विजय शेखर :
मेरी अब तक की कहानी में ऐसी कई बातें हैं, जो वैसे तो संभव नहीं लगती हैं लेकिन मेरे साथ हो गयीं। मैंने बारहवीं तक की सारी पढ़ाई हिंदी माध्यम से की। इंजीनियरिंग कॉलेज की प्रवेश परीक्षा में सफल हो पाना सपना सच होने जैसा था।
मैं भी एक केस स्टडी हूँ जो पता नहीं कैसे घुस गया इंजीनियरिंग कॉलेज में, जहाँ अच्छे-अच्छे लोगों को दाखिला नहीं मिल पाता। प्रवेश परीक्षा के समय मेरी उम्र भी थोड़ी कम थी। मैंने 14 साल में ही बारवहीं कर ली थी। मैं यूपी बोर्ड से था, वहाँ उम्र को ले कर वैसी कोई पाबंदी नहीं थी। लेकिन इंजीनियरिंग कॉलेज की प्रवेश परीक्षा में उम्र सीमा थी। दिल्ली कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग (डीसीई) में प्रवेश परीक्षा देने के लिए जरूरी था कि उम्र कम-से-कम 16 साल हो। लेकिन उसमें एक नियम यह था कि अगर आप छोटे हैं, लेकिन काफी अच्छा प्रदर्शन रहा है तो आप कुलपति से अनुमति ले कर 15 साल की उम्र में भी परीक्षा में बैठ सकते हैं। मतलब इस अनुमति के बाद भी एक साल की ही छूट मिलती थी।
तो बारहवीं पूरी करने के बाद भी इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा में बैठने के लिए मेरे पास एक साल का समय बाकी था। इस एक साल के दौरान मैं एक साथ एक ही विषय की दो किताबें ले कर बैठा करता था, एक हिंदी की और एक अंग्रेजी की। किसी ने मुझे इस तरह से पढ़ते देखा तो कहा कि तुम लाला हरदयाल की तरह पढ़ रहे हो, वे भी एक साथ दो किताबें पढ़ते थे। मैं पहले हिंदी की किताब में कोई पाठ पढ़ता था और उसके बाद वही चीज अंग्रेजी में मिला कर देखता था। तब मुझे समझ में आता था कि अच्छा हिंदी में जो संवेग है, उसे अंग्रेजी में मोमेंटम कहते हैं। इस तरह से मैं साल भर में अपनी हिंदी में की हुई पिछली सारी पढ़ाई को अंग्रेजी में समझने की कोशिश करता रहा, जिससे अगले साल प्रवेश परीक्षा में बैठ सकूँ।
जब मैं प्रवेश परीक्षा दे रहा था तो अंग्रेजी में लिखे सवाल पूरी तरह समझ में नहीं आ रहे थे, लेकिन उन सवालों में जो अंक और उनकी इकाइयाँ वगैरह थीं, उन्हें देख कर मैं समझता था कि यह सवाल किस बारे में होगा। वस्तुनिष्ठ सवाल थे, यानी सही उत्तर का विकल्प चुनना था, इसलिए सवाल को अंदाज से समझ कर भी मैंने सही जवाब दे दिये। तब डीसीई में केवल 40 सीटें होती थीं। जब नतीजे आये तो मेरा 47वाँ स्थान था। लेकिन डीसीई में प्रवेश परीक्षा में सफल रहने वाले काफी लोग दूसरी जगहों पर भी चुने जाते हैं और वे कहीं और दाखिला ले लेते हैं। इसलिए दाखिले के बाद मेरा स्थान नौवाँ था। इसलिए मैं अपनी इच्छा से इंजीनियरिंग में कोई भी विषय चुन सकता था। उस समय मैंने कंप्यूटर नहीं चुना, मैंने इलेक्ट्रॉनिक्स चुना। तब माता-पिता को पता नहीं था कि कंप्यूटर क्या होता है। हमारे यहाँ तो सबसे बड़ा सवाल नौकरी का था। उस समय मन में बस यह बात थी कि अगर आप इलेक्ट्रॉनिक्स लेते हैं तो आप कंप्यूटर साइंस की भी नौकरी कर सकते हैं, लेकिन शायद कंप्यूटर साइंस लेने के बाद आपको इलेक्ट्रॉनिक्स वाली नौकरी नहीं मिलेगी। मुझसे नीचे के स्थान वाले छात्र कंप्यूटर साइंस चुन रहे थे, वे सोच रहे थे कि कहीं यह लड़का कंप्यूटर साइंस न ले ले। खैर, मैंने इलेक्ट्रॉनिक्स विषय ले लिया। यह 1994 का समय था।
इंजीनियरिंग कॉलेज में ही मैंने पहली बार कंप्यूटर वगैरह देखा। तब कंप्यूटर की एक पत्रिका आती थी कंप्यूटर्स टुडे। मैंने कॉलेज के पुस्तकालय में इस पत्रिका में एक बार नोटबुक के बारे में एक विज्ञापन देखा। मैंने उसे कई बार देखा-पढ़ा और बार-बार खोजने की कोशिश करता रहा कि उसमें नोटबुक कहाँ है! उस लेख में जो फोटो थी वह कीबोर्ड और स्क्रीन वाली चीज थी, जबकि मैं छपी हुई पुस्तिका खोज रहा था। एक दिन उसे पढ़ कर समझ में नहीं आया तो अगले दिन फिर गया और वही पन्ना फिर से देखा। मेरे मन में बड़ी उलझन हो रही थी और संकोच भी होता था कि किसी और से कैसे पूछूँ। आसपास लोग थे, लेकिन पूछने में झिझक होती थी। मैं जिस पृष्ठभूमि से आया था, उसमें मैं वैसे ही अपने-आप को दूसरों से अलग पाता था। मेरे साथ के जितने सहपाठी थे, वे सब बड़े स्मार्ट थे। कोई डीपीएस से पढ़ा था, कोई इसी तरह के किसी और नामी स्कूल से पढ़ा था। मैंने भार्गव डिक्शनरी भी पलट कर देख ली कि हाँ नोटबुक का मतलब किताब ही होता है। लेख में नोटबुक की जो खासियतें लिखी थीं वह सब पढ़ कर समझ भी लिया, लेकिन इसमें नोटबुक तो बिल्कुल नहीं दिख रही। आखिर ये कैसी किताब है! मुझे तीन महीने लग गये किसी से यह कहने में कि यार जरा लाइब्रेरी चल मेरे साथ, मुझे एक सवाल पूछना है कि इसमें नोटबुक कहाँ है! तब उस दोस्त ने बताया कि इस कंप्यूटर को नोटबुक बोलते हैं। मैं पलट कर पूछता हूँ कि भला कंप्यूटर को नोटबुक क्यों बोलेंगे? तो उस समय ऐसी हालत थी मेरी।
डीसीई की कक्षा में मेरे लिए तारे जमीं पर वाली हालत थी। क्लास में सारी पढ़ाई अंग्रेजी में होती थी, कुछ समझ में नहीं आता था। हमेशा कक्षा में हिंदी में सुनने की आदत थी। उस कक्षा का रूपरंग भी एकदम अलग जैसा था। आसपास सब ऊँचे वर्ग के लोग थे। अलीगढ़ से पहली बार एक महानगर में आया था। जब छात्रावास में मेरी रैगिंग हुई तो पूछा गया कि आप छुट्टियों में क्या कर रहे थे? मैंने कहा कि मैं दी हिंदस्तान टाइम्स पढ़ रहा था। इस पर उन लोगों ने मेरा नाम ही दी हिंदुस्तान टाइम्स रख दिया। बहुत ही मजाक उड़ता था मेरा। मैं छोटा भी था, केवल 15 साल का था। घर से दूर आने का भावनात्मक दबाव भी था। हमारा घर-परिवार भी साधारण-सा था। मेरे पिता स्कूल के शिक्षक हैं। उस पृष्ठभूमि से मैं पहली बार दिल्ली प्रवेश परीक्षा देने के लिए ही आया था। खैर, जिंदगी आगे बढ़ी। कुछ दिक्कतें आयीं तो छात्रावास में कई अच्छे दोस्त भी बने। कक्षा में दिक्कत, पुस्तकालय में दिक्कत, अंग्रेजी भाषा की दिक्कत। कुछ अच्छे दोस्त बनाये, जिनसे मदद ली। लेकिन फिर भी कक्षा में मेरी इतनी गंदी हालत रही कि मैंने कॉलेज छोडऩे की ही बात सोच ली। मुझे ऐसी कक्षा में नहीं जाना था, जहाँ मुझे सबसे पीछे बैठना हो। कहाँ मैं कक्षा में सबसे आगे बैठने वाला छात्र था, अपने स्कूल में टॉपर हुआ करता था। यहाँ मैं सबसे पीछे की सीट पर बैठने वाला छात्र बन गया, जिसकी समझ में कुछ नहीं आता था। अगर शिक्षक ने कुछ पूछ लिया तो जवाब क्या दूँ, मुझे तो सवाल ही समझ में नहीं आता था। मेरे कान लाल हो जाते थे। मेरा मन करता था कि भाग जाऊँ यहाँ से। खैर, मैं कॉलेज से तो नहीं, लेकिन उस क्लास से भाग गया। मैं कंप्यूटर सेंटर में घुस गया।
मुझे बाद में पता चला कि किसी कुकूंड इंटेलिजेंट को नर्ड बोलते हैं। मुझे पता चल गया कि मैं नर्ड बनने वाला हूँ। मैं कुकूंड था, जो केवल अपने-आप में ही घुसा रह सकता है। नर्ड लोग अपने-आप से बाहर निकलना पसंद नहीं करते, मैं बाहर से अंदर घुस रहा था। वह 1994-95 का समय था, उस समय अमेरिका में इंटरनेट की शुरुआत हो रही थी। वैसे वक्त में कंप्यूटर सेंटर में कुछ अच्छे वरिष्ठ छात्रों ने कंप्यूटर में मेरी दिलचस्पी देखी और उनकी मदद से मैं वहाँ कंप्यूटर पर काम करने लगा। बहुत जल्दी मुझे अपना एक रास्ता समझ में आ गया। मुझे समझ में आया कि अगर मैं इसमें कुछ करूँगा तो मेरा करियर बन जायेगा। मुझे लग रहा था कि इस रास्ते पर चलने से मेरे दिल के कुछ अरमान पूरे हो सकते हैं। यह बात बड़ी अच्छी लगती थी कि यहीं से बैठे-बैठे एमआईटी (अमेरिका का मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी) में लॉगिन कर लो। मैं वह करता भी रहता था। ज्यादा कुछ समझ में नहीं आता था और मैं वहाँ एक हाथ में शब्दकोष ले कर बैठता था। एक-एक शब्द करके अंग्रेजी सीख रहा था।
यहाँ मैंने इंटरनेट पर काम करना शुरू किया। हाथ में ज्यादा पैसे तो थे नहीं, इसलिए रविवार को दरियागंज के बाजार में जा कर कंप्यूटर की पुरानी किताबें और पत्रिकाएँ लेता था। फॉच्र्यून पत्रिका मुझे काफी अच्छी लगी और मैंने दरियागंज से उसके 2-3 महीने पुराने अंक ले कर पढऩा शुरू किया। उससे मुझे पता चलता था कि अमेरिका में क्या हो रहा है। कुछ और ज्यादा पढ़ा तो सिलिकन वैली के बारे में कुछ समझ में आया। अमेरिका में गैराज में कंपनियाँ शुरू होती हैं। फॉच्र्यून का एक विशेषांक आया था, जिसमें गैराज से शुरू होने वाली बहुत-सी कंपनियों के बारे में लिखा गया था। उसमें ऐप्पल, एचपी जैसी कंपनियों की कहानी बतायी गयी थी। जब मैं उस पत्रिका को पढ़ रहा था तो मेरे अंदर भी यह भावना आ रही थी कि छोटे से शुरू करके सारी दुनिया में अपनी धाक जमाना संभव है। मैं सिलिकन वैली से भावनात्मक रूप से जुडऩे लगा। फिर मैं उन सब चीजों के बारे में और पढऩे लगा, इंटरनेट पर उसके बारे में जानने की कोशिश करता था। मेरे मन में आता था कि हम भी सिलिकन वैली की तरह बन सकते हैं, क्योंकि जब इंटरनेट हो तो अमेरिका हो या भारत, सब एक है।
तब मैंने कुछ दोस्तों के साथ मिल कर कॉलेज की वेबसाइट बना दी। उसी समय मैंने दोस्तों के साथ अपनी एक कंपनी की शुरुआत कर दी। उसका नाम एक्सएस था। हमारा इरादा यह था कि हम इंटरनेट पर वह सब चीजें करेंगे जो अमेरिकी लोग करते हैं। उस समय कंपनियों को इंटरनेट पर लाना सबसे बड़ा काम था। लोगों के लिए वेबसाइट बनाना, सर्च इंजन बनाना वगैरह। मैं अपने दोस्त के साथ मिल कर भारत के लिए एक सर्च इंजन बनाने लगा। हमने अपनी एक वेबसाइट भी बनायी इंडियासाइट डॉट नेट नाम से। हमारा यह कहना था कि भारत के बारे में जो कुछ भी इंटरनेट पर है, वह हम उस पर डालेंगे। अगर भारत के बारे में कोई पत्रिका है या किसी छात्र ने कोई साइट बनायी है तो वह सब हम उस पर डालेंगे। हम उसे याहू जैसी डायरेक्ट्री बना रहे थे। हम जब यह सब कर रहे थे तो उसी समय सिलिकन वैली में काफी कुछ हो रहा था। वहाँ सबीर भाटिया हॉटमेल बना रहे थे। लैरी पेज और सर्गेई गूगल बनाने में लगे थे। ठीक उसी समय हम भी अपना एक सर्च इंजन लिख रहे थे। यह भी एक दिलचस्प किस्सा है। अगर हम सिलिकन वैली में होते तो शायद कुछ ज्यादा बेहतर कर पाते। उसी समय अमेजन डॉट कॉम ने राम श्रीराम से जंगली डॉट कॉम को खरीदा। इससे हमें लगा कि भारतीय लोग भी बहुत कुछ कर सकते हैं। यह सब सोच-सोच कर मैंने अपनी कक्षा में जाना ही बंद कर दिया। मैं सुबह उठते ही कंप्यूटर सेंटर में चला जाता और जब वह बंद होता तब लौट कर वापस आता था। शिक्षकों ने कहा कि तुम तो क्लास में आते ही नहीं हो, उन्होंने मेरी सप्लिमेंटरी परीक्षा लगा दी। पहले बैक कंप्लीट करो, तब आगे जाओ।
लेकिन मैं अपने मन में सोच चुका था कि मैं इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियर नहीं बनूँगा। उस कक्षा में जाते ही मेरे मन में जो हीन भावना आती थी, उसके चलते मैं सोचता था कि कुछ भी हो जाये पर मैं यह नहीं करूँगा। मुझे घर की भी बहुत याद आती थी। मेरे घर की भी समस्याएँ बड़ी सीधी-सादी थीं। बिल्कुल यही किस्सा है कि मेरे पिता ने मेरी पढ़ाई के लिए कर्ज लिया था। तो एक तरफ यह बात थी कि घर वालों को ऐसी स्थिति का तो सामना न करना पड़े कि मैं यहाँ से पास भी न हो सकूँ। जैसे ही शिक्षक ने सप्लिमेंट्री परीक्षा लगायी, वैसे ही मुझे घर की याद आयी और मैं एकदम कमजोर पड़ गया। लेकिन जैसे ही मेरे दिमाग से वह डर थोड़ा निकला, वैसे ही मैंने कहा कि नहीं मैं तो कुछ बड़े काम ही करूँगा। यह सब करते-करते मैंने तय कर लिया कि मुझे कॉलेज से नौकरी नहीं लेनी।
उसी उधेरबुन के बीच हमने सोचा कि अब हम अपनी कंपनी कॉलेज में ही बनायेंगे। मैंने इस कंपनी का एक बिजनेस कार्ड भी बना लिया। मैं ईस्ट हॉस्टल के कमरा संख्या 37 में रहता था, इसलिए हमने अपना पता लिखा ईस्ट 37 और डीसीई को ब्रैकेट में लिख दिया। कश्मीरी गेट, दिल्ली को हमने के गेट, दिल्ली लिख दिया ताकि लोगों को लगे कि यह कोई अलग-सा पता है, कॉलेज के छात्रावास का कमरा नहीं। बिजनेस कार्ड तैयार हो गया, अब काम ढूँढऩा था। इस कंपनी का एजेंडा यही था कि हम दूसरे लोगों की वेबसाइटें बनायेंगे और साथ में अपना सर्च इंजन बनायेंगे, जिस पर विज्ञापन से कमाई होगी। वही मॉडल था, जो आज सब तरफ चल रहा है। अब ग्राहकों को तलाशना था। मैंने यह सोचा कि हम अपना विज्ञापन तो कर ही नहीं सकते। उस समय फ्री ऐड्स नाम का अखबार छपता था। उसमें हमने अपने छोटे विज्ञापन डाले। उससे ज्यादा काम नहीं मिला। एक-दो काम मिल जाता था, छोटी-मोटी वेबसाइटें बना देते थे। तब मैंने दूसरा रास्ता पकड़ा। मैं अखबार में एचटीएमएल और वेबसाइट डिजाइनर, प्रोग्रामर वगैरह की नौकरियों के विज्ञापन खोजता। उन नौकरियों के इंटरव्यू के लिए मैं पहुँच जाता। उनसे कहता था कि शाम के छह बजे इंटरव्यू रख दीजिए, कॉलेज से तीन बजे निकल जाता था। वहाँ जा कर मैं पूरा इंटरव्यू देता था। वे पूछते थे कि एचटीएमएल आती है, मैं बताता कि आती है। वे पूछते कि क्या बनाया है, तो अपनी एक-दो साइट दिखाता था। पूछते थे कि बताओ कैसे करोगे, वह सब बताता था। फिर वे पूछते थे कि कितना वेतन लोगे, तब मैं उनको बताता था कि मैं तो पढ़ता हूँ और मैं नौकरी नहीं ले सकता। फिर मैं उनसे कहता कि आप मुझे यह काम दे दो। इस तरह मैं जाता था नौकरी के इंटरव्यू के लिए और काम ले आता था। मैं उनसे कहता था कि आप मुझे यहाँ बुलाओगे, कंप्यूटर रखोगे, इंटरनेट लगाओगे, मेरे पास कॉलेज में यह सब कुछ है। मैं आपको वहीं से करके भेज दूँगा। लोगों को बड़ा अजीब सा लगता था कि अभी तो नौकरी का इंटरव्यू हो रहा था, अब यह बिजनेस की बात कर रहा है। लेकिन तीन में से दो लोग काम दे देते थे। इस तरह से कॉलेज में ही मैंने कमाई करनी शुरू कर दी। तब मैं चार-पाँच हजार रुपये और कभी ज्यादा काम मिला तो दस-पंद्रह हजार रुपये महीने तक बना लेता था।
मैं एक तरह से खुद को इस बात के लिए तैयार कर रहा था कि अगर कहीं कॉलेज ने मुझे तिरस्कृत कर दिया तो मैं अपनी जिंदगी कैसे चलाऊँगा? तब मेरे दिमाग में यह नहीं था कि वेंचर कैपिटल (वीसी) फंड के साथ बनी बड़ी सी कंपनी चलानी है। उस समय तो मुझे यही नहीं पता था कि वीसी कहाँ मिलते हैं।
उसी बीच क्या हुआ कि अमेरिका से भारत आये एक व्यक्ति ने फ्री ऐड्स में हमारा एक विज्ञापन देख कर हमें बुलाया। वे वेब का काम कराने के लिए भारत में कुछ लोगों को ढूँढ़ रहे थे। जब हमने उन्हें बताया कि हम तो कंपनी चला रहे हैं तो उन्होंने कहा कि ठीक है, मैं तुम्हारी कंपनी में थोड़ा पैसा लगा देता हूँ और तुम इसे एक पूरी कंपनी बना लो। उन्होंने पूछा कि कितने पैसे चाहिए। मैंने कहा कि बिजनेस कार्ड चाहिए। इसका मतलब यह है कि एक पता चाहिए, फोन नंबर चाहिए, एमटीएनएल का इंटरनेट कनेक्शन चाहिए, जगह चाहिए। उनसे पैसा ले कर हमने मायापुरी में एक दफ्तर लिया और वहाँ से काम शुरू किया। यह साल 1997 था और मैं इंजीनियरिंग कॉलेज के तीसरे साल में था। कॉलेज के तीसरे साल में मेरे पास अपना बिजनेस कार्ड था। अब भी मैं कक्षा में जा कर पीछे बैठता था। लेकिन शान से बैठता था कि अब मेरे पास नौकरी ही नहीं, अपनी कंपनी भी है।
कॉलेज में शिक्षकों को मेरी इन बातों का कुछ पता नहीं था कि मैंने अपना काम शुरू कर दिया है। उन्हें ईस्ट 37 के बिजनेस कार्ड वाली कंपनी के बारे में कुछ नहीं मालूम था! मैं कंप्यूटर सेंटर में जा कर काम करता था, प्रोफसरों के पास जा कर उनकी ईमेल के प्रिंटआउट भी दिया करता था। मैंने कॉलेज के लिए भी काफी कुछ किया, जैसे कॉलेज की वेबसाइट बनायी, सबके ईमेल के पते बनाये, मैं कॉलेज के पूरे नेटवर्क को सँभालता था। एक तरह से मैं कॉलेज का सिस्टम ऐडमिनिस्ट्रेटर बन गया था, जिसके चलते काफी चीजें मेरी पहुँच में थी। मैंने उस पहुँच का गलत इस्तेमाल नहीं किया, बल्कि वापस कॉलेज को बहुत कुछ करके दिया। मेरे समय में कॉलेज का जो कंप्यूटर नेटवर्क चलता था, वह एक पैमाना बन गया। सारी चीजें सही चलती थीं, मैं शिक्षकों को बड़े प्यार से उनका ईमेल का पता बना कर दिया करता था। (उस समय यह बड़ी चीज थी।) फिर वे मुझे कहते थे कि देखो बच्चे, क्लास में हमेशा आना चाहिए।
मुझे यह बात समझ में आने लगी थी कि आगे मुझे शिक्षकों की जरूरत पड़ेगी। डिग्री तो चाहिए ही, और सप्लिमेंट्री परीक्षाएँ ज्यादा लग गयी थीं। सबकी परीक्षाएँ खत्म होने के बाद मुझे एक-दो दिन ज्यादा रुकना पड़ा था बैक पूरा करने के लिए।
खैर, कॉलेज से निकला। कॉलेज में जब बिजनेस चला रहे थे, लोगों की वेबसाइटें बना रहे थे। उस समय इंडियामार्ट वाले दिनेश अग्रवाल भी थे, जो हमारे लिए काफी बड़े प्रतिस्पर्धी थे। अब वे हमें इंडियामार्ट की तरफ से अवार्ड देते हैं। तब मैं उन्हें देख कर सोचता था कि पटपडग़ंज में हो ना तुम, दो दिन में मैं भी रजिस्टर करा लूँगा! दरअसल उन्होंने अपने बिजनेस में उसी समय अपना रास्ता तलाश लिया था। हम लोग उस समय बस कॉलेज से निकले युवक थे। मुश्किल स्थिति थी। एक दिन अखबार में प्लैनेट एशिया का विज्ञापन बाजार में आया - भारत की पहली इंटरनेट कंपनी। मैं अपने पिता के पास अलीगढ़ गया और उन्हें दिखाया कि मुझे यह सब करना है। उन्होंने देखा और मुझे सिर से पाँव तक खारिज कर दिया। पिताजी ने सीधे कुछ नहीं कहा। बाद में माँ ने कहा, तुमने पिताजी को कुछ दिखाया था ना। मैंने कहा, हाँ दिखाया था। माँ ने कहा, %तुम नौकरी करना, यह सब मत सोचना। घर में पैसे नहीं हैं। तुम ऐसे ही उड़े जा रहे हो। हमारे परिवार में कितने सालों बाद एक इंजीनियर हुआ है।
तो यह सब बातें शुरू हो गयीं। इमोशनल अत्याचार! मुझे समझ में आ गया कि अब नौकरी करनी पड़ेगी। लेकिन जब नौकरी की तरफ ध्यान गया तो मेरी हालत यह थी कि अब तक मैंने नौकरी के बारे में सोचे बिना सारी पढ़ाई की थी। अब छह महीने में नौकरी खोजनी थी। मैं जानता था कंप्यूटर के बारे में, नौकरी करनी थी इलेक्ट्रॉनिक्स की। मेरी हालत खराब हो गयी। जिस तरह की नौकरी आनी थी, उस तरह किताबें मैंने फिर से पढऩी शुरू की। लेकिन चुनाव नहीं हो रहा था। उसी समय एक काफी अच्छी नौकरी पर मेरी नजर गयी जो रिवररन सॉफ्टवेयर सर्विसेज में थी। मैंने अपने कॉलेज के कुछ पुराने वरिष्ठ छात्रों को पकड़ा कि इस नौकरी में चुने जाने का तरीका बताओ, क्या पढऩा होता है, कैसे सवाल आते हैं। तब मैं एकदम चुन-चुन कर उन्हीं चीजों को पढऩे लगा, जैसे आप कोई गेस-पेपर पढ़ते हैं। तुम सी की प्रोग्रामिंग सीख लो, नेटवर्किंग सीख लो, उन्होंने चुने हुए विषय बता दिये। उस समय नेटवर्किंग और सी प्रोग्रामिंग पर ज्यादा ध्यान रहता था। ऐसा भी नहीं था कि उन्होंने बस चार सवाल बता दिया, पर चुने हुए विषय बताये। मैंने उन चीजों को बहुत अच्छी तरह पढ़ लिया।
किस्मत थी कि मैंने उनकी परीक्षा निकाल ली और साक्षात्कार में पहुँच गया। उन्होंने मुझसे सी प्रोग्रामिंग के सवाल किये। यहाँ मेरी जिंदगी में थ्री इडियट वाला दृश्य आया था। मुझसे पहला सवाल किया गया, थोड़ा-सा जवाब दिया। मैं तो इंटरनेट और वेबसाइटों का बिजनेस करता था, मैं सी में प्रोग्रामिंग नहीं करता था। फिर दूसरा सवाल, तीसरा सवाल... पाँचवें सवाल तक आते-आते मैंने कहा आप यह सब सवाल रोक दें। मैं असल में प्रोग्रामिंग नहीं जानता। वे हैरान थे कि तुम प्रोग्रामिंग नहीं जानते, तुमने प्रोग्रामिंग में अपना टेस्ट इतने अच्छे से निकाला है। यहाँ सवालों पर तुम्हारे जवाब सही हैं। मैंने उन्हें बताया कि मैंने आपके सवालों के जवाब पढ़े हैं, इसलिए मैं बता पा रहा हूँ। लेकिन मैं आगे जिंदगी में प्रोग्रामिंग नहीं करना चाहता।
वे लोग थोड़े हैरान हो गये कि इंजीनियरिंग कॉलेज का लड़का प्रोग्रामिंग नहीं करने की बात कह रहा है। उन्होंने पूछा कि फिर तुम क्या करना चाहते हो? क्या आता है तुम्हें? मैंने कहा कि मुझे इंटरनेट आता है, आप मुझसे इंटरनेट के बारे में पूछ लीजिए। मैं इंटरनेट को तो अपने व्यापार की तरह चला रहा था, इसलिए मैंने इंटरनेट के बारे में उनके सवालों के जवाब काफी गहराई तक जा कर दिये। हमारी बातचीत और लंबी हो गयी। उन्होंने पूछा कि तुम अपने-आप को पाँच साल बाद किस स्थिति में देखते हो? मैंने कहा कि जैसे नेटस्केप के संस्थापक फाइबर ऑप्टिक्स की तारों की फोटो दिखा कर कहते हैं कि इन तारों से मेरे दफ्तर में पैसे आते हैं। मेरी सोचता हूँ कि मैं ऐसा कुछ कर रहा होउँगा।
इस साक्षात्कार में करीब 15 मिनट में ही तय हो गया था कि मेरा चुनाव नहीं होना है, लेकिन बातचीत 45 मिनट तक चलती रही। अंत में उन्होंने कहा कि तुम कोई सवाल करना चाहते हो। मैंने कहा, सर आप इतना बता दें कि मेरा चुनाव हो रहा है या नहीं, सारी उम्मीद इसी पर लगी हुई है। तब उन्होंने कहा कि हम तुम्हें चुन रहे हैं।
जब मैं कंपनी में गया तो उनके एनईपीजेड नोएडा के परिसर में काम मिला, उन्होंने मुझे नोएडा में ही रहने की जगह भी दी। उस समय 1998 में साल में दो लाख रुपये का वेतन था। यह भगवान की ही कृपा थी कि नौकरी लग गयी। नौकरी करता रहा, लेकिन दिल में वही कीड़ा बसा हुआ था। पहले जो एक्सएस कंपनी बनायी थी, उसका सारा काम रुका हुआ था। छह महीने हो गये, मुझे समझ में ही नहीं आया कि मैं यहाँ क्यों नौकरी कर रहा हूँ। उस समय इंटरनेट विकसित हो रहा था। मुझे लग रहा था कि मुझे इतना कुछ आता है, मैं इतनी सारी चीजें कर सकता हूँ और मैं यहाँ पर नौकरी कर रहा हूँ। मैंने छठे महीने में उनसे कह दिया कि मैं जा रहा हूँ। मेरे घर वाले परेशान हो गये। उस समय सब लोग अमेरिका जाने की दौड़ में लगे थे। मैंने कहा कि मुझे अमेरिका नहीं जाना। घर वालों को मेरे फैसले से काफी दुख हुआ। उन्हें लगा कि कितना बढिय़ा शानदार मौका मिला हुआ और एमएनसी कंपनी में नौकरी लगी हुई है, लेकिन हमारी कैसी फूटी किस्मत है कि हमारा लड़का हमारी सुनता ही नहीं है। मैंने उनसे कहा कि आपको वेतन के पैसे चाहिए ना, मैं आपको पक्का कर देता हूँ कि मैं महीने के उतने पैसे कमा लूँगा।
अब मैंने एक्सएस को फिर से चालू करके कंसल्टेंसी शुरू कर दी और लोगों के लिए कंटेंट मैनेजमेंट सिस्टम बनाने लगा। ग्राहक भी मिलने लगे। लिविंग मीडिया मेरा सबसे मुख्य ग्राहक बन गया। वहाँ अरुण कत्याल हुआ करते थे, जो अब मेरे दोस्त और मेंटर ज्यादा हैं। उनसे काफी अच्छी बातचीत होती थी। हमने उनसे कहा कि आप हमारी वेबसाइट के लिए अपनी खबरें दे दें। उन्होंने कहा कि खबरों के पैसे लगते हैं। मैंने उन्हें बताया कि आपकी जो खबरें फलाँ यूआरएल से स्क्रॉल करती हैं, वो हमने उठा ली हैं। मुझे लगा कि आपसे मांग कर लेंगे तो आपको अच्छा लगेगा। आप नहीं देना चाहें तो मत दें, पर खबरें तो हैं हमारे पास। इंटरनेट पर खबर है, हम उठानी जानते हैं! हम तो चाहते हैं कि पावर्ड बाई इंडिया टुडे लिखें जिसको देख कर लोग वापस आपकी वेबसाइट पर जायें। आखिरकार हम एक कारोबारी रिश्ते में आये, जिसमें हम इंडिया टुडे ग्रुप ऑनलाइन के टेक्नोलॉजी पार्टनर बन गये। उन्होंने हमारे साथ मिल कर इंडिया डिसाइड्स वेबसाइट बनायी। हमने उसमें अच्छे पैसे बनाये, करीब 40-50 लाख रुपये बन गये थे। उस समय आज तक शुरू नहीं हुआ था। दूरदर्शन पर चुनाव विश्लेषण के एक विशेष कार्यक्रम के लिए उन्होंने हमसे साझेदारी की कि अगर लिविंग मीडिया को स्लॉट मिला तो टेक्नोलॉजी बैकएंड हम चला सकते हैं। उस चुनाव की खबरें समय पर पहुँचाने के लिए हमने बहुत अच्छा इंतजाम किया। इसके चलते कई बार ऐसी स्थिति रही कि हम नतीजे बताने में 300 सीटों तक आगे चल रहे थे। दूसरे चैनल 150 सीटों के नतीजे बता रहे थे और हम 450 सीटों तक पहुँच गये थे।
तो इस तरह हमारी इंटरनेट की दुकान फिर से चल पड़ी। लेकिन इसका कारोबार अब भी इसी किस्म का था, जिसे आप सेवाओं की श्रेणी में रख सकते हैं। आप लोगों के लिए वेबसाइट बना रहे हैं। मैंने अपने कुछ और दोस्तों को भी बुला लिया। बातचीत होने लगी कि कंपनी का क्या करें। यह विचार आया कि कोई प्रोडक्ट बनाते हैं। उस समय वेंचर कैपिटल (वीसी) फंडिंग शुरू हो गयी थी। लेकिन हमें वीसी नहीं मिल रहे थे, हम अपने ही पैसे से चल रहे थे। हमने जॉब्सएहेड के साथ काम किया। हम दोस्तों के बीच यह बातचीत चलती रहती थी कि सेवाओं के धंधे में ज्यादा बड़ी आमदनी नहीं हो सकती। इसी बीच अमेरिका में न्यू जर्सी की एक कंपनी लोटस इंटरवक्र्स ने हमसे संपर्क किया। वे भारत में एक ऐसी कंपनी खरीदना चाहते थे, जो तकनीक क्षेत्र में विशेषज्ञ हो। उनके एक और दोस्त थे, जो हमारा काम जानते थे। हम लोगों ने उस समय समय कुछ अच्छा कंटेंट मैनेजमेंट सिस्टम बना लिया था, जिसे लिविंग मीडिया अपनी वेबसाइटों के लिए इस्तेमाल कर रहा था। इंटरनेट पर सामग्री प्रकाशित करने के लिए जरूरी इस तरह के सिस्टम तब बड़े महँगे मिलते थे। हमने इंटरनेट पर प्रकाशन के लिए बहुत से उपयोगी टूल्स भी तैयार किये थे, वेबसाइट पर विज्ञापन चलाने का इंजन तैयार किया था। उन्होंने हमारी कंपनी को हमारे पास मौजूद तकनीक और हमारी टीम, दोनों वजहों से खरीदा। उस समय इंटरनेट में इतनी कुशलता वाले लोग ज्यादा नहीं थे। मैंने अपने दोस्तों से विचार किया और फिर हमने दिसंबर 1999 में अपनी कंपनी उस अमेरिकी कंपनी को बेच दी और उसी कंपनी का हिस्सा बन गये। इसने इंटरसॉल्यूशंस नाम से एक कंपनी बना कर उसके अंदर हमारी कंपनी के साथ-साथ एक-दो और कंपनियों को भी मिलाया।
तो अब हम फिर से नौकरी में आ गये। मेरे घर वाले बड़े खुश हुए। जब मैं अपनी कंपनी चला रहा था, तब मैं ज्यादा पैसे नहीं कमा पा रहा था। मैं सब पैसा वापस कंपनी में लगा देता था। अब दोगुनी तनख्वाह मिल रही थी। उन्होंने कंपनी बेचने से मिलने वाली रकम किस्तों में बाँध दी थी। कुछ एकमुश्त पैसा उन्होंने पहले दिया था, बाकी किस्तों में मिल रहा था। इस तरह हमें महीने की 15 तारीख को इसकी किस्त का पैसा मिलता था और 30 तारीख को वेतन मिलता था। अब हम फिर से राजकुमार बन गये! जैसे अमेरिकी लोगों की जिंदगी होती है, वैसी ही जिंदगी हो गयी।
यह 2000 की शुरुआत थी। हमारे दोस्तों ने मोबाइल फोन खरीद लिये। वह कंपनी सेक्टर 58 में होती थी, हम सेक्टर 28 में रहते थे। हमने साइकिलें ले ली, पीछे मोबाइल लटका कर साइकल से जाते थे। जिंदगी में एकदम से काफी आराम आ गया। हर 15 दिन बाद पैसे मिलने से हमारी आदतें खराब हो गयीं। पर हम लोगों के बिलों का भुगतान कंपनी से होता था। हम लोगों को खोजते थे कि किसको खिलाया-पिलाया जाये। एक बार हम लोग रेस्टोरेंट में खाने के लिए गये। बाकी लोगों ने शराब भी मंगवायी। मैं शराब नहीं पीता। मुझसे पूछा गया कि मैं क्या लूँगा। वहाँ पर एक गोलगप्पा शॉट मिलता था, जिसमें गोलगप्पे में वोडका डाल कर देते थे। मैंने कहा कि गोलगप्पा शॉट लूँगा लेकिन बिना वोडका के। हम भी ऐसे राजकुमार थे कि ढाई सौ रुपये के गोलगप्पे खा रहे थे!
लेकिन सातवें-आठवें महीने में मेरे मन में फिर से यह बात आने लगी कि ऐसे नहीं चलेगा। मुझे लगने लगा कि इस कंपनी ने हमारे हाथों में सोने की हथकड़ी डाल दी है। मैंने थोड़ा और पढ़ा तो मुझे सोने की हथकड़ी का यह नियम समझ में आया। हमें इतना ज्यादा पैसा दिया जा रहा था कि हम कहीं और नहीं जा सकें। हमें लगा ये हमें विलासिता में डाल देना चाहते हैं। यहाँ हमें हर महीने दो-दो बार पैसे मिलते हैं, कोई और हमें इतने पैसों पर नौकरी देगा नहीं। बीच में उन्होंने मुझे अमेरिका बुलाने के लिए भी अमेरिकी दूतावास में भेजा। वहाँ वीजा के लिए पूछताछ होती है।
मैंने उन्हें अपना वेतन बताया। उसने कहा तुम्हारी उम्र 21 साल है, मैंने केवल अपना वेतन बताया, 15 दिन बाद वाला पैसा नहीं बताया। लेकिन उसने कहा कि इतना वेतन हो ही नहीं सकता। उसने कहा कि बैंक का स्टेटमेंट दिखाओ। मैं स्टेटमेंट ले कर नहीं गया था। उसने मेरा वीसा आवेदन रद्द कर दिया। मैं बड़ा खुश हुआ कि अब वीजा ही नहीं मिलेगा तो अमेरिका जाने का झंझट खत्म।
मन में बैठ गया था कि यह नौकरी छोडऩी है। लेकिन उस समय बहन की शादी होनी थी। मैंने माँ के साथ समझौता किया कि बहन की शादी हो जाने के बाद मुझे जो मन करेगा, वह मुझे करने दिया जायेगा। बहन की शादी अप्रैल 2000 में हुई। उस समय के खर्चों से मैं दो-तीन महीनों तक पैसों की तंगी में रहा। मेरे पास जितने पैसे थे, वे सब निकल गये और थोड़ा कर्ज वगैरह भी हो गया। तब मैंने जोड़ा था कि अगर मैं 16 अगस्त तक काम करने के बाद 17 अगस्त को नौकरी छोड़ूँ तो मुझे ठीक-ठाक पैसे मिल जायेंगे, करीब 16 लाख रुपये नकद मिलने थे। लेकिन मैंने बहन की शादी के समय वाला हिसाब-किताब निपटाया और 24 जुलाई को ही इस्तीफा दे दिया। वे लोग बड़े हैरान थे कि आप 24 जुलाई को इस्तीफा क्यों दे रहे हैं? अगर आठ दिन बाद दे दो या 17 अगस्त को दे दो तो तुम्हारे बहुत पैसे बन जायेंगे। पर मैंने कहा कि नहीं, अब मैं यहाँ रुक नहीं सकता। मैंने कहा कि आपके पैसे आपको मुबारक, मैं अपने लिये ये प्रण लेता हूँ कि मैं जो पैसे छोड़ कर जा रहा हूँ उससे भी कहीं बढिय़ा चीज अपने लिए बनाउँगा। मैंने यहाँ तक कहा कि आप चाहो तो मुझसे नोटिस अवधि के पैसे ले लो। खैर, उन्होंने मुझसे नोटिस अवधि के पैसे नहीं लिए, न ही बाकी बचे अतिरिक्त पैसे दिये। तो इस तरह मैं वहाँ से कट लिया।
अब मेरे पास कुछ पैसे भी थे, घर से अनुमति भी थी। मैं वापस धंधे में आ गया। मैंने वन97 डॉट कॉम वेबसाइट बनायी। यह पीपल सर्च मतलब इंटरनेट पर लोगों को खोजने की वेबसाइट थी। उसी समय याहू ने फोर11 डॉट कॉम खरीदी थी। वह अमेरिका में लोगों को खोजने की वेबसाइट थी। हमने सोचा कि भारत में तो ऐसी वेबसाइट है नहीं, हम बना देते हैं। तो हमने वन97 डॉट कॉम बना दी। लेकिन यह चलती नहीं थी। वेबसाइट पर लोग काफी आते थे, लेकिन कोई फायदा नहीं। मैंने ब्रॉडबैंड आईएसपी के कारोबार में हाथ आजमाया। लेकिन पता चला कि लास्ट माइल बीएनएसएल के हाथ में है, आप कर ही नहीं सकते। यह सब करते-करते तीन महीने निकले, छह महीने निकले। मेरे हाथ में जितने पैसे थे, वे सब उड़ गये। कई योजनाएँ बंद होनी शुरू हो गयीं। ब्रॉडबैंड आईएसपी का काम बंद किया।
अब मैंने वन97 के लिए टेलीकॉम ऑपरेटरों से मिलना शुरू किया। मैं एयरटेल के पास गया। हमने उनसे कहा कि आप हमें अपना डेटा दें, हम आपकी डायरेक्ट्री बना कर देंगे। उन्होंने मना कर दिया। हमने उन्हें याद दिलाया कि आपके लाइसेंस की शर्तों में डाइरेक्ट्री छापने की बात लिखी है। पर उन्होंने साफ मना कर दिया। पर उन्होंने मुझसे कहा कि तुम ऐसी एक सेवा एसएमएस पर दे दो। उन्हें एसएमएस का इस्तेमाल बढ़ाना था। उस समय लोग एक-दूसरे को मिस्ड कॉल देते रहते थे, क्योंकि इनकमिंग कॉल के भी पैसे लगते थे। उन्होंने कहा कि कोई एसएमएस पर नंबर भेजे तो उसके जवाब में नाम और पता वगैरह भेजना है। मैंने कहा कि ठीक है कर दूँगा, कितने पैसे मिलेंगे? उन्होंने बताया कि हम इस सेवा के लिए हर एसएमएस पर एक रुपये का शुल्क रखेंगे और इससे होने वाली कमाई 50:50 बाँट लेंगे। मैंने कहा कि अच्छा विचार है।
आपके पास कोई मिस्ड कॉल आयी, आपने ली नहीं। बाद में आप देखना चाहते थे कि यह किसका नंबर है। तो आपको डीआईआर और उसके बाद वह नंबर लिख कर एसएमएस भेजना होता था, जिस पर हम बताते थे कि वह नंबर किसके नाम पर है और पता क्या है। यहाँ पर हमें महीने के ढाई सौ रुपये, पाँच सौ रुपये मिलने लगे। दूसरी तरफ इंटरनेट पर हम जो वेबसाइटें चला रहे थे, उसमें कुछ नहीं मिलता था। हमने यह देखा कि इंटरनेट पर हम लोगों को इतनी सारी जानकारियाँ देते हैं, लेकिन उस पर कमाई शून्य है। यहाँ मोबाइल में एक छुटकी सी क्वेरी (सवाल) आती है, हमारे सर्वर पर तीन लाइन का कोड चलता है और जवाब चला जाता है और एक क्वेरी के 50 पैसे मिल जाते हैं। मुझे समझ में आ गया कि दुनिया इधर जा रही है। मैंने कह दिया कि इंटरनेट की जय, आ जाते हैं मोबाइल में!
(मोबाइल सेवाओं के धंधे में विजय शेखर को नया रास्ता तो दिख गया, लेकिन यह रास्ता भी आसान नहीं था। नाकामी और सफलताओं के बीच उनके संघर्ष की आगे की कहानी हम पेश करेंगे निवेश मंथन के अगले अंक में।)
(निवेश मंथन, सितंबर 2011)