राजीव रंजन झा :
पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के बारे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रेनकोट (बरसाती) वाले बयान ने सियासी प्याले में फिर से तूफान मचा दिया।
प्रधानमंत्री की टिप्पणी जाहिर तौर पर कुछ समय पहले नोटबंदी पर बहस के दौरान डॉ. सिंह की ओर से सरकार पर तीखे प्रहार और चुभते हुए शब्दों की प्रतिक्रिया में थी। मोदी ने सदन में कहा – ‘डॉ. मनमोहन सिंह जी पूर्व प्रधानमंत्री हैं, आदरणीय व्यक्ति हैं, हिंदुस्तान में पिछले 30-35 साल भारत के आर्थिक निर्णयों के साथ उनका सीधा संबंध रहा है, और निर्णायक भूमिका में रहा है। शायद ही कोई ऐसा अर्थ-जगत का व्यक्ति होगा जिसका हिंदुस्तान की 70 साल की आजादी में आधे समय इतना दबदबा रहा हो। और, इतने घोटालों की बातें आयीं, लेकिन खास कर के हम राजनेताओं ने डॉक्टर साहब से बहुत कुछ सीखने जैसा है, इतना सारा हुआ, उन पर एक दाग नहीं लगा। बाथरूम में रेनकोट पहन करके नहाना, ये कला तो डॉक्टर साहब ही जानते हैं! और कोई नहीं जानता!’
यह बयान जिनको चुभा, उन्होंने बवाल काटा और बहुत-से लोगों ने इस पर ठहाके लगाये। कुछ भद्र लोगों ने कहा कि एक प्रधानमंत्री को पूर्व प्रधानमंत्री के बारे में ऐसी टिप्पणी नहीं करनी चाहिए थी, इससे मर्यादा टूटी है। शायद बाथरूम शब्द ने ऐसी ध्वनि पैदा की है। अगर मोदी केवल इतना कहते कि रेनकोट पहन कर बारिश में नहाने की कला डॉक्टर साहब ही जानते हैं, तो शायद संदेश वही जाता और जिन्हें बात चुभी है उन्हें बवाल काटने का उतना मौका नहीं मिलता। लेकिन यह मोदी का मिजाज है जो विरोधियों को ‘जो तोको कांटा बुवै, ताहि बोये तू शूल’ वाली शैली में जवाब देना ही जानता है।
मगर इस शाब्दिक मार-काट के बीच यह सवाल सामने आता है कि क्या एक व्यक्ति भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा होते हुए भी बिल्कुल ईमानदार हो सकता है? इसका जवाब हाँ भी है, और ना भी। अगर मनमोहन सिंह पर मोदी रेनकोट पहन कर नहाने की चुटकी ले सकते हैं, तो मोदी के लिए भी कहा जा सकता है खुद उनकी ईमानदार छवि कीचड़ में खिले कमल की तरह है। कांग्रेस के बारे में जनधारणा अगर महाभ्रष्ट पार्टी की बन चुकी है, तो दूसरी जनधारणा यह भी है कि भाजपा के लोग भी कांग्रेस से कुछ अलग नहीं हैं। इसके बावजूद 2014 में लोगों ने भाजपा को पूर्ण बहुमत दिया, क्योंकि मोदी के प्रति लोगों में यह धारणा बनी कि यह आदमी कुछ अलग है। पिछले पौने तीन साल के कार्यकाल ने लोगों की इस धारणा को खंडित नहीं किया है।
पर एक सिरे से भ्रष्ट हो चुकी व्यवस्था के बीच ईमानदारी की परिभाषा क्या हो? पुलिस को बहुत भ्रष्ट माना जाता है, लेकिन क्या सारे पुलिसकर्मी भ्रष्ट कहे जा सकते हैं? अफसरशाही में ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार है, पर क्या सारे अधिकारी भ्रष्ट हैं? इन सवालों का स्वाभाविक जवाब होगा - नहीं।
लेकिन जो खुद भ्रष्ट नहीं हैं, उनकी ईमानदारी के भी अलग-अलग रंग हैं। एक रंग है जो कहता है कि न खाऊँगा न खाने दूँगा। पर ऐसे लोग इस व्यवस्था में तब तक नहीं टिक सकते, जब तक वे खुद शीर्ष पर न हों। वरना हर जगह जा कर भिड़ जाने वाले लोग इस व्यवस्था में अमिताभ ठाकुर बन जाते हैं, जो आईजी होते हुए खुद किसी थाने में एफआईआर लिखवाने जायें और दारोगा एफआईआर लिखने से मना कर दे। यह सच्ची घटना है। ऐसी स्थिति क्यों बनती है? दारोगा जानता है कि ये आईजी साहब इस व्यवस्था से अलग जा रहे हैं, राज्य सरकार उनके खिलाफ है और इनकी बात सुनने की जरूरत नहीं है। और जब ऐसे लोग ज्यादा परेशानी करने लगते हैं तो उन पर बलात्कार जैसा आरोप भी लगवा दिया जाता है। ऐसे कुछ लोग एस. मंजूनाथ भी बन जाते हैं।
कुछ लोग यह जानते हैं कि शीर्ष पर पहुँचने से पहले बहुत पंगे नहीं लेने हैं। इसीलिए शीर्ष पर पहुँचने के बाद अचानक उनका एक अलग-ही व्यक्तित्व सामने आता है। याद कीजिए टी. एन. शेषन को। चुनाव आयोग के शीर्ष पर पहुँचने से पहले उनकी छवि एक आम नौकरशाह की ही थी। वे सत्ता और व्यवस्था को चुनौती देने वाले शख्स के रूप में उस कुर्सी तक नहीं पहुँचे थे। मगर वहाँ पहुँचने के बाद, एक संवैधानिक सुरक्षा हासिल हो जाने के बाद उन्होंने व्यवस्था को कुछ इस तरह बदल दिया कि इतिहास में उनका नाम सुरक्षित हो गया।
बहुत-से ईमानदार लोग सोचते हैं कि कौन सारे जमाने से दुश्मनी मोल ले, इसलिए बस अपने काम से काम रखा जाये। वे खुद गलत नहीं करते, पर उनकी आँखों के सामने और गलत कर रहा हो तो टाँग अड़ाने भी नहीं जाते। मगर इस श्रेणी के भी दो हिस्से हैं। ऐसे ज्यादातर लोग उपेक्षित रहते हैं। उन्हें हमेशा ऐसी जगहों पर रखा जाता है, जिससे वे बाकी व्यवस्था के लिए बाधा न बनें। वे गुमनामी और आधी-अधूरी सफलता के साथ अपनी जिंदगी इस संतोष के साथ बिता देते हैं कि मैंने खुद कुछ गलत नहीं किया।
पर इनमें से कुछ लोग व्यवस्था के बीच अपने लिए जगह बनाना भी जानते हैं। व्यवस्था भी ऐसे कुछ लोगों को डिस्प्ले में सजे तमगों की तरह सम्मानित करके रखती है और उनका कैसे उपयोग करना है यह अच्छे से जानती है। मगर उनकी भी एक सीमा होती है। आप किरण बेदी हों तो आपको तमाम अवार्ड मिल जायेंगे, पर आपको जेल सँभालने की ही जिम्मेदारी मिल सकती है।
ईमानदार लोगों को ज्यादा जिम्मेदारी की जगह तभी मिल पाती है, जब वे व्यवस्था के पक्ष में ‘ईमानदारी से काम’ कर सकें। व्यवस्था को ऐसे ‘ईमानदार’ लोगों की बहुत जरूरत होती है। इसी तरह की ईमानदारी के बारे में जयंती नटराजन ने भी बताया था। उनके नाम से तो यूपीए-2 सरकार में जयंती टैक्स का मुहावरा चल पड़ा था। पर उन्होंने कुर्सी चले जाने के बाद ‘ईमानदारी से’ बताया था कि उनका काम तो केवल दस्तखत करना था। कहाँ दस्तखत करना है, यह बताने के लिए उनके पास पर्चियाँ आती थीं।
डॉ. मनमोहन सिंह ने भी 10 साल तक बड़ी ‘ईमानदारी’ से प्रधानमंत्री पद सँभाला। उनकी ईमानदारी कैसी थी, इस बारे में उनके मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू अपनी किताब में बहुत कुछ लिख चुके हैं। जिस शासन में भ्रष्टाचार की काली बूँदें बरस रही हों, उसके पदेन मुखिया बिना किसी दाग के बाहर निकले। बिना रेनकोट के यह कैसे संभव हो पाता!
(निवेश मंथन, मार्च 2017)