राजीव रंजन झा :
दशहरा, दीपावली, छठ जैसे त्योहारों के मौकों पर दिल्ली से बिहार जाने वाली ट्रेनों में भीड़ की कल्पना वही कर सकता है, जिसने उस दृश्य को देखा हो। अतीत में ऐसे कई मौकों पर भगदड़ के चलते हादसे भी हो चुके हैं। आरक्षण मिलना वरदान पूरा होने जैसा ही होता है, चाहे स्लीपर हो या एसी प्रथम श्रेणी। मगर इस बार ऐसी खबरें देखने को मिलीं कि एसी श्रेणियों में कुछ सीटें खाली भी रहीं।
दिल्ली-चंडीगढ़ जैसे व्यस्त मार्गों पर शताब्दी की सीटें खाली रह जा रही हैं। यह करिश्मा रेलवे की क्षमता बढऩे का नहीं, बल्कि सर्ज प्राइसिंग का नतीजा है। अदालतें उबेर, ओला वगैरह को सर्ज प्राइस के लिए फटकार लगाती हैं, मगर सुरेश प्रभु ने इसे रेलवे में आजमाया है। लेकिन यह कैसी समझदारी वाला बिजनेस मॉडल है कि भले सीटें खाली रह जायें, पर टिकट महँगा रहे? हवाई-सेवाओं ने अरसा पहले यह समझ लिया था कि किराये घटा कर सीटें भर लेने में समझदारी है। अब रेलवे इसका उल्टा मॉडल अपना रहा है।
सुरेश प्रभु काबिल हैं, ईमानदार हैं, समय के पाबंद हैं, कर्मठ हैं, जिद्दी भी लगते हैं। चलती रेल में भी उनके ट्वीटर खाते का जलवा रहता है। पर अफसोस कि उन्हें रेलवे की अर्थव्यवस्था को सँभालने का एकमात्र रास्ता शायद यात्रियों की जेब से निकलता दिखाई देता है। जिस देश में प्रति यात्री औसत लागत के तमाम पैमानों को पलटते हुए रेलवे का सामान्य टिकट बस से महँगा हो, थर्ड एसी से चलने के बदले अपनी कार में जाना सस्ता लगता हो और सेकेंड एसी से सस्ता हवाई जहाज हो, वहाँ सुरेश प्रभु हर बार यात्री किराये को बढ़ा कर रेलवे की आमदनी बढ़ाने के बदले दूसरे रास्ते निकालें तो उनके बाकी सारे काम उन्हें सर्वश्रेष्ठ रेल मंत्रियों की कतार में खड़ा कर सकते हैं। लेकिन इसके विपरीत रेलवे की सोच इस बात से झलकती है कि जब आप रेलवे का ऑनलाइन टिकट लें तो अब उसमें लिखा आने लगा है कि रेलवे अपने यात्रियों से लागत का 57% किराया ही वसूल कर पाता है।
कार, हवाई जहाज से महँगी रेल
छोटी दूरी में लोग कार पसंद कर रहे हैं, लंबी दूरी में हवाई जहाज। बड़ी दूरी के लिए ट्रेन के एसी क्लास का किराया हवाई जहाज के किराये से प्रतिस्पर्धा कर रहा है। दुनिया में शायद ही कोई रेलवे ऐसे घटिया परिचालन के साथ इतना महँगा होगा। सर्ज प्राइसिंग लागू होने के बाद लंबी दूरी में भी कार सस्ती लगने लगी है। बात बिजनेस मॉडल की है। एक ट्रेन की प्रति व्यक्ति परिचालन लागत हर हाल में कार तुलना में काफी कम होनी चाहिए। एक कार और एक बस में प्रति व्यक्ति लागत किसकी कम होगी? जाहिर है कि बस की लागत कम होगी। बस से भी कम लागत ट्रेन की होगी।
लेकिन अगर ट्रेन के सबसे साधारण टिकट का पैसा भी कार की प्रति व्यक्ति लागत के लगभग बराबर हो तो क्या यह अपने-आप में स्पष्ट नहीं है कि रेलवे को अपने परिचालन पर जितना खर्च करना चाहिए था, उससे बहुत ज्यादा खर्च कर रही है? यह खराब, गड़बड़ बिजनेस मॉडल नहीं है तो और क्या है? आर्थिक पत्रकार अनिल सिंह ध्यान दिलाते हैं कि वैसे भी जिन जनरल डिब्बों की क्षमता 100 की होती है, उनमें 300 लोग ठँस कर जाते हैं, जिससे रेल को उस डिब्बे से बिना दाम बढाये तीन गुना किराया मिल जाता है। वे कहते हैं कि सारा लोच रेल के तंत्र में है, जिसे दुरुस्त कर लिया जाये तो उसे जबरदस्त मुनाफा होने लगेगा।
भारतीय रेलवे का सस्ता होना बस एक मिथक है। लगभग पाँच घंटे तक की यात्रा का कोई भी उदाहरण ले लीजिए और खुद आईआरसीटीसी की वेबसाइट पर किराये देख लीजिए। अगर अकेले भी जाना हो तो मेरठ जाने में कार में 300 रुपये का पेट्रोल जलेगा, जबकि ट्रेन में एसी चेयरकार का 320 रुपये का टिकट लगेगा। डायनामिक फेयर के नाम पर वसूली जाने वाली सर्ज प्राइसिंग से ट्रेन टिकट 450-500 रुपये का भी हो सकता है।
कार से कोई व्यक्ति सीधे अपने गंतव्य पर पहुँच सकेगा, जबकि ट्रेन से जाने के लिए पहले घंटा भर लगा कर स्टेशन जाना होगा, यानी स्टेशन जाने के लिए भी अलग खर्च होगा, और फिर वहाँ के स्टेशन से अपने गंतव्य तक जाने पर भी। स्टेशन जाने और स्टेशन से गंतव्य तक जाने के लिए टैक्सी करनी होगी या सार्वजनिक परिवहन में धक्के खाने पड़ेंगे, क्योंकि सार्वजनिक परिवहन जब दिल्ली में ही दुरुस्त नहीं है फिर मेरठ या आगरा या जयपुर में क्या होगा?
चाहे छोटी दूरी हो या लंबी दूरी, कार से जाने का एक बड़ा आकर्षण यह भी होता है कि गंतव्य पर पहुँचने के बाद आपके पास अपना वाहन लगातार मौजूद रहता है। सुधीर दीक्षित कहते हैं, कार आपको पूरा मेरठ घूमा सकती है, ट्रेन घुमाती है क्या प्रभु?
लंबी दूरी के लिए भी ट्रेनें महँगी
ऐसा नहीं है कि अब केवल छोटी दूरी के लिए ही रेलवे महँगा हो चला है। दिल्ली से पटना-मुजफ्फरपुर आदि का उदाहरण लें। दीपावली-छठ के अवसर पर डायनामिक फेयर के तहत प्रीमियम ट्रेन में एसी-3 का ही किराया करीब 5,000 रुपये और एसी-2 का 5,500 से भी ज्यादा हो गया। सड़क के रास्ते दिल्ली से पटना करीब 1,050 किलोमीटर दूर है। अगर 15 किलोमीटर प्रति लीटर का भी औसत बैठे तो 5,000 रुपये से कम में ही कार पहुँच जायेगी पटना! यानी ट्रेन के एक टिकट जितने खर्च में ही कार में चार-पाँच लोग यात्रा कर सकते हैं।
कुछ लोग कह सकते हैं कि एक बहुत बड़ा वर्ग है, जिसे कार की सुविधा हासिल नहीं है और उसके लिए रेलवे से सस्ता और अच्छा विकल्प नहीं है। पर यहाँ बात तुलनात्मक लागत की है। यह तो विकल्पहीनता का फायदा उठा कर ज्यादा वसूली करने का मामला है। साधारण टिकट भी और सस्ता होना चाहिए था और उसके बाद भी रेलवे को फायदे में होना चाहिए था।
पहले तत्काल टिकट के नाम पर रेलवे ने उन यात्रियों की मजबूरी का फायदा उठाने की कोशिश की, जिन्हें अचानक किसी यात्रा पर निकलना पड़ता है। पहले ऐसे यात्री एजेंटों के चंगुल में फँसते थे। रेलवे ने यात्रियों को एजेंटों के मकडज़ाल से मुक्ति दिलाने के बदले ऐसी नीति बनायी कि एजेंटों के पास जाने वाला पैसा उसके ही खाते में आ जाये। फिर सुविधा और प्रीमियम ट्रेनों के नाम पर ऊँचा किराया वसूलने की नीति बन गयी।
यह सब इस दल या उस दल का मामला नहीं है। पहले यूपीए सरकार ऐसी नीति पर चलती रही और अब एनडीए सरकार वही कर रही है। कुमार गंधर्व कहते हैं कि ‘सुविधा ट्रेनों में 2013 से इसी तरह के किराये हैं। मैंने तब एक तरफ की यात्रा के लिए 4,800 रुपये चुकाये थे। इसमें कुछ नया नहीं है।‘ राज कुमार झा अपना अनुभव बताते हैं कि मुंबई से प्रीमियम (सुविधा) ट्रेन का एसी-2 का किराया 9,000 रुपये से ज्यादा था। इन ट्रेनों में टिकट रद्द कराने पर भी भारी नुकसान है।
स्वाभाविक है कि अगर दिल्ली-पटना के लिए एसी-3 का किराया भी डायनामिक फेयर के तहत अगर 5,000 रुपये तक चला जाये, तो काफी लोग इसके बदले विमान से सफर कर लेना पसंद करेंगे। विमान का किराया करीब उतना ही, या शायद सस्ता ही पड़ जाये। वहीं कार से लंबी दूरी की यात्रा को लोग थकाऊ और असुरक्षित मान कर इससे बचते हैं। मगर काफी लोग अब इस विकल्प को भी चुनने लगे हैं।
हालाँकि ऐसी यात्रा में बीच में रुकने की जरूरत पड़ती है। एनडीटीवी के संवाददाता उमा शंकर सिंह बताते हैं, ‘मैं 2008, 2010 और 2014 में दिल्ली-पटना-मधुबनी तक कार से जा चुका हूँ। शौकिया तौर पर। रात को लखनऊ या किसी बीच की जगह रुकने का होटल का ख़र्च भी हुआ।‘ प्रभात खबर के राजेंद्र तिवारी कहते हैं कि हमने तो कितनी बार 1000-1200 किमी के लिए कार इस्तेमाल की है।
अभिषेक चौहान जिक्र करते हैं कि उन्होंने दिल्ली से देवघर चार बार कार से परिवार के साथ यात्रा की। वे इस तरह यात्रा करने को बहुत पसंद करने लगे हैं। निर्मल कुमार अपना व्यक्तिगत अनुभव बताते हैं कि ‘अगर चलाने वाले दो या ज्यादा हों तो कार से यात्रा मजेदार, अन्यथा थकाऊ। दिल्ली से चलें और कानपुर में रात्रि विश्राम करें, फिर सुबह नास्ता-पानी कर बनारस में भोजन उसके बाद सासाराम के रास्ते शाम तक पटना आ सकते हैं।‘
पत्रकार हर्षवर्धन त्रिपाठी दिल्ली से इलाहाबाद तक 650 किलोमीटर की यात्रा जाने कितनी बार कर चुके हैं और उन्हें यह यात्रा कोई मुश्किल नहीं लगती। विनोद भास्कर कहते हैं, ‘मेरी उम्र 60 से ऊपर है। मैं मुंबई से गोंदिया, जो लगभग 1000 किलोमीटर है, खुद चलाते हुए कई बार गया हूँ, एक बार तो सिर्फ इसलिए कि (रेल) आरक्षण नहीं मिल रहा था।‘
रेलवे माल ढुलाई में सड़क मार्ग को अपना बहुत सारा बाजार सौंप चुका है। यात्री ट्रेनों में उच्च श्रेणियाँ ही उसकी दुधारू गायें हैं, जिन्होंने अब लात मारना शुरू कर दिया है।
(निवेश मंथन, नवंबर 2016)