राजेश रपरिया, सलाहकार संपादक :
साख का आकलन करने की विश्व की तीन प्रमुख एजेंसियों में एक स्टैंडर्ड एंड पुअर्स के अमेरिका के क्रेडिट रेटिंग एएए से एए प्लस करते ही दुनिया भर के बाजारों में भूकंप आ गया। अमेरिका में 2008 के सबप्राइम संकट के बाद एक बार फिर वैश्विक अर्थव्यवस्था पर अनिश्चितता और मंदी का साया गहराने लगा है। नतीजतन दुनिया की बहुत बड़ी आबादी के सामने बेरोजगारी और भुखमरी के हालात पैदा हो गये हैं। तमाम देशों के आर्थिक विकास पर मंदी का शिकंजा कसता जा रहा है। भारत का आर्थिक परिदृश्य भी इससे ज्यादा अलग नहीं है।
मौजूदा आर्थिक संकट में उदारीकरण के बाद पहली बार राजनीतिक नेतृत्व और आर्थिक विकास के मॉडल पर सवाल खड़े हो गये हैं। मुक्त बाजार प्रणाली की अजीब विडंबना सामने आयी है। जो देश संपन्न और विकसित माने जाते हैं, वही देश आज कर्ज के बोझ से सबसे ज्यादा दबे हुए हैं। अमेरिका, ग्रीस, पुर्तगाल, इटली, इंग्लैंड, जापान आदि देश सर्वाधिक कर्ज संकट से जूझ रहे हैं। मौजूदा संकट की विडंबना देखिए, अमेरिका की प्रति व्यक्ति आय चीन की प्रति व्यक्ति आय से छह गुना है। लेकिन %गरीब% चीन अमेरिका को सर्वाधिक कर्ज देने वाला देश है। चीन अपना कर्ज वापस ले ले तो अमेरिका को दिवालिया होने में क्षण भर का समय नहीं लगेगा। मुक्त व्यापार के इस असाम्य में सामाजिक असंतोष और विनाश के महाबीज छिपे हुए हैं।
दुनिया के अनेक देशों को बंदूक की नोक पर रखने की प्रवृत्ति के चलते पिछले 20 सालों में अमेरिकी सरकारी व्यय बेलगाम हुआ है, जिसके कारण इस अवधि में अमेरिका को निर्धारित कर्ज सीमा को चार बार बढ़ाना पड़ा है। नतीजा सामने है - उस पर अत्यधिक कर्ज बोझ। कर्ज बोझ की सीमा बुश के कार्यकाल में सबसे ज्यादा 6.5 ट्रिलियन डॉलर बढ़ायी गयी, जो अनेक युद्धों के सबसे बड़े खलनायक हैं। अब हालत यह है कि अमेरिका का कर्ज बोझ उसके सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को पार कर गया है। भारी कर्ज और ब्याज बोझ, भावी कमजोर आर्थिक विकास दर, वित्तीय नीतियों में राजनीतिक असहमति आदि प्रमुख वजहों से अमेरिका को यह दुर्दिन देखना पड़ा है। इसका खामियाजा पूरा विश्व भुगत रहा है।
वित्त प्रणाली को आज बहुत विकसित माना जाता है। ऑप्शन, आर्बिट्राज, हेज जैसे शब्दों के वाग्जाल ने अर्थशा को आम आदमी के लिए पहेली बना दिया है। सच तो यह है कि वित्त जगत के आधुनिक उपकरण सट्टेबाजी के अलावा कुछ नहीं हैं। सबप्राइम संकट से अब यह जाहिर हो चुका है कि निवेश की दुनिया के दिग्गजों ने आधुनिक वित्त उपकरणों का इस्तेमाल एक-दूसरे को टोपी पहनाने में जम कर किया। मौजूदा कर्ज संकट का सीधा-सादा अर्थ है कि सरकार या व्यापारिक इकाइयाँ अपनी उधारी चुकाने में असमर्थ हैं। दूसरे शब्दों में कर्जदाताओं या शेयरधारकों में यह डर बैठ जाता है कि उन्हें उनका मूलधन भी वापस नहीं मिलेगा। बाजारों में मौजूदा अनिश्चितता और भारी उतार-चढ़ाव के पीछे यही भय काम कर रहा है।
अमेरिका के राजनीतिक कौशल और नेतृत्व को ले कर रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड एंड पुअर्स ने गहरी चिंता जतायी है। साल 2011 इतिहास में भारी राजनीतिक उथल-पुथल के लिए दर्ज किया जायेगा। अनेक अरब और अफ्रीकी देशों में राजनीतिक परिवर्तन का ज्वालामुखी फट चुका है। कहना न होगा कि राजनीतिक इच्छा-शक्ति और सम्यक आचरण के अभाव ने अमेरिका और यूरोपीय देशों में आर्थिक तबाही को जन्म दिया है। अण्णा हजारे के जन-लोकपाल विधेयक को जो देशव्यापी प्रबल जन-समर्थन मिला, उसमें भी देश के राजनीतिक नेतृत्व के आचरण पर गहरे सवाल खड़े किये हैं। महँगाई को काबू करने के लिए सरकार की सारी कोशिशें नाकाम सिद्ध हुई हैं। महँगाई की आग में भ्रष्टाचार ने घी का काम किया है। यूपीए सरकार की साख अभी न्यूनतम स्तर पर है। आर्थिक संकेतकों से ज्यादा सरकार की अकर्मण्यता और आचरण विकास में सबसे बड़े अवरोधक बने हुए हैं। सरकार और राजनीतिक दलों का सम्यक चरित्र ही इस आर्थिक गतिरोध से हमें मुक्ति दिला सकता है।
(निवेश मंथन, सितंबर 2011)