अगर अमेरिकी राष्ट्रपति को चुनने के लिए अमेरिका के बदले बाकी दुनिया के लोगों को मतदान करना होता, तो शायद बराक ओबामा कहीं ज्यादा बड़े बहुमत से या एकदम इकतरफा ढंग से जीत जाते।
हालाँकि लोकप्रिय भावनाओं और शेयर बाजार के नफा-नुकसान के बीच भी एक फर्क दिखा। भारत में जहाँ लोग दिल से ओबामा के साथ दिखे, वहीं शेयर बाजार के नजरिये से अंदेशा बना रहा कि ओबामा का जीतना कहीं वैश्विक शेयर बाजारों के लिए घाटे का सौदा न बन जाये। रोम्नी को शेयर बाजार में तेजी के लिए ज्यादा उपयुक्त समझा जाता रहा।
लेकिन बुधवार सात नवंबर को चुनावी नतीजों के बाद भारतीय शेयर बाजार ने हल्की मजबूती ही दिखायी। अमेरिकी और यूरोपीय बाजारों में उस दिन पहले तो घबराहट नहीं दिखी, कुछ समय बाद जरूर डॉव जोंस फिसलने लगा और अंत में 300 अंक से ज्यादा के नुकसान पर रहा। पर इस बड़ी गिरावट में एक बड़ा योगदान यूरोप से आने वाली नकारात्मक खबरों का भी रहा।
भारत पर इन चुनावी नतीजों का क्या असर होगा, इस बारे में आईडीएफसी सिक्योरिटीज के एमडी निखिल वोरा का कहना है कि ओबामा और रोम्नी दोनों में से चाहे जो भी जीतते, भारत और अमेरिकी के समीकरणों में कोई खास अंतर नहीं आता। निखिल इन चुनावों को भारतीय शेयर बाजार पर कोई बड़ा असर डालने वाली घटना नहीं मानते।
दरअसल भारत पर इस चुनावी नतीजे का सीधा असर पडऩे के बदले असर इस रूप में आयेगा कि अमेरिका की आर्थिक स्थिति सुधरने-बिगडऩे का असर सारी दुनिया पर होता है। एक प्रमुख बाजार विश्लेषक ने कहा, बधाई देने के साथ मैं ओबामा को यही कहना चाहूँगा कि आप दुनिया की फिक्र छोड़ कर अपने अमेरिका को सँभाल लें तो बड़ी मेहरबानी होगी!
निवेश सलाहकार गुल टेकचंदानी कहते हैं कि ओबामा की जीत निरंतरता और ज्यादा उदार लोकतांत्रिक समाज के पक्ष में किया गया मतदान है। ओबामा को अपनी दूसरी पारी में न केवल फिस्कल क्लिफ को सँभालना है, बल्कि यह भी देखना है कि उनकी अर्थव्यवस्था बढऩे की रफ्तार कैसे सुधरेगी। ऐसा होने पर विश्व अर्थव्यवस्था को भी मदद मिलेगी। फुलर्टन सिक्योरिटीज के रजनीश कुमार के मुताबिक वैश्विक बाजारों ने शायद इस बात से राहत महसूस की कि अमेरिका में जो भी नीतियाँ हैं, वे चलती रहेंगी। कोई नीति पलटेगी नहीं और कोई चौंकाने वाली बात अचानक नहीं आयेगी।
डेस्टिमनी सिक्योरिटीज के एमडी सुदीप बंद्योपाध्याय ओबामा की जीत को भारतीय बाजार के लिए सकारात्मक ही मानते हैं। उनका कहना है, %ओबामा क्वांटिटेटिव ईजिंग के समर्थन में रहे हैं, जिससे बाजार में नकदी बढ़ती है और वह भारत जैसे उभरते बाजार में भी आती है। रोम्नी जरूर व्यापार जगत की पृष्ठभूमि रखते हैं, लेकिन वे क्वांटिटेटिव ईजिंग के बिल्कुल खिलाफ थे। अगर उनके आने से क्वांटिटेटिव ईजिंग रुकने पर नकदी घटती तो इससे संकट हो सकता था।%
ओबामा ने प्रचार अभियान में अमेरिका में रोजगार बढ़ाने के लिए आउटसोर्सिंग पर लगाम कसने की बातें कही थीं। पर निखिल उसे केवल चुनावी प्रचार मानते हैं। सुदीप भी कहते हैं कि %ओबामा के बीते चार सालों के कार्यकाल में भारतीय आईटी कंपनियाँ इस बारे में परिपक्व हो चुकी हैं। मुझे नहीं लगता कि उनके लिए इस बारे में कोई बड़ी चिंता की बात है।% रजनीश की राय में भी ओबामा आईटी क्षेत्र और आउटसोर्सिंग के बारे में रोम्नी से बेहतर ही हैं। रोम्नी की नीतियाँ अमेरिका पर ज्यादा केंद्रित होतीं।
भारतीय उद्योग जगत के ज्यादातर प्रमुख नामों ने ओबामा की ओर ही अपना झुकाव दिखाया और इसे भारत के लिए सकारात्मक माना। लोग इस बात को लेकर भी आश्वस्त महसूस करते हैं कि बीते चार सालों में ओबामा प्रशासन के साथ भारत के संबंधों में आखिरकार एक ठीक-ठाक स्थिरता आ गयी है। लोगों के मन में कहीं-न-कहीं यह सब बातें भी हैं। अगर कोई नया प्रशासन आता तो वह नये सिरे से संबंधों को शुरू करता। उससे संबंध कैसे बनते इसके बारे में कुछ पता नहीं होता।
चुनाव निपटने के बाद बाजार में एक बड़ी चिंता यह है कि फिस्कल क्लिफ का समाधान कैसे निकलेगा, जो इसी साल के अंत में आता दिख रहा है। साल 2012 का अंत होते ही अमेरिका में नये कर लागू होने और सरकारी खर्चों में कटौती होने से कुल 600 अरब डॉलर का असर पडऩे का अंदेशा है। अचानक होने वाले इस बदलाव को ही फिस्कल क्लिफ कहा जा रहा है। इसका अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर काफी गंभीर असर हो सकता है।
ओबामा के सामने इस चुनौती से निपटने के लिए अब गिने-चुने हफ्ते बाकी हैं। शायद इस बात को ध्यान में रख कर ही उन्होंने चुनाव जीतने के तुरंत बाद इस बारे में अपने चुनावी प्रतिस्पर्धी रोम्नी से मदद माँगी। ओबामा की नीति अमीरों पर ज्यादा कर लगाये जाने की है। लेकिन उम्मीद की जा रही है कि चुनाव निपट जाने के बाद दोनों पक्ष अपना-अपना रुख कुछ लचीला करेंगे जिससे समाधान निकल सके। जानकार मान रहे हैं कि समझौते के लिए संभवत: एक तरफ सरकारी खर्चों में भी कुछ कमी होगी और दूसरी तरफ करों का बोझ भी कुछ बढ़ेगा।
अब प्रश्न यह है कि अपनी दूसरी पारी में ओबामा पहली पारी की ही नीतियों को आगे बढ़ायेंगे या पहले से कुछ अलग चलेंगे? एक नजरिया यह हो सकता है कि उनके सामने अब एक और चुनाव जीतने का दबाव नहीं है। इसलिए वे दबावमुक्त हो कर पहले से कुछ अलग रवैया भी अपना सकते हैं। दूसरा नजरिया यह है कि शायद वे दोबारा चुने जाने को अपनी नीतियों पर जनता की मुहर लगने के तौर पर लें और उन्हीं नीतियों को जोर-शोर से आगे बढ़ायें। दोनों में कौन-सी बात सही साबित होगी, यह तो आने वाले महीनों में ही स्पष्ट हो पायेगा।
(निवेश मंथन, नवंबर 2012)