लिए उन्होंने अपनी कई शाखाओं को बंद भी किया है। हालाँकि ग्राहकों से बातचीत में उन्हें यही कहा गया कि उनकी शाखा को एक अन्य शाखा के साथ मिला दिया गया है। मगर कुल मिला कर शाखाओं की संख्या में कमी ही इसका मुख्य मकसद रहा है। इस साल फरवरी के बाद से इंडियाबुल्स ने अपनी कई शाखाओं का विलय किया।
एक साथ कई कारोबार करने वाली कुछ कंपनियों ने ब्रोकिंग कारोबार में लगे अपने कर्मचारियों को दूसरे कारोबारों की जिम्मेदारी भी देनी शुरू कर दी है। इसका मतलब यह है कि उनके किसी रिलेशनशिप मैनेजर को केवल ब्रोकिंग के लक्ष्य पूरे नहीं करने, बल्कि साथ में कुछ और भी उत्पादों को बिकवाने का लक्ष्य हासिल करना है।
बोनांजा पोर्टफोलिओ के निदेशक सुरेंद्र कुमार गोयल बताते हैं कि उनकी कंपनी खर्च घटाने के लिए अपने दफ्तरों की संख्या कम कर रही है और कुछ शाखाओं को मिला दे रही है। लेकिन उनके मुताबिक छँटनी का रास्ता नहीं चुना गया है, क्योंकि मार्केटिंग टीम के लोगों को मिलने वाले वेतन का लगभग आधा हिस्सा उनके प्रदर्शन पर आधारित होता है। इस कारण छँटनी का दबाव नहीं होता, हालाँकि अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाने वाले लोग खुद ही छोड़ देते हैं।
शेयर बाजार में बढ़ती प्रतिस्पर्धा के बीच निवेशकों और कारोबारियों की घटती दिलचस्पी की मार बड़े ब्रोकरों को भी झेलनी पड़ रही है। बीते कारोबारी साल की चौथी तिमाही में मोतीलाल ओसवाल फाइनेंशियल सर्विसेज का औसत रोजाना कारोबार घट कर 3100 करोड़ रुपये रह गया। यह दूसरी तिमाही में 3600 करोड़ रुपये और तीसरी तिमाही में 3400 रुपये था। कंपनी की चौथी तिमाही की आमदनी घट कर 126 करोड़ रुपये रह गयी। आमदनी में तिमाही-दर-तिमाही और साल-दर-साल दोनों लिहाज से 24% कमी आयी। मुनाफा साल-दर-साल 52% और ठीक पिछली तिमाही से 42% घट कर 24.3 करोड़ रुपये रह गया। इन नतीजों के बारे में कंपनी के सीएमडी मोतीलाल ओसवाल ने माना कि चौथी तिमाही काफी चुनौती भरी रही। एक तरफ विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) का निवेश घट गया, तो दूसरी ओर आम निवेशकों ने भी बाजार से थोड़ी बेरुखी कर ली। उनका यह भी कहना था कि कारोबारियों ने अब ऑप्शन बाजार की ओर ज्यादा ध्यान देना शुरू कर दिया है, जिस पर ब्रोकिंग फर्म की कमाई कम है।
अगर इडेलवाइज कैपिटल के नतीजे देखें तो बीएसई पर मौजूद आँकड़ों के मुताबिक इसकी शुद्ध बिक्री अक्टूबर-दिसंबर 2010 के 444.74 करोड़ रुपये से घट कर जनवरी-मार्च 2011 की तिमाही में 386.26 करोड़ रुपये रह गयी। यानी ठीक पिछली तिमाही से यह 13.1% कम रही। हालाँकि साल-दर-साल इसमें जरूर 47.2% की बढ़त दिखी। इसी तरह मुनाफा तिमाही-दर-तिमाही 25.7% घट कर 64.6 करोड़ रुपये से घट कर 47.98 करोड़ रुपये रह गया। मुनाफे में साल-दर-साल 14.8% कमी दर्ज की गयी।
आम निवेशकों के बीच अच्छी पैठ रखने वाली इंडिया इन्फोलाइन को भी ब्रोकिंग कारोबार में घटते फायदे का असर झेलना पड़ा। कंपनी की तिमाही आमदनी साल-दर-साल तो 18.9% बढ़ी, लेकिन ठीक पिछली तिमाही से 19.8% घट गयी। अक्टूबर-दिसंबर 2010 के 459.63 करोड़ रुपये के बदले इसने जनवरी-मार्च 2011 में 368.41 करोड़ रुपये की आमदनी हासिल की। मुनाफे में साल-दर-साल और तिमाही-दर-तिमाही दोनों लिहाज से कमी आयी। यह पिछले साल की समान तिमाही के 67.06 करोड़ रुपये और ठीक पिछली तिमाही के 52.21 करोड़ रुपये से घट कर 46.79 करोड़ रुपये रह गया। बेशक इंडिया इन्फोलाइन के इन नतीजों में ब्याज के बढ़े हुए बोझ का असर भी रहा। लेकिन इन नतीजों पर कंपनी के चेयरमैन निर्मल जैन ने अपने बयान में माना कि ब्रोकिंग पर फायदे (यील्ड) में गिरावट भी मुनाफे में कमी का एक कारण रही। ब्रोकिंग पर फायदे में कमी के पीछे यहाँ भी कारण यही रहा कि कंपनी के ग्राहकों का झुकाव नकद श्रेणी में खरीद-बिक्री से हट कर वायदा (फ्यूचर और ऑप्शन) के सौदों की ओर होने लगा है।
ब्रोकिंग क्षेत्र पर दबाव के बारे में एस्कॉट्र्स सिक्योरिटीज के सीओओ अशोक अग्रवाल का कहना है कि जब तक बाजार ऊपर चढ़ता रहता है और निवेशकों के पैसे बनते रहते हैं, तब तक निवेशक ज्यादा कारोबार के लिए उत्साहित रहता है। ऐसे में लोग जल्दी-जल्दी खरीद-बिक्री करते हैं और नतीजतन ब्रोकर की कमाई भी बढ़ती है। लेकिन गिरावट के दौर में जो निवेशक घाटे में रहते हैं, वे कोई नया सौदा करने से हिचकते हैं। साथ ही पुराने निवेश में पैसा फँसे होने से उनके पास नकदी भी कम होती है। इससे कारोबार की मात्रा घटने लगती है।
अशोक अग्रवाल इस बात की ओर भी ध्यान दिलाते हैं कि साल 2009 में जो उछाल आयी, उसमें बाजार भले ही ऊपर चढ़ा लेकिन आम निवेशक उसका फायदा नहीं उठा सके। वे इस तेजी का बड़ा हिस्सा निकल जाने के बाद निवेश के लिए आगे बढ़े। फिर बाजार के ऊपरी स्तरों पर वे सही समय पर मुनाफा ले कर निकल भी नहीं पाये। लिहाजा जब बाजार फिर से गिरा तो उनका पैसा फंसा रह गया और निवेशक फिर से निराश हो गये। इस निराशा के साथ-साथ उनके मन में यह बात भी बैठ गयी कि उनके ब्रोकर ने न तो सही समय पर उन्हें शेयर खरीदने के लिए कहा, न ही सही समय पर शेयर बिकवाये। एक आम निवेशक की नजर से देखें तो उसे फायदा दिलाना ब्रोकर की ही जिम्मेदारी है।
शेयर बाजार में कारोबार घटने का एक कारण यह भी है कि निवेशकों के सामने कुछ दूसरे आकर्षक विकल्प भी दिख रहे हैं। अशोक कहते हैं कि पहली बार आम निवेशक भी बांड के बाजार में रुचि लेने लगे हैं। बांड बाजार में ऊँची दरों के चलते मिलने वाला फायदा अब शेयर बाजार के जोखिम की तुलना में आकर्षक लगने लगा है। हालाँकि एक ब्रोकर की रुचि अपने ग्राहक को बांड का निवेशक बनाने में शायद नहीं हो, क्योंकि इससे निवेशक का पैसा लंबी अवधि के लिए उस निवेश में चला जाता है। अगर निवेशक वही रकम शेयर बाजार में बार-बार खरीद-बिक्री में लगाये तो उस पर ब्रोकर को ज्यादा कमाई होगी।
कारोबार की मात्रा घटने के लिए निवेशकों की दिलचस्पी घटने के साथ-साथ सटोरिया गतिविधियों में कमी भी जिम्मेदार है। सट्टेबाज बाजार के उतार-चढ़ाव से फायदा उठाते हैं। लेकिन हाल में बाजार का उतार-चढ़ाव इतना नहीं है कि वे इससे कोई खास फायदा ले सकें। लिहाजा उनका कारोबार भी कुछ ठंडा ही चल रहा है। दरअसल बाजार में नकदी (लिक्विडिटी) की कमी ने बाजार का उतार-चढ़ाव घटा कर उनके कामकाज पर असर डाला है। बाजार में नकदी कम रहने से कारोबारियों या सट्टेबाजों के लिए इंपैक्ट कॉस्ट बढ़ गया है। इंपैक्ट कॉस्ट किसी बड़े सौदे की वजह से उस शेयर के भाव पर होने वाले असर को कहते हैं। इसकी वजह से कारोबारियों की लागत बढ़त जाती है और वे बड़े सौदे करने से हिचकते हैं।
दूसरी ओर ब्रोकिंग के कारोबार में प्रतिस्पर्धा बीते कुछ सालों में काफी बढ़ गयी है। इसके चलते शेयर ब्रोकिंग की दरें लगातार घटती गयी हैं। अशोक अग्रवाल कहते हैं कि ब्रोकिंग दरें घटने से सामान्य स्थिति में कारोबार की मात्रा बढऩी चाहिए थी। लेकिन अभी सौदों से जुड़े दूसरे खर्च, जैसे इंपैक्ट कॉस्ट ज्यादा होने के कारण ब्रोकिंग दरें घटने का यह सकारात्मक असर भी नहीं हो रहा।
सुरेंद्र कुमार गोयल कहते हैं कि बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण ब्रोकिंग दरें घटाने का दबाव अब रोजमर्रा की बात हो गयी है। निवेशक अब कई ब्रोकरों के पास खाते रख रहे हैं और बार-बार ब्रोकिंग दरें घटाने का दबाव डालते हैं। दो साल पहले एक आम निवेशक के लिए नकद श्रेणी के सौदों के लिए 50 पैसे और एकदिनी (इंट्राडे) सौदों के लिए पाँच पैसे की दलाली (ब्रोकरेज) लगती थी। लेकिन अब एक पैसा की दलाली के विज्ञापन हर तरफ दिख रहे हैं। गोयल बताते हैं कि काफी बड़े स्तर पर निवेश करने वाले निवेशकों (एचएनआई) को तो अब नकद में 0.10 पैसे और एकदिनी सौदों में 0.01 पैसे तक की दलाली पर सौदे करने की सुविधा दी जा रही है।
यह साफ है कि पिछले कुछ सालों में ब्रोकरों को शेयरों की दलाली से होने वाली कमाई में कमी आयी है। लेकिन दूसरी ओर तकनीक, संचार सुविधाओं, कर्मचारियों के वेतन और दफ्तरों के किराये वगैरह पर खर्च बढ़े ही हैं। गोयल के मुताबिक अभी उनका जोर गैर-जरूरी खर्च कम करने और कारोबार बढ़ाने के कम खर्चीले तरीके अपनाने पर है। स्टेशनरी, यात्रा, फोन और बिजली जैसे मदों में जहाँ संभव हो वहाँ खर्च कम करने की कोशिश की जा रही है। दूसरी ओर कारोबार बढ़ाने के लिए अपनी शाखाएँ खोलने के बदले सब-ब्रोकर और फ्रेंचाइज बनाने पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है। इसके अलावा विज्ञापन वगैरह पर खर्च में भी कटौती की गयी है।
हालाँकि कारोबार में इस दबाव की वजह से अभी ऐसी स्थिति नहीं है कि सब-ब्रोकर अपना काम बंद कर रहे हों। गोयल बताते हैं कि अगर किसी सब-ब्रोकर को कामकाज में कोई दिक्कत आ रही हो तो बातचीत करके उसकी दिक्कत को समझा जाता है और उसके मुताबिक कुछ शर्तों में ढील दे दी जाती है। इस मामले में भी खास कर ब्रोकिंग दरों पर ही बात होती है और आम तौर पर बात निपट जाती है।
दबाव के इस दौर का एक संकेत साफ है। प्रतिस्पर्धा जल्दी खत्म होती नहीं दिखती और दरों को घटाने की होड़ आगे भी चल सकती है। लिहाजा इस दौर में वही ब्रोकर अपने कामकाज को आगे बढ़ा सकेंगे, जो अपने खर्चों पर नियंत्रण रख सकेंगे।
(निवेश मंथन, जुलाई 2011)