संदीप त्रिपाठी :
संकट का समय रिश्तों की पहचान कराता है। नोटबंदी ने एक बार फिर साबित किया कि हिंदुस्तान में इंसानियत और सहयोग की भावना शेष है, रिश्ते हैं, भावनाएँ हैं, भाईचारा है। नोटबंदी ने अचानक उस आदमी को भी कंगाल बना दिया जिसकी जेब में 500-500 रुपये के नोटों की शक्ल में 10-20 हजार रुपये भी पड़े हुए थे। रुपये हैं लेकिन चलेंगे नहीं, खायेंगे क्या, पीयेंगे क्या? बैंक बंद, एटीएम बंद, दो दिन बाद खुलेंगे तो नोट बदले जायेंगे, पैसे निकल पायेंगे। लेकिन पैसे तो सबको चाहिए, भीड़ जबरदस्त होगी, किसके निकल पायेंगे, किसके नहीं निकल पायेंगे, कब तक नहीं निकल पायेंगे, कोई नहीं जानता था।
दिल्ली में विद्यार्थियों, नयी नौकरी करने वालों, संघर्षरत युवाओं का इलाका है लक्ष्मीनगर-शकरपुर। खास कर शकरपुर एक ऐसा इलाका है, जहाँ तकरीबन हर दूसरे घर में पेईंग गेस्ट हॉस्टल हैं। आबादी का घनत्व जबरदस्त है, बाहरी युवक-युवतियाँ हैं जिनके दिन भर के खर्चे नकदी से ही चलते हैं। किराया, चाय, नाश्ता, खाना, रिक्शा, ऑटो, रिचार्ज, नेट, कुछ भी हो, नकदी एकमात्र जवाब है। ऐसे में नोटबंदी का व्यापक असर यहाँ देखने को मिला। समस्याएँ थीं तो समाधान भी थे।
कुछ युवक पहुँचे सुबह की चाय पीने, उसी दुकान पर जहाँ रोजाना पहुँचते थे। शकरपुर, मेन मार्केट, सब्जीमंडी के पास चौधरी मामचंद की दुकान पर जिसे पूर्वांचली लड़कों ने नाम दिया था चाचा चौधरी की अड़ी। यहाँ चाय-नाश्ता वगैरह मिलता है। लड़के पूछते हैं - चौधरी जी... चाय पीनी है... पाँच सौ का पुराना नोट है... क्या करें? चाचा चौधरी कहते हैं कि पहले चाय तो पीयो। नोटबंदी के शुरुआती चार-पाँच दिन, जब संकट बहुत ज्यादा था, चौधरी की दुकान में हर ग्राहक को चाय मिली, चाहे उसके पास पैसे हों या नहीं।
चौधरी ग्राहकों की उधारी का हिसाब नहीं लिखते। यह ग्राहकों की जिम्मेदारी थी कि वे खुद अपना हिसाब रखें और जब पैसे हों तो चुका दें। यह व्यवहार नोटबंदी के कारण था। किसी को जरूरत पड़ी तो चौधरी ने सौ-दो सौ अपनी ओर से दे दिये, दिन के खाने, आने-जाने के लिए। उस दुकान पर आने वाले सौ-सवा सौ नियमित ग्राहकों के लिए मसीहा बन गये थे चाचा चौधरी।
यही हाल था चौधरी मामचंद की चाय की दुकान से 10-12 दुकान आगे उत्तराखंडी भोजनालय का। इसके मालिक 65-70 वर्ष के बुजुर्ग हैं। लोग आते, खाना खाते, भुगतान के नाम पर पाँच सौ का नोट बढ़ाते, बुजुर्गवार लेने से मना कर देते। कहते कि खाना खाओ, जब हालात ठीक हो जायें तो पैसे चुका देना। यह बुजुर्गवार जिस दुकान से होटल के लिए राशन लाते थे, उसने बिना वैध नकदी (पुराने नोट बाजार में अवैध घोषित हो चुके थे) के राशन देने से मना कर दिया। बुजुर्गवार इस चिंता में परेशान थे कि तमाम उन ग्राहकों को वे खाना कैसे खिला पायेंगे, जो वैध नकदी न होने से भोजन के लिए उनके भरोसे हैं।
सहयोग तो ऐसा दिखा कि जिस दिल्ली को निर्भया काण्ड के बाद लड़कियों के लिए खतरनाक बताया जाने लगा था, उस दिल्ली में रात को 12-1 बजे भी युवा लड़कियाँ एटीएम की तलाश में अकेले दो-दो, तीन-तीन किलोमीटर चली जा रही थीं।
रास्ते में मिलने वाले लड़के उन्हें छेड़ते नहीं थे, बल्कि यह बताते थे किस एटीएम से पैसा मिल पायेगा। यह भी दिल्ली का एक रंग है, जिसे निर्भया काण्ड के बाद भुला दिया गया था। संकट लोगों को पास लाता है, भाईचारा, रिश्ते बनाता है, मानवीयता का पक्ष उभारता है जो तेज रफ्तार जिंदगी में कहीं पीछे छूटता जा रहा होता है।
कुछ खबरें ग्रामीण क्षेत्रों से आयीं। किसी लड़की का विवाह था। ऐन मौके पर लड़की के परिजनों द्वारा संचित धन पुराने नोटों की शक्ल में होने या एटीएम-बैंक में निकासी की अल्प सीमा के कारण बेकार हो गया था। नये सुनहरे भविष्य के लड़की के सपने दरक रहे थे। गाँव के अधिकांश लोग कतारों में खड़े हुए और ढाई-ढाई हजार रुपये लड़की के पिता को दिये। गाँव के बनियों ने उधारी पर पूरा सामान दिया। लड़की खुशी-खुशी अपनी ससुराल विदा हुई, सबके आशीर्वाद और शुभकामनाओं के साथ, सबको दुआएँ देती हुई।
हर शहर, कस्बे, गाँव में इसी तरह का सहयोग देखने को मिला। किसी के दो हजार रुपये एटीएम से निकले, पड़ोसन के नहीं निकल पाये तो एक हजार रुपये पड़ोसन को दे दिये। युवाओं को इस नोटबंदी ने रुपये की कीमत से परिचित करा दिया। सौ-सौ रुपये एक-दूसरे को उधार दे कर काम चलाया जा रहा था। एटीएम में रात को पैसे डाले गये और किसी घर में केवल महिला है तो आसपास के लड़कों ने महिला को एटीएम ले जाने, पैसे निकालने और घर पहुँचाने में सहयोग किया। एटीएम पर किसी को पैसे निकालने में दिक्कत हुई तो सभी सहयोग को तत्पर रहे। नोटबंदी ने बता दिया कि कोई संकट कितना भी बड़ा हो, इंसान अगर इंसान के साथ खड़ा रहे तो हर संकट से निजात पायी जा सकती है।
(निवेश मंथन, दिसंबर 2016)