अभीक बरुआ, मुख्य अर्थशास्त्री, एचडीएफसी बैंक :
पिछले साल की पहली तिमाही में अर्थव्यवस्था की विकास दर 8% थी और यह अब घट कर 5.5% पर आ गयी है। निश्चित रूप से हमारी अर्थव्यवस्था धीमी पड़ रही है। मेरा मानना है कि कारोबारी साल 2012-13 के अंत तक हमारी विकास दर 5.5% या इससे थोड़ी अधिक रह सकती है। पिछले साल के औसत स्तर से इस साल हमारी विकास दर नीची ही रहेगी।
पिछली तिमाही में हमारी विकास दर 5.5% रही है। लेकिन मैं इस बारे में बहुत आश्वस्त नहीं हूँ कि हमने विकास दर का सबसे निचला स्तर देख लिया है। खराब मानसून का असर हमें तीसरी तिमाही के आँकड़ों में दिखेगा। हम उस दौरान और निचली विकास दर देख सकते हैं। मगर जहाँ तक इस साल का सवाल है, हम निचले स्तरों के काफी नजदीक हैं। दरअसल इस साल के दूसरे हिस्से में विकास दर का बेस इफेक्ट भी हमारे अनुकूल होगा, क्योंकि पिछले साल के दूसरे हिस्से में विकास दर के आँकड़े खराब रहे थे।। यह बात इस साल विकास दर को कुछ ऊपर खींचेगी। इस साल तीसरी तिमाही में विकास दर पर खराब मानसून का असर पड़ेगा, लेकिन दूसरी ओर पिछले साल की समान तिमाही कमजोर रहने (बेस इफेक्ट) का गणितीय लाभ भी मिलेगा।
कुल मिला कर हमारी अर्थव्यवस्था धीमी पड़ी है और यह धीमापन जारी रहने की संभावना है। साल 2012-13 में अर्थव्यवस्था की विकास दर 5.5% के आसपास रह सकती है। यहाँ चिन्ताजनक बात यह है कि निवेश में बढ़ोतरी नहीं हो पा रही है और इस बात के भी कोई संकेत नहीं हैं कि इसमें बढ़ोतरी आने वाली है। दूसरी ओर उपभोग पर होने वाले व्यय में भी कमी के कुछ संकेत दिख रहे हैं। इन दोनों को मिला कर देखें तो यह कहा जा सकता है कि अगले दो से तीन सालों में हमारी अर्थव्यवस्था की विकास दर काफी कम रह सकती है। यह शायद 5.5% से ज्यादा नीचे न जाये, लेकिन इसके 6.5% से ऊपर जाने की उम्मीद भी नहीं दिख रही है।
ताजा आँकड़ों से स्पष्ट है कि औद्योगिक वृद्धि कमजोर हुई है। निवेश और उपभोक्ता खर्च दोनों में काफी कमी आयी है। सेवाओं, जैसे व्यापारिक परिवहन में कमी आयी है, जो अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण हिस्सा है। ये कुछ चिंताजनक संकेत हैं। कृषि में इस तिमाही में 3% की स्वस्थ बढ़ोतरी हुई है, लेकिन मानसून अच्छा नहीं रहने से भविष्य में इसके कमजोर होने के आसार हैं। बाद में बारिश जरूर हुई है, लेकिन नुकसान पहले ही हो चुका है। शायद पूरे साल के लिए कृषि विकास दर नकारात्मक न रह कर सपाट रहे, लेकिन खरीफ पर मानसून में देरी का असर होने से तीसरी तिमाही में इसमें गिरावट आ सकती है।
उत्पादन (मैन्युफैक्चरिंग) क्षेत्र पर निवेश संबंधी माँग एकदम घट जाने का असर पड़ा है। जहाँ तक खनन क्षेत्र का सवाल है, यह नहीं पता कि आगे किस तरह की विकास दर रहेगी। इसके बारे में नीतिगत अनिश्चितता बनी हुई है और इसका असर देखने को मिल सकता है।
निवेश के चक्र को वापस पटरी पर लाने के लिए काफी चीजें जरूरी हैं। इसके लिए कई नीतिगत कदम उठाने होंगे, ब्याज दरों में कमी के साथ-साथ वित्तीय घाटे को कम करना होगा। वैसे तो समाधान बहुत सरल लगता है, क्योंकि आप एक वाक्य में इसे कह सकते हैं। पर इसे करना बड़ा कठिन और जटिल है। ऐसे में सरकार की ओर से ज्यादा सक्रियता जरूरी है।
लेकिन जब तक कोयला घोटाला जैसी बातें जारी रहेंगी, निवेशकों का भरोसा कमजोर ही रहेगा। नीतिगत माहौल काफी अनिश्चित हो गया है। हम ऐसी स्थिति में पहुँच चुके हैं, जहाँ एक-दो बातें ठीक करने से हालात नहीं सुधरने वाले। पी चिदंबरम के वित्त मंत्री बनने के बाद लोगों को यह उम्मीद बँधी है कि गार की समस्या सुलझा ली जायेगी। लेकिन इससे निवेश के माहौल में कुछ खास सुधार नहीं दिखा है।
कई मुद्दों पर ध्यान देने की जरूरत है। इनमें से एक है भूमि अधिग्रहण नीति, जिसे सही ढंग से लागू करना जरूरी है। इसके अलावा पर्यावरण से संबंधित नियम हैं, जिनकी वजह से काम अटक रहे हैं। सरकार परियोजनाओं को समय से मंजूरी नहीं दे रही है, क्योंकि प्रशासनिक अमला फैसले लेने से बच रहा है।
कुछ उन बातों पर भी काम करने की जरूरत है, जिनसे तुरंत तो बड़ा निवेश नहीं आयेगा, लेकिन उनसे अंतरराष्ट्रीय निवेशकों का भारत के प्रति भरोसा बढ़ेगा और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) पर अच्छा असर पड़ेगा। इनमें से एक है खुदरा क्षेत्र में एफडीआई की अनुमति। इन सब बातों के साथ बुनियादी ढाँचे से जुड़ी परियोजनाओं की गति बढ़ाने की आवश्यकता है, जो हो नहीं पा रहा है। आप देख सकते हैं कि सड़क, बिजली जैसे क्षेत्रों में गंभीर समस्याएँ हैं।
उच्च स्तर पर निर्णय लेने की क्षमता में कमी दिख रही है। किसी परियोजना की अनुमति देने का निर्णय लेने वाले अधिकारी इस बात के लिए चिंतित हैं कि कहीं किसी जाँच एजेंसी की कार्रवाई का सामना न करना पड़ जाये। हर फैसले में भ्रष्टाचार हो, यह जरूरी नहीं है। कई बार उचित कारणों से किसी परियोजना की गति बढ़ाने का मामला हो सकता है।
ब्याज दरों में कमी को लेकर आरबीआई का रुख स्पष्ट है। इसलिए पहले जरूरी है कि सरकार वित्तीय घाटे में कमी लाये। किसी को तो कड़ा फैसला लेना होगा। डीजल की कीमतें बढ़ानी होंगी, कुछ खर्चों में कटौती करनी होगी। इसके लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति और यूपीए के घटक दलों के बीच समन्वय की आवश्यकता होगी।
दुर्भाग्य से ऐसा होता नहीं दिख रहा है। इसी वजह से अगले एकाध साल के लिए मेरी सोच नकारात्मक है। वित्त मंत्री ने पहले ही संकेत दे दिये हैं कि वे ईंधन की कीमतें बढ़ाने नहीं जा रहे हैं। अगले बजट में खाद्य सुरक्षा विधेयक और ऐसी अन्य बातें देखने को मिल सकती हैं। इसीलिए थोड़ी लंबी अवधि के बारे में भी मैं बहुत आश्वस्त नहीं हूँ। शायद समस्याएँ 2013-14 और 2014-15 में भी बनी रह जायें। हालाँकि मुझे पी चिदंबरम की क्षमताओं पर भरोसा है और वे स्थितियों को अच्छी तरह समझते हैं।
(निवेश मंथन, सितंबर 2012)