बैंक
तानाशाही-तुगलकी फरमान, या भ्रष्टाचार और काले धन के विरुद्ध निर्णायक युद्ध? देश में 8 नवंबर 2016 से बस यही बहस चल रही है। पक्ष-विपक्ष के नेताओं से लेकर अर्थशास्त्री, उद्योगपति और आम जनता तक सब लोग दो पालों में बँट गये हैं। कुछ कह रहे हैं कि विमुद्रीकरण या नोटबंदी के इस फैसले से केवल जनता को असुविधा हो रही है, इससे काला धन खत्म नहीं होगा। कुछ लोगों की राय में यह फैसला सही है, मगर इस पर अमल ठीक से नहीं होने के चलते जनता परेशान है। अर्थशास्त्रियों और विश्लेषकों को चिंता हो गयी है कि इस कदम से विकास दर को कहीं भारी झटका न लग जाये। इनमें से कुछ तो मंदी की आहट महसूस करने लगे हैं। क्या वाकई नोटबंदी ला सकती है अर्थव्यवस्था में मंदी? विस्तार से समीक्षा कर रहे हैं राजीव रंजन झा।
यह एक ऐसा सच था, जिसके फैलने की रफ्तार अफवाह से भी ज्यादा तेज रही। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने टेलीविजन पर राष्ट्र के नाम संदेश में 500 और 1000 रुपये के नोटों का चलन बंद करने की घोषणा की और बात जंगल की आग की तरह फैल गयी। चंद मिनटों के अंदर देश भर में तमाम एटीएम के आगे लंबी कतारें लग गयीं। कुछ लोग 100 रुपये के नोट निकालने की हड़बड़ी में थे, तो कुछ लोग अपने पास पड़े बड़े नोटों को जमा कर देने की फिराक में। उस समय से लेकर इन पंक्तियों के लिखने तक देश भर में हर बैंक शाखा और हर एटीएम के सामने लंबी कतारों का सिलसिला बना हुआ है। ये कतारें रात दो बजे भी दिखती हैं और भोर के पाँच बजे भी। जिस एटीएम पर कतार नहीं हो, उसे देखते ही समझ में आ जाता है कि इसमें नोट नहीं होंगे।
चलती कार के टायरों में गोली?
विकास अर्थशास्त्री जीन ड्रेज ने विमुद्रीकरण के बारे में एक ऐसी टिप्पणी की, जो जल्दी ही विकास दर में गिरावट की आशंका व्यक्त करने वालों के बीच एक आकर्षक मुहावरा बन गयी। ड्रेज ने एक साक्षात्कार में कहा कि तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था में इतना व्यापक विमुद्रीकरण करना ऐसा ही है, मानो किसी चलती कार के टायरों में गोली मार दी गयी हो। उनका इशारा इस बात की ओर था कि जब भारत विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे तेज विकास दर पाने के मुकाम पर आया ही था, तब अचानक इस फैसले से अर्थव्यवस्था में अचानक ठहराव आने की आशंका पैदा हो गयी है। हालाँकि उनके इस विचार को इस संदर्भ में भी देखा जा सकता है कि ड्रेज यूपीए सरकार के दौरान सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) के सदस्य थे। आगे चल कर संसद में चर्चा के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने विमुद्रीकरण की आलोचना करते हुए कहा कि इसके चलते विकास दर में 2% की गिरावट आ जायेगी। हालाँकि पूर्व प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में यह साफ नहीं किया कि उनका आकलन किस अवधि के लिए है, केवल एक तिमाही यानी अक्टूबर-दिसंबर 2016 के लिए, पूरे वित्त वर्ष 2016-17 के लिए, या आगे के लिए भी।
पर क्या वाकई स्थिति ऐसी ही है कि चलती कार की टायर में गोली लग गयी, जिसके बाद अर्थव्यवस्था की गाड़ी का दुर्घटनाग्रस्त होना तय हो? अर्थव्यवस्था की विकास दर का आकलन करने वाली अधिकांश एजेंसियों और विश्लेषकों ने इस विमुद्रीकरण के बाद विकास दर में कमी आने की बात की है, हालाँकि यह कमी कितनी होगी, इस पर सबकी राय में काफी अंतर है। केयर रेटिंग ने वित्त वर्ष 2016-17 के लिए विकास दर के अनुमान को 7.8% से घटा कर 7.3-7.5% किया है। इसी तरह इक्रा का अनुमान 7.9% से घट कर 7.5% पर आया है। आईसीआईसीआई सिक्योरिटीज ने 7.8% के बदले अब 7.4% विकास दर का अनुमान रखा है। इन तीनों के आकलन को अगर सच मानें तो कहा जा सकता है कि यह केवल एक स्पीड ब्रेकर पर गाड़ी धीमी होने जैसा है, क्योंकि लगभग 7.5% विकास दर की आशा फिर भी कायम है। वहीं गोल्डमैन सैक्स ने 7.9% के बदले अब 6.8% विकास दर की बात कही है। एमके ग्लोबल का 7.4% का अनुमान अब घट कर 6.5% रह गया है। मोटे तौर पर इन दोनों ने भी विकास दर में लगभग 1% कमी आने की बात रखी है। हालाँकि ऐंबिट कैपिटल ने 6.8% के पुराने अनुमान को घटा कर अब 3.5%कर दिया है। यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि ऐंबिट कैपिटल भारत के विकास दर को लेकर पहले से ही अन्य की तुलना में काफी संकोची अनुमानों वाली फर्म रही है।
रेटिंग एजेंसी क्रिसिल ने यह मानते हुए कि स्थितियाँ सामान्य होने में लगभग दो महीने लग जायेंगे, इस वित्त वर्ष में जीडीपी वृद्धि दर के अनुमान को 7.9% से घटा कर 6.9% कर दिया है। इसका मानना है कि पहली छमाही में हासिल 7.2% विकास दर की तुलना में दूसरी छमाही में 6.6% विकास दर ही रह पायेगी। माँग को लगे झटके की वजह से महँगाई दर भी घटेगी। लिहाजा क्रिसिल ने उपभोक्ता महँगाई दर (सीपीआई) का अनुमान 5% से घटा कर 4.7% कर दिया है।
हालाँकि वित्त मंत्री अरुण जेटली का दावा है कि इस विमुद्रीकरण से अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक असर होगा। उन्होंने 24 नवंबर को संसद भवन परिसर में संवाददाताओं के सवालों के जवाब में कहा कि काली अर्थव्यवस्था में चलने वाला बहुत सारा पैसा अब बैंकिंग ढाँचे का हिस्सा बन जायेगा। साथ ही बैंकों के पास अब अर्थव्यवस्था को सहारा देने के लिए काफी पैसा होगा। बैंकों के पास कम लागत वाला पैसा उपलब्ध होने के कारण वे कम ब्याज दरों पर कर्ज दे सकेंगे।
कुछ बाजार विश्लेषक भी यह संभावना जताते हैं कि अब तक जो आर्थिक गतिविधियाँ काली अर्थव्यवस्था का हिस्सा होने के चलते जीडीपी के आँकड़ों में नहीं दिखती थीं, वे अब औपचारिक रूप से जीडीपी के आँकड़ों में आ जायेंगी। रिस्क कैपिटल एडवाइजरी के सीएमडी डी. डी. शर्मा कहते हैं कि आज जो खपत कच्चे खातों में हो रही है, वह पक्के खाते में आ कर जीडीपी में दिखेगी। इस आधार पर वे कहते हैं कि 2017-18 में जीडीपी फिर से तेज हो सकती है। वे ध्यान दिलाते हैं कि नोटबंदी के चलते लोग अपने वाजिब खर्च नहीं घटा सकते। कुछ खर्च केवल टाल दिये जायेंगे, लेकिन उपभोग खत्म नहीं होगा। इसलिए विकास दर में 2% जैसी गिरावट केवल एक तिमाही के दौरान आ सकती है।
धंधा तो मंदा है
बाजार से नकदी गायब होने के चलते खुदरा कारोबार पर काफी असर पड़ा है। कन्फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स ने अनुमान जताया है कि देश में रोजाना 14,000 करोड़ रुपये के अनुमानित खुदरा कारोबार में लगभग 25% गिरावट आ गयी। नोटबंदी लागू होने के 10 दिन बाद भी एशिया में सबसे बड़ी दिल्ली की आजादपुर मंडी में कारोबार एकदम सुस्त नजर आया। व्यापारियों के मुताबिक उनका कारोबार आधे से भी ज्यादा घट गया। किसानों को आढ़ती उधार पर बेचने को कह रहे हैं या बहुत कम कीमत दे रहे हैं। खरीदार भी कम रह गये हैं।
उत्तर प्रदेश के संभल में बीज और कीटनाशक का कारोबार करने वाले हिमांशु गुप्ता बताते हैं, %चालीस साल पुराना व्यापार है बीज, कीटनाशक और स्प्रेयर का। हम 9 तारीख से हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं, जबकि यह पीक सीजन है हमारे यहाँ। जो बीज सरसों आदि का रखा है, वह बिक नहीं रहा। गेहूँ का मंगाया नहीं, आलू की फसल में स्प्रे के लिए स्प्रेयर रखे है, लेकिन खरीदार नहीं क्योंकि किसान के पास नये नोट नहीं हैं। सरकार ने पुराने नोटों से बीज लेने की छूट दी तो है, पर केवल सरकारी केंद्रों पर। पता नहीं इस साल गेहूँ की बुवाई समय पर होगी भी या नहीं।’
ट्रांसपोर्टरों के संगठन ऑल इंडिया मोटर ट्रांसपोर्ट कांग्रेस के हवाले से आयी एक खबर में बताया गया कि लगभग 70% व्यावसायिक वाहन नोटबंदी के बाद सड़कों से हट चुके हैं। यह नकदी की किल्लत और मंडियों में थोक कारोबार घटने का असर है। नोटबंदी के बाद कारोबारियों को 50,000 रुपये तक नकद निकालने की अनुमति दी गयी है, जबकि एक ट्रक के एक दौरे में ही 20,000 रुपये से अधिक खर्च हो जाते हैं। इस कारोबार में तीन चौथाई से ज्यादा लेन-देन नकद ही होता है।
अर्थव्यवस्था का डायलिसिस
सरकार के इस फैसले से यह तो तय है कि आरबीआई द्वारा जारी 500 और 1,000 रुपये के हर नोट को बैंकिंग व्यवस्था के अंदर आना होगा। सरकार ने पुराने नोट बैंक खाते में डाले बिना बैंक या डाक घर के काउंटर से बदलने के लिए बहुत छोटी सीमा रख कर सरकार ने यह सुनिश्चित किया है कि हर व्यक्ति को अपने अधिकांश पैसे बैंक खातों में ही जमा करने पड़ेंगे। यानी अब तक जहाँ भी जितनी भी अघोषित नकदी छिपी पड़ी है, उसको घोषित करना जरूरी होगा।
चूँकि 500 और 1,000 रुपये के हर पुराने नोट को अब बैंक से हो कर गुजरना है, इसलिए जाली नोटों की लगभग पूरी छँटाई होनी तय है। केवल वही जाली नोट अब बैंकिंग व्यवस्था में घुसपैठ कर सकता है, जो भारी भीड़ के बीच किसी बैंक कर्मचारी की लापरवाही के चलते बैंक के पास आ जाये। मगर गलती से आ गया वह जाली नोट भी दोबारा चलन में नहीं आयेगा, बल्कि आरबीआई के पास चला जायेगा। इसलिए सारा बाजार जाली नोटों से पूरी तरह मुक्त हो जायेगा। जाली नोट किसी अर्थव्यवस्था के लिए रक्त में घुले जहरीले तत्वों की तरह हैं और यह कदम डायलिसिस की तरह भारतीय अर्थव्यवस्था को फिलहाल जाली नोटों से लगभग पूरी मुक्ति दिला देगा।
हालाँकि कुछ जानकार कह रहे हैं कि जाली नोटों से यह मुक्ति तभी तक के लिए होगी, जब तक नये नोट की नकल में भी जाली नोट छप कर न आ जायें। मगर नये नोटों की खासियत ही यही है कि इसकी नकल करना बहुत मुश्किल है। सरकारी दावों के मुताबिक ये नये नोट इस संभावना को ध्यान में रख कर तैयार किये गये हैं कि छोटे-बड़े गिरोह ही नहीं, बल्कि किसी दूसरे देश के सरकारी प्रेस में भी इनकी नकल न की जा सके।
हालाँकि नोटबंदी लागू होने के बाद से कई ऐसे मामले भी सामने आये हैं, जिनमें नये डिजाइन वाले जाली नोट पकड़े गये। लेकिन ये नये जाली नोट बिल्कुल कच्चे तरीके से तैयार किये गये। किसी ने कंप्यूटर पर स्कैन करके प्रिंट निकाला तो किसी ने रंगीन फोटोकॉपी ही कर ली! पहले तो बिल्कुल असली नोटों जैसे लगने वाले जाली नोट भारी मात्रा में मिला करते थे, जिनके बारे में संदेह हो कि ये किसी अन्य देश की सरकारी प्रेस में ही छपे होंगे, और खास कर पाकिस्तान की एजेंसी आईएसआई पर ये आरोप लगते रहे हैं कि वह आतंकी समूहों और अपराधी गिरोहों के माध्यम से भारत में जाली नोटों की खेप भेजती रही है।
स्थिति ऐसी रही है कि कुछ लोग आईएसआई को पाकिस्तान का आरबीआई भी कहने लगे। कहा जाता है कि पेशावर की एक टकसाल में खास तौर पर केवल जाली भारतीय मुद्रा ही छापी जाती रही है। मगर नये डिजाइन वाले नोटों की छपाई में ऐसी विशिष्ट तकनीकों का उपयोग है, जिनसे भारत सरकार को आशा है कि उनकी नकल करना लगभग असंभव होगा। गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू ने तो सीधे पड़ोसी देश का नाम लेते हुए कहा कि हमने जाली भारतीय मुद्रा की पाकिस्तानी दुकान को बंद करा दिया है। भारत सरकार की यह उम्मीद पूरी होने की शर्त यही है कि इन नोटों में इस्तेमाल के लिए अंतरराष्ट्रीय कंपनियों से आने वाली विशेष स्याही जाली भारतीय नोट छापने वालों को किसी भी तरह न मिल सके।
विमुद्रीकरण या नोटबंदी का यह फैसला सामने आते ही जनता का एक वर्ग इस बात पर विभोर हो उठा है कि अब काला धन रखने वालों की खैर नहीं है। उन्होंने जिंदगी भर चाहे जितनी भी काली कमाई की, वह अब मिट्टी में मिलने वाली है। पर दूसरी ओर जनता एक वर्ग अपने ऊपर अचानक आयी तकलीफों का हवाला देकर पूछ रहा है कि हमें क्यों परेशानी में डाल दिया, हमारे पास तो काली कमाई नहीं है? अपना ही पैसा बैंक से निकाल न पायें, हाथ का पैसा खर्च न कर पायें, यह बात बहुत-से लोगों को हजम नहीं हो रही। जनता की तकलीफों के नाम पर लगभग पूरे विपक्ष ने सरकार के खिलाफ मोर्चाबंदी कर दी, तो दूसरी तरफ लोक-माध्यमों (सोशल मीडिया) में विपक्षी नेताओं के उतरे हुए चेहरों को लेकर चुटकुलों की बरसात हो गयी। लोगों ने कयास लगाना शुरू कर दिया कि विपक्ष की इस मुहिम के पीछे जनता की तकलीफें कितनी हैं और अपना खजाना लुट जाने का दर्द कितना है!
शुरुआत में अफरातफरी के बाद आर्थिक कार्य विभाग के सचिव शक्तिकांत दास ने 10 नवंबर को एक ट्वीट में स्पष्ट किया कि छोटे व्यापारी, घरेलू नकद बचत, स्वरोजगार वाले छोटे व्यवसाय आदि बिना किसी डर के 1-2 लाख रुपये की राशि के पुराने नोट जमा कर सकते हैं।
इसके बाद वित्त मंत्री अरुण जेटली और खुद प्रधानमंत्री मोदी ने भी स्पष्ट किया कि लोग 2.50 लाख रुपये की सीमा तक अपने खातों में पैसा जमा करायें तो उसमें कोई समस्या नहीं आयेगी। गृहिणियों के लिए घरेलू बचत के 2.50 लाख रुपये तक के जमा पर सवाल नहीं करने की बात भी रखी गयी।
मगर बाद में इस छूट के दुरुपयोग की बातें सामने आने पर सख्त चेतावनी भी दी गयी और कहा गया कि अपने खाते में किसी और का पैसा डाल कर उसे काला धन सफेद करने की सुविधा देने वालों को जेल भी भेजा जा सकता है। साथ ही जन-धन खातों के दुरुपयोग की खबरें आने पर उनमें नकद जमा करने पर 50,000 रुपये की सीमा लगा दी गयी।
मोटी बात यह है कि बड़ी राशियों को दूसरे लोगों के नामों से बैंक खातों में जमा कराने पर अंकुश लगाने के सख्त उपाय किये गये हैं। वहीं खुद अपने खातों में बड़ी नकदी जमा करने पर आगे चल कर आयकर विभाग को पूरा हिसाब देना जरूरी होगा। यानी कर चोरी करके की गयी या अवैध तरीकों से हासिल नकदी अब चूहेदानी में फँस चुकी है।
बेशक, कोई भी व्यवस्था 100% कारगर नहीं हो पाती। 8 नवंबर को प्रधानमंत्री की घोषणा के तुरंत बाद कमीशन पर 500 और 1,000 रुपये के पुराने नोट बदलने वाले गिरोह सक्रिय हो गये। कर्मचारियों का वेतन बकाया रखने वाले फैक्ट्री मालिकों और ठेकेदारों ने उन्हें एक झटके में छह-छह महीने का अग्रिम वेतन दे दिया, पर पुराने नोटों में नकद भुगतान करके। लोगों ने सोने की खरीदारी करके अपनी नकदी खपानी चाही, मगर जौहरियों के यहाँ तुरंत छापे भी पडऩे लगे।
जो लोग बेनामी संपत्तियों में पैसा खपाने के रास्ते खोज रहे थे, उन्हें प्रधानमंत्री की सख्त चेतावनी ने जरूर डराया होगा। प्रधानमंत्री ने साफ कह दिया है कि नोटबंदी के बाद काले धन के खिलाफ उनका अगला बड़ा कदम बेनामी संपत्तियों पर होगा। बेनामी संपत्तियों के विरुद्ध पहले ही सख्त कानून बन चुका है। भविष्य में बेनामी संपत्तियों की खोजबीन तेज होने के स्पष्ट सरकारी संकेत हैं।
हर तरफ यही सुनने को मिल रहा है कि जिनके पास अघोषित बड़ी नकदी है, वे उसे खपाने का कोई रास्ता तलाश नहीं पा रहे। हालाँकि नोटबंदी की घोषणा के तुरंत बाद कमीशन पर पुराने नोट खपाने वाले गिरोह सक्रिय हो गये थे, मगर बैंकों से नोट बदलने की सीमा को 4,500 रुपये से घटा कर 2,000 रुपये कर देने और 30 दिसंबर तक एक व्यक्ति को एक ही बार नोट बदलने की छूट दिये जाने का नियम बना देने से इस गोरखधंधे पर काफी हद तक अंकुश लगा है।
एक व्यक्ति एक ही बार नोट बदल सके, इसके लिए मतदान के समय इस्तेमाल होने वाली स्याही के प्रयोग का फैसला किया गया। हालाँकि इस फैसले पर चुनाव आयोग की ओर से सरकार से स्पष्टीकरण भी माँगा गया और शुरुआत में बैंकों के पास ऐसी स्याही नहीं होने के चलते अमल नहीं हो पाने की खबरें भी आयीं। पर इस कदम के लागू होने के तुरंत बाद बैंकों में लगने वाली कतारें छोटी होने लग गयीं।
काफी लोगों का सवाल है कि अगर नोटबंदी से सारा काला धन खत्म नहीं होगा और भविष्य में काला धन फिर से बनता ही रहेगा तो आम जनता को इतनी तकलीफ में क्यों डाला गया। मगर यह ध्यान देने वाली बात है कि एकबारगी तो काली नकदी का अधिकांश हिस्सा निपट ही जायेगा और काफी काली नकदी बैंकिंग व्यवस्था के अंदर आ कर सफेद हो जायेगी।
बेशक, काले धन का बड़ा हिस्सा नकदी में नहीं बल्कि भूसंपदा, सोने-जवाहरात आदि अन्य रूपों में होता है। लेकिन अर्थशास्त्री नकदी को अर्थव्यवस्था का स्नेहक कहते हैं। अगर नकदी कम होगी तो अर्थव्यवस्था की गाड़ी ठीक नहीं चलेगी। इसी आधार पर, अगर काली नकदी कम होगी तो काली अर्थव्यवस्था या समानांतर अर्थव्यवस्था की गाड़ी भी अटकेगी और काला लेनदेन भी कम हो जायेगा।
मान लें कि एक थोक व्यापारी कपड़ा मिलों से काफी खरीदारी नकद करता था। अब नकदी निपट जाने के कारण अगर वह थोक व्यापारी मिल से चेक देकर माल खरीदेगा, तो वह चाहेगा कि उसे खुदरा व्यापारी से भुगतान भी एक नंबर का ही मिले। जब खुदरा व्यापारी एक नंबर में भुगतान देकर माल खरीदेगा तो उसे ग्राहक को भी पक्का बिल देकर सामान बेचने में दिक्कत नहीं होगी।
बाजार विश्लेषक संदीप सभरवाल भी मानते हैं कि पैसा एक बार सफेद हो जाने के बाद लोग जल्दी इसे वापस काले धन में नहीं बदलना चाहेंगे। वे कहते हैं कि भले ही लोगों के पास अघोषित संपत्तियों की भारी मात्रा में हो, मगर इन संपत्तियों का लेनदेन नकदी के माध्यम से ही होता है। मिसाल के तौर पर, किसी के पास काला धन भूसंपदा के रूप में है। मान लें कि इसकी कीमत 100 रुपये है, जिसमें से उसने 30 रुपये चेक से और 70 रुपये नकद में दिये। अब विमुद्रीकरण के बाद वह इस भूसंपदा को बेचना चाहे तो उसे इसी अनुपात में भुगतान करने वाला खरीदार नहीं मिलेगा। जो ग्राहक है, उसके पास विमुद्रीकरण के बाद सारे पैसे बैंक खातों में होंगे, यानी सफेद पैसे होंगे। कोई ग्राहक क्यों अपने सफेद पैसे को फिर से काला धन बनायेगा? सभरवाल कहते हैं कि अगर इस विमुद्रीकरण के बाद ऊँची नकद निकासियों पर नजर रखी जाये और हाथ में नकदी रखने की एक सीमा तय कर दी जाये तो इस तरह का लेनदेन और भी मुश्किल हो जायेगा।
कितना है काला धन
काला धन है, यह सभी जानते और मानते हैं। पर यह कितना है, इसकी कोई ठोस गणना नहीं हो सकती। अलग-अलग आकलन जरूर हैं, जिनमें काफी अंतर भी है। किसी आकलन में इसे 20% माना गया है तो किसी में 60% भी।
काले धन का अधिकांश हिस्सा नकदी में नहीं, बल्कि भूसंपदा, सोना-चाँदी, शेयर आदि अन्य रूपों में रखा जाता है और काले धन का एक बड़ा हिस्सा विदेशों में चला जाता है। इसलिए एक नजरिया यह है कि विमुद्रीकरण से काले धन को समाप्त नहीं किया जा सकता है। नकदी में काला धन तीन लाख करोड़ रुपये से लेकर 6.5 लाख करोड़ रुपये तक होने के अनुमान लगाये जाते हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस विमुद्रीकरण की घोषणा 8 नवंबर 2016 को अचानक की, मगर इसके बाद के भाषणों में उन्होंने संकेत दिया कि इसकी तैयारी के लिए काफी कदम पहले से उठाये जा रहे थे। अगर इस सरकार के आने के बाद से विभिन्न कदमों को देखें तो काले धन के प्रवाह को रोकने के विभिन्न उपायों का एक सिलसिला अवश्य दिखता है। दरअसल इस सरकार के मंत्रिमंडल की पहली बैठक में ही काले धन पर विशेष जाँच दल (एसआईटी) गठित करने का फैसला लिया गया था। भले ही यह कहा जा सकता है कि ऐसा सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर किया गया था, मगर सर्वोच्च न्यायालय के ही निर्देशों के बावजूद यूपीए सरकार लगातार इस काम को टालती रही थी।
मोदी सरकार ने विदेश में काले धन पर बेहद कठोर कानून बनाया है। इसके अलावा रियल एस्टेट, सोने आदि में काले धन की खपत पर अंकुश के उपाय किये गये हैं। सोने की खरीद पर टैक्स के मामले में जौहरियों ने लंबी हड़ताल की, मगर उन्हें कोई खास राहत नहीं मिली। साथ ही बेनामी संपत्ति के विरुद्ध कड़ा कानून बनाया गया है। नोटबंदी की स्थिति में लोग अपनी नकदी अपने खाते में जमा करा सकें, इसके लिए जन-धन योजना के तहत गाँव-गाँव तक बैंक खाते और डेबिट कार्ड पहुँचाने का इंतजाम भी किया गया। इसलिए कहा जा सकता है कि इसके पीछे ढाई साल की तैयारी थी। हालाँकि दूसरी ओर विरोधी यह भी आरोप लगाते हैं कि विकास का नारा देकर सत्ता में आयी मोदी सरकार चूँकि आधा कार्यकाल बीत जाने के बाद भी अर्थव्यवस्था में बड़ा कमाल नहीं दिखा सकी, इसलिए लोगों का ध्यान बँटाने के लिए ऐसा कदम उठाया गया।
बदइंतजामी से तकलीफ
आम जनता ने जहाँ मोटे तौर पर नोटबंदी के कदम को अच्छा माना, पर इसके चलते लोगों को तकलीफें उठानी ही पड़ीं। हालाँकि वित्त मंत्री जेटली ने गोपनीयता की जरूरत का हवाला देते हुए कहा कि पहले से तैयारियाँ करने पर राज खुल जाता और काला धन रखने वालों को अपनी नकदी ठिकाने लगाने का मौका मिल जाता। मगर लोगों में यह आम धारणा है कि सरकार को इससे बेहतर इंतजाम सुनिश्चित करने चाहिए थे।
अचानक नोटबंदी के बाद नोट बदलने के लिए बैंकों और डाक घरों के आगे लंबी कतारें लगना स्वाभाविक था। इन कतारों को कैसे सँभाला जाये, इस बारे में समझदारी वाले इंतजाम नहीं किये गये। मिसाल के तौर पर, ज्यादातर बैंकों ने पहले एक ही कतार लगवायी, बाद में चार अलग कतारें लगवाने की बात सोची गयी। बैंक सबकी कतारें लगवाने के बदले टोकन बाँट सकते थे और लोगों को उनकी टोकन संख्या के हिसाब से उनका नंबर आने का अनुमानित समय बता सकते थे। कई शाखा प्रबंधकों ने आगे चल कर यह तरीका अपनाया भी और उससे उन शाखाओं पर अफरा-तफरी और लोगों की परेशानी घट गयी। मतदान के समय इस्तेमाल होने वाली स्याही लगाने के तरीके पर पहले दिन से अमल होता तो कमीशन पर नोट बदलवाने वालों या मालिक के कहने पर कतार में लगने वाले मजदूरों की भीड़ शुरुआत से ही गायब रहती।
इसके अलावा, जिस तरह जन-धन खाते खुलवाने के लिए विशेष शिविर लगाने के इंतजाम किये गये थे, उसी तरह के विशेष शिविर नोट बदलने के लिए भी लगवाये जा सकते थे। पेट्रोल पंपों और दुकानों की पीओएस मशीनों यानी क्रेडिट/डेबिट कार्ड मशीनों के जरिये 2,000 रुपये तक के नये नोट दिये जाने की घोषणा भी हुई, मगर व्यावहारिक रूप में यह योजना चल ही नहीं पायी। पूछने पर दुकानदारों का साफ जवाब होता है कि बैंकों से हमें नोट मिल जायें तो हम लोगों दे भी दें। वे पूछते हैं कि जब हमारे पास ही नकदी नहीं है तो हम कहाँ से दें?
एटीएम में 100 के नोटों के खाँचे बढ़ाने और 2000 के नोट के खाँचे बनाने के बारे में भी काफी धीमी गति से काम हुआ। हालाँकि वित्त मंत्री इस बारे में भी गोपनीयता का ही हवाला देते हैं। लेकिन अगर पहले से इसकी तैयारी नहीं की जा सकती थी, तो कम-से-कम घोषणा हो जाने के बाद तुरंत सारे एटीएम नयी व्यवस्था के अनुकूल बनाये जाने चाहिए थे। एटीएम और बैंकों तक पहुँचने वाले लोगों को तय सीमा के अंदर नये नोट देने के लिए भी बैंकों को आरबीआई से पर्याप्त मात्रा में नकदी नहीं मिलने की शिकायतें मिलीं। बैंकों के अधिकारी इस बारे में कोई औपचारिक बयान देने से मना करते हैं, मगर अनौपचारिक रूप से सीधे अपनी लाचारी जताते हैं कि जब हमें नोट मिल ही नहीं रहे तो हम क्या करें। हालत यह है कि दो हफ्ते बाद भी आधे से अधिक एटीएम बंद ही नजर आते हैं। बेशक दो हफ्ते बीतते-बीतते कतारें शुरुआती दिनों के मुकाबले काफी छोटी होने लग गयीं, लेकिन अगर सारे एटीएम दो-चार दिनों के अंदर चालू कराये जा सकते तो लोगों की तकलीफें काफी कम रहतीं।
सच तो यह है कि आरबीआई ने 2 नवंबर को, यानी नोटबंदी की घोषणा से हफ्ते भर पहले ही बैंकों को एक सर्कुलर जारी कर अपने 10% एटीएम में बदलाव करने का निर्देश दिया था, ताकि उनसे केवल 100 रुपये के नोट निकलें। यह सर्कुलर स्वच्छ नोट की नीति के नाम पर भेजा गया था और इस पर 15 दिनों के भीतर अमल करने का निर्देश दिया गया था। इससे पहले भी 5 मई को जारी एक सर्कुलर में आरबीआई ने बैंकों को केवल 100 रुपये देने वाले एटीएम लगाने के लिए प्रोत्साहन के रूप में इन्हें लगाने का आधा खर्च (दो लाख रुपये तक) देने की बात कही थी। मगर नोटबंदी के बाद की स्थिति से साफ है कि न तो बैंकों ने इन निर्देशों को गंभीरता से लिया, न ही आरबीआई ने अमल करवाने पर खास ध्यान दिया। अगर आरबीआई ने स्वच्छ नोट नीति के नाम पर ही सही, यह तैयारी पहले से कर ली होती तो आम लोगों को इतनी समस्याएँ नहीं होतीं।
कम ही आयेंगे नये नोट
एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि विमुद्रीकरण के चलते पहले से प्रचलित 500 और 1000 के नोटों का कितना हिस्सा बैंकों में वापस नहीं लौटता है। जितने नोट वापस नहीं लौटेंगे, उनके बारे में समझा जायेगा कि उतना काला धन नष्ट हो गया। आरबीआई को सीधे-सीधे उतनी राशि का फायदा होगा, क्योंकि आरबीआई जो भी नोट जारी करता है, वह उसकी देनदारी है। यानी जितने अधिक नोट वापस नहीं लौटेंगे, विमुद्रीकरण उतना ही सफल माना जायेगा। मगर जीडीपी पर इसका असर ठीक उल्टा हो सकता है।
मोतीलाल ओसवाल सिक्योरिटीज ने विमुद्रीकरण के बाद जारी अपनी रिपोर्ट इंडिया स्ट्रेटेजी (21 नवंबर) में कहा है कि अगर प्रचलित मुद्रा का 10% भाग बैंकिंग प्रणाली में वापस नहीं लौटता है, तो वित्त वर्ष 2016-17 में नोमिनल जीडीपी वृद्धि दर 10% रह सकती है, जबकि विमुद्रीकरण से पहले इसका अनुमान 11.5% का था। अगर वापस नहीं लौटने वाली मुद्रा का प्रतिशत बढ़ता है, तो इसके चलते जीडीपी में और ज्यादा कमी आयेगी।
आरबीआई की ओर से 28 नवंबर को जारी आँकड़ों के मुताबिक 10 नवंबर से 27 नवंबर के दौरान, यानी 18 दिनों की अवधि में 33,948 करोड़ रुपये के नोट बदले गये और 8,11,033 करोड़ रुपये जमा किये गये। इस तरह दोनों को मिला कर कुल 8,44,982 करोड़ रुपये के पुराने नोट बैंकों के पास आ चुके हैं। साथ ही इस अवधि में लोगों ने बैंक शाखाओं या एटीएम से 2,16,617 करोड़ रुपये की निकासी की है।
आरबीआई की ओर से इससे पहले पेश आँकड़ों के मुताबिक 10 नवंबर से 18 नवंबर के बीच 9 दिनों में पुराने नोटों को जमा करने और बदलने से बैंकों के पास कुल 5,44,571 करोड़ रुपये आये थे। इसमें से जमा होने वाली राशि 5,11,565 करोड़ रुपये की और बदले गये नोटों की राशि 33,006 करोड़ रुपये की है। इसके अलावा बैंकों से इस अवधि में निकाली गयी नकद राशि 1,03,316 करोड़ रुपये की है।
वित्त राज्य मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने लोक सभा में एक लिखित उत्तर में जानकारी दी कि 8 नवंबर 2016 को विमुद्रीकरण की घोषणा होने के समय 500 रुपये के 1716.5 करोड़ नोट और 1,000 रुपये के 685.8 करोड़ नोट प्रचलन में थे। इस तरह बदले जाने वाले पुराने 500 और 1,000 के नोटों की कुल राशि 15.44 लाख करोड़ रुपये की है। यानी 18 शुरुआती दिनों में ही बदले जाने वाले नोटों का 54.7% हिस्सा बैंकों के पास आ चुका है। आकलन यह भी है कि काला धन होने के कारण 8-10% से लेकर संभवत: 25% तक पुराने नोट बैंकों में जमा ही न कराये जायें। इस आधार पर अगर यह माना जाये कि लगभग 12-13 लाख करोड़ रुपये के पुराने नोट ही वापस लौटने हैं, तो उसमें से लगभग दो-तिहाई तो केवल शुरुआती 18 दिनों में आ गये हैं।
अंत में फँसेंगे अति-सयाने लोग
कुछ जानकार भी बदइंतजामी की बात करके यह सवाल पूछ रहे हैं कि जितने पुराने नोट थे, उतने ही नये नोट पहले से छाप कर रखे क्यों नहीं रख लिये गये, ताकि लोगों को बिना परेशानी के तुरंत पर्याप्त नकदी दी जा सकती। जब इस समय नये नोटों की उपलब्धता बेहद कम है, तब भी कमीशनखोरी का खेल जारी है। अगर बाजार में नये नोटों की खुली उपलब्धता हो ही जाती, तो बाजार में ही पुराने नोटों में पड़ा काला धन नये नोटों में बदल लिया जाता।
इसलिए भले ही सरकार यह बात स्वीकार नहीं करे, लेकिन संभव है कि नये नोटों की किल्लत बनाये रखना सरकारी कार्ययोजना का ही एक हिस्सा हो। जान पड़ता है कि 30 दिसंबर की समय-सीमा तक नोटों की किल्लत बनी ही रहेगी। जनवरी के पहले हफ्ते से बैंकों को नये नोटों की खेप ज्यादा मिलने लगेगी और दूसरे हफ्ते से स्थिति सामान्य हो जायेगी।
इसलिए जो लोग कमीशन पर नोट बदल कर काला धन रखने वालों को निकलने का आसान रास्ता दे रहे हैं, वे अंत में खुद ही फँस सकते हैं। लाख दो लाख रुपये की हेराफेरी करने वालों की बात अलग है, पर जो लोग बड़े पैमाने पर ऐसा गोरखधंधा करेंगे, वे अंत में खुद को अंधेरी गली में पा सकते हैं। शुरुआती 18 दिनों के हिसाब को ही आधार बनायें तो इस दौरान बैंकों के पास 8.45 लाख करोड़ रुपये के पुराने नोट आये, जबकि नोट-बदली और निकासी के जरिये कुल 2.51 करोड़ के नोट लोगों को दिये गये। इस तरह जितने पुराने नोट बैंकों को मिले, उसकी तुलना में केवल 30% ही नये नोट लोगों के पास आये।
अगर 12-13 लाख करोड़ रुपये के पुराने नोट ही जमा कराये जाते हैं और नये नोट लोगों के पास आने का अनुपात इसी तरह बना रहता है, तो 30 दिसंबर तक लगभग 5-6 लाख करोड़ रुपये तक के ही नये नोट लोगों के पास आयेंगे। यानी पुराने नोटों की अधिकांश मात्रा को बैंकिंग व्यवस्था की ही शरण लेनी पड़ेगी। काला धन खपाने के लिए इधर-उधर के जुगाड़ छोटे-मोटे स्तर पर ही चल पायेंगे। साथ में डर यह भी रहेगा कि ऐसे तमाम जुगाड़ों पर सरकार की नजर रहेगी। मगर जिन लोगों के पास करोड़ों में काला धन हो, उनके पास अब विकल्प बहुत सीमित हैं। ऐसे में जो लोग अपने नोट बैंक में जमा करने की हालत में नहीं होंगे, वे सच में अपने पुराने नोटों का अधिकांश हिस्सा रद्दी कागज में बदलता देखेंगे। 30 दिसंबर तक इतने नये नोट बाजार में नहीं आने वाले कि काला धन रखने वाले लोग अपने सारे पुराने नोट कमीशन पर बदलवा सकें। ऐसे लोगों के लिए शायद बेहतर यही है कि वे अपने सीए से बात करें और बैंक में पैसे जमा कर आयकर विभाग को खुद इसकी जानकारी दें।
विमुद्रीकरण विफल होने का खतरा कितना
विमुद्रीकरण या डिमॉनेटाइजेशन की योजना पहले भी कई देशों में अपनायी जा चुकी है और कई बार असफल भी हुई है। लेकिन ऐसे देशों की परिस्थितियाँ भारत से काफी अलग रही हैं। मिसाल के तौर पर सोवियत संघ ने जनवरी 1991 में राष्ट्रपति मिखाइल गोर्वाचेव के नेतृत्व में 50 और 100 रूबल के नोटों का चलन खत्म किया था। तब सोवियत संघ ने भी यह कदम काले धन पर अंकुश के लिए ही उठाया था। सोवियत संघ में इस कदम से राजनीतिक प्रतिरोध बढ़ गया। ढहती अर्थव्यवस्था के बीच अगले साल सोवियत संघ का विघटन ही हो गया था। हालाँकि यह कहा जा सकता है कि सोवियत संघ पहले ही आर्थिक रूप से बेहद कमजोर हो चुका था और विघटन के बीज भी पहले ही पड़ चुके थे, जिसके चलते विमुद्रीकरण की दवा ने कोई असर नहीं किया।
इसी तरह 1984 में नाइजीरिया में मुहम्मदू बुहारी की सैन्य सरकार ने पुराने नोटों को बदल कर नये नोट जारी किये थे। लेकिन महँगाई और ऋण के जबरदस्त बोझ के तले दबी अर्थव्यवस्था को यह कदम उबार नहीं पाया और अगले साल एक सैन्य विद्रोह में बुहारी को अपदस्थ कर दिया गया।
घाना में 1982 में जब विमुद्रीकरण किया गया तो वहाँ विदेशी मुद्राओं का काला बाजार पनप गया। लोगों ने अपने देश की मुद्रा पर भरोसा करना बंद कर विदेशी मुद्रा जमा करना शुरू कर दिया। 1987 में म्यांमार में सैन्य शासन ने विमुद्रीकरण किया तो पहले से संकट में पड़ी अर्थव्यवस्था के बीच इस कदम के चलते आम लोगों का विरोध प्रदर्शन और तीखा हो गया।
हाल में 2010 में उत्तरी कोरिया में किम जोंग 2 की सरकार ने पुरानी मुद्रा का मूल्य सीधे एक प्रतिशत कर दिया, यानी 100 के बदले केवल एक। मगर इस कदम के तुरंत बाद कमजोर फसल होने से देश में खाद्यान्न संकट पैदा हो गया और अनाज की कीमतें काफी बढ़ गयीं। बताया जाता है कि किम ने जनता से माफी माँगी और वित्त मंत्री को फाँसी दे दी।
पर इन घटनाओं से किसी आफत की कल्पना न कर लें। खुद भारत में इससे पहले दो बार विमुद्रीकरण हो चुका है। आजादी से पहले भी जनवरी 1946 में 1,000 और 10,000 रुपये के नोटों को वापस लिया गया था, हालाँकि 1954 में फिर से 1,000, 5,000 और 10,000 रुपये के नये नोट लाये गये।
इसके बाद केंद्र में मोरारजी देसाई की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार ने 16 जनवरी 1978 को विमुद्रीकरण की घोषणा की थी। लेकिन उस समय और आज की परिस्थितियों में काफी अंतर है। तब 1,000, 5,000 और 10,000 रुपये के नोटों को रद्द किया गया था, जो उस समय के लिहाज से काफी ऊँचे मूल्य के थे।
उस समय भी काला धन रखने वालों द्वारा पैसे देकर एजेंटों के माध्यम से नोट बदलवाये जाने की बातें हुई थीं। हालाँकि आम लोगों के पास ये नोट थे ही नहीं और जनजीवन पर इसका कोई असर देखने को नहीं मिला था। यहाँ तक कि अधिकांश बैंक शाखाओं के पास भी ऐसे नोट नहीं थे। अधिकांश लोगों को इस बारे में पता भी नहीं चला।
मगर इस समय 500 और 1,000 के नोट आम चलन में रहे हैं और यहाँ तक कि आरबीआई की ओर से जारी कुल मुद्रा का 86% हिस्सा (मूल्य के आधार पर) इन्हीं नोटों में था। लिहाजा इस नोटबंदी का पूरे देश के जनजीवन पर व्यापक असर होना ही था। लेकिन तीन हफ्ते से अधिक गुजर जाने के बाद भी स्थिति ऐसी नहीं है, जिसे कुछ नेताओं ने आर्थिक आपातकाल की संज्ञा दे दी।
इसलिए यह विमुद्रीकरण विफल होगा, इसकी आशंका तो नहीं बनती है, पर विकास दर धीमी होने की आशंकाएँ अवश्य जतायी गयी हैं। 1971 में ब्रिटेन में पाउंड का दशमलवीकरण (डेसिमलाइजेशन) किया गया था। इसी तरह 2002 में तमाम यूरोपीय देशों में उनकी संबंधित मुद्राओं को समाप्त कर उन सभी देशों में यूरो की शुरुआत की गयी थी। ये दोनों ही अभियान काफी सहजता से पूरे हुए थे।
नोटबंदी का आसान गणित
14.18 लाख करोड़ रुपये कितने होते हैं? मुश्किल है समझना। इसलिए छोटी राशि की बात करते हैं। कम लोगों की बात करते हैं। बस किस्सा समझें, खेल को जानें।
एक व्यक्ति के पास एक करोड़ रुपये हैं।
1000 लोगों के पास औसतन 50,000 रुपये हैं।
एक करोड़ रुपये वाले की काली कमाई है, 50,000 वालों ने मेहनत से जुटाये हैं।
सरकार एक करोड़ रुपये वाले से पैसे निकलवाना चाहती है। उसने नोटबंदी कर दी।
50,000 वाले परेशान हैं, लाइन में लगे हैं, पूछ रहे हैं कि मेरी मेहनत का पैसा मैं क्यों नहीं खर्च कर सकता।
एक करोड़ वाला जुगाड़ में लगा है कि अब ये नोट कैसे खपाऊँ।
अगर सरकार 50,000 रुपये वाले 1000 लोगों को उनका पूरा पैसा बदल कर दे दे, तो उन सबके पास कुल पाँच करोड़ रुपये आ जायेंगे।
एक करोड़ रुपये वाला बैंक में जाने के बदले इन्हीं लोगों के पास जायेगा, 10-20-30% कमीशन दे कर अपने नोट बदल लेगा और कमीशन पर बहुत छोटी राशि के पुराने नोट लेने वाले लोग फिर से बैंक के पास जा कर नये नोट माँग लेंगे।
इसलिए सरकार ने 50,000 वालों पर भी सीमा लगा दी। एक व्यक्ति को केवल 2000 के नये नोट देने की बात कह दी। अब कुल 20 लाख रुपये के ही नये नोट बाजार में आयेंगे। अगर एक करोड़ रुपये वाला कमीशन पर बदलवा भी लेगा तो इस तरह कितने बदलवा सकेगा, शायद 10 लाख के। पर उसका ज्यादातर पैसा फँसा रहेगा। उसे मजबूरन बैंक के पास ही जाना पड़ेगा, या अपने नोट रद्दी बनते देखना होगा।
अब ये जो 50,000 रुपये वाले लोग हैं, उन्हें इस नियम से तकलीफ नहीं होगी क्या? बिल्कुल होगी। कुछ विशेष स्थितियों वाले लोगों को बहुत ज्यादा परेशानी भी हो सकती है। लेकिन अगर उस एक करोड़ वाले को सामने लाना है, उसके पैसे निकलवाने हैं, तो परेशानी के इस समय को किसी तरह गुजारना होगा। जो लोग परेशानी में हैं, उनका ख्याल सबको मिल कर रखना होगा। समाज की ताकत बहुत बड़ी होती है, सरकार से भी ज्यादा। जहाँ सरकार नहीं पहुँच सकती, वहाँ समाज पहुँच सकता है। परेशान तो सभी हैं, पर जो लोग ज्यादा परेशान हैं, उनकी सब मिल कर मदद करें।
(निवेश मंथन, दिसंबर 2016)