ओएनजीसी विनिवेश :
अखबार की एक खबर बता रही है कि ओएनजीसी के 42.78 करोड़ सरकारी शेयरों की नीलामी में से 40 करोड़ शेयर अकेले भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) के खाते में गये हैं। कुछ अन्य खबरों के मुताबिक एक मार्च को 3.30 बजे नीलामी खत्म होने के समय कुल 29.22 करोड़ शेयरों की बोलियाँ आयी थीं, लेकिन अंत में कुल 42.78 करोड़ शेयरों में से 42.04 करोड़ शेयरों की बोलियाँ लगीं। इन खबरों में कहा गया कि एलआईसी के साथ-साथ एसबीआई ने भी इस नीलामी में शेयरों का बड़ा हिस्सा उठाया, हालाँकि कुछ अपुष्ट अटकलों में कहा गया कि एसबीआई ने अपनी बोलियाँ बाद में वापस ले लीं।
खैर, इस नीलामी से सरकार 12,000 करोड़ रुपये से ज्यादा की रकम हासिल करने की उम्मीद कर रही थी। यह उम्मीद पूरी तो हो गयी है। वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने नीलामी के बाद कहा कि इससे 12,666 करोड़ रुपये मिले हैं। अब यह बात और है कि इस रकम का ज्यादातर हिस्सा एलआईसी और एसबीआई की थैली से निकलने के चलते इसे सरकार के एक हाथ से दूसरे हाथ में पैसा जाना भी कहा जा सकता है।
लेकिन यह बात पूरी तरह ठीक नहीं है। एलआईसी और एसबीआई की नकदी को केवल सरकार का पैसा कैसे कहा जा सकता है? उसमें आम निवेशकों का पैसा भी है। एलआईसी के पास पड़ी नकदी भारत सरकार की संचित निधि नहीं है। वह करोड़ों बीमाधारकों के भविष्य की सुरक्षा करने वाली नकदी है। एसबीआई में सरकार की बहुमत हिस्सेदारी का मतलब यह नहीं है कि अल्पमत शेयरधारकों और खाताधारकों की परवाह किये बिना बैंक की नकदी का वह मनचाहा इस्तेमाल करे।
यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि इस नीलामी में इतनी बड़ी हिस्सेदारी करना एलआईसी और एसबीआई का व्यावसायिक फैसला नहीं होगा, बल्कि सरकारी आदेश पर अमल की मजबूरी रही होगी। एक प्रमुख अखबार के मुताबिक एलआईसी को छोड़ दें तो 12,000 करोड़ रुपये से ज्यादा की इस नीलामी में केवल 400 करोड़ रुपये की ही बोलियाँ बाकी निवेशकों से मिल रही थीं। ऐसे में सरकार के सामने दो ही विकल्प थे। या तो वह इस नीलामी को नाकाम हो जाने देती, या फिर एलआईसी जैसी सरकारी नियंत्रण वाली संस्थाओं की जेब खाली करती।
कहा जा रहा है कि अगर सरकार ने बोली की न्यूमतम सीमा 290 रुपये के बदले कुछ कम रखी होती तो निवेशकों की दिलचस्पी ज्यादा होती। बेशक तब उनकी दिलचस्पी कुछ ज्यादा होती, लेकिन निवेशकों के फीके उत्साह की यही अकेली वजह नहीं है। मैंने 29 फरवरी को शेयर मंथन में अपने लेख में यह सवाल रखा था कि सिवाय इस बात के कि ओएनजीसी में हिस्सेदारी बेचने से सरकार को अपना घाटा कम करने में कुछ मदद मिल जायेगी, इस विनिवेश से और क्या बदलने वाला है? क्या इससे ओएनजीसी के कामकाज में कोई बदलाव होगा? क्या इसके प्रबंधन को कुछ खुल कर काम करने की आजादी मिलेगी? क्या इससे पेट्रोलियम क्षेत्र के बारे में वे सरकारी नीतियाँ बदलेंगी, जिन्होंने न केवल ओएनजीसी बल्कि पूरे तेल-गैस क्षेत्र को भयानक जकडऩ में बाँध रखा है?
इसके अलावा विनिवेश पर मौजूदा सरकार की नीति बड़ी कामचलाऊ किस्म की है। यह न तो इस पार न उस पार वाली नीति है। सरकार के पास ओएनजीसी की 74.14% हिस्सेदारी है। अभी 5% हिस्सेदारी बेचने से कंपनी पर इसके नियंत्रण में कोई फर्क नहीं पडऩे वाला। लेकिन जरा सोचें कि यह हिस्सेदारी बेच कर सरकार अपने खर्चों का बोझ ही तो कम करना चाहती है। क्या यह घर का सोना-चाँदी बेच कर रोजमर्रा के खर्चे चलाना से अलग किस्सा है? सरकार ने पहले इरादा जताया था कि वह विनिवेश से मिलने वाली रकम केवल उत्पादक कामों में लगायेगी और खास सरकारी कंपनियों में नयी जान डालने के मकसद से एक विशेष कोष में जमा करेगी। लेकिन अब विनिवेश का एकमात्र मकसद सरकारी घाटे को किसी तरह पाट पाना रह गया है।
इस नीलामी में निवेशकों की रुचि कम रहने की वजहें इन्हीं सवालों में शामिल हैं। बाजार में नकदी की कमी नहीं है, यह बात हमने बीते 2 महीनों में बखूबी देखी है। एमसीएक्स के आईपीओ में 54 गुना आवेदन आते भी देखा है। लेकिन अभी यह कुछ भी और किसी भी भाव पर बिक जाने वाला बाजार नहीं बना है। यह बात थोड़ा आश्वस्त ही करती है और बताती है कि हम अति-उत्साह के ऐसे दौर में नहीं आ गये, जहाँ खतरे की घंटी बजानी पड़े।
खैर, ओएनजीसी विनिवेश में बाजार को अचानक नयी उम्मीदें दिखने लगी हैं। ये उम्मीदें खास कर सरकारी खजाने से जुड़ी हैं। पिछले साल बजट में वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने 40,000 करोड़ रुपये के विनिवेश का लक्ष्य रखा था। कारोबारी साल पूरा होने को है और ओएनजीसी के शेयरों की नीलामी से पहले सरकार की झोली में विनिवेश से कुल जमा 1,145 करोड़ रुपये ही आये थे - पावर फाइनेंस कॉर्पोरेशन के इकलौते एफपीओ की बदौलत। बाजार ने तो उम्मीद ही छोड़ दी थी कि इस कारोबारी साल में विनिवेश के जरिये सरकारी खजाने में कुछ खास पैसा आ पायेगा, लक्ष्य पूरा कर पाना तो दूर की बात रही।
खैर, ओएनजीसी के शेयरों की नीलामी से 12,६६६ करोड़ रुपये की रकम सरकारी खजाने में आ गयी। यह बजट से ठीक पहले केंद्र सरकार को मिली बड़ी राहत है। इससे सरकारी घाटा कम करने में बड़ी मदद मिलेगी। साथ ही अगले साल के लिए विनिवेश का बड़ा लक्ष्य रखने में भी परेशानी नहीं होगी। वरना अगर इस साल 40,000 करोड़ रुपये के लक्ष्य की तुलना में केवल 1,145 करोड़ रुपये का आँकड़ा दिखता तो वित्त मंत्री भला क्या कह कर कोई बड़ा लक्ष्य 2012-13 के बजट में देते! एसोचैम ने तो बाकायदा कह दिया है कि सरकार को अगले साल के लिए 70,000 करोड़ रुपये के विनिवेश का लक्ष्य रखना चाहिए।
(निवेश मंथन, मार्च 2012)