म्यूचुअल फंडों में निवेश का एक सामान्य नियम है कि जो निवेशक अधिक जोखिम उठा सकते हैं, उन्हें इक्विटी फंडों में निवेश करना चाहिए और जो निवेशक जोखिम से बचना चाहते हैं या सीमित जोखिम लेना चाहते हैं, उन्हें ऋण (डेब्ट) फंडों को चुनना चाहिए।
मगर क्या ऋण फंड पूरी तरह से जोखिम-मुक्त होते हैं? नहीं, जोखिम उनमें भी होता है, मगर इक्विटी फंडों की तुलना में यह जोखिम कम होता है क्योंकि इनके प्रदर्शन में तुलनात्मक रूप से कम उतार-चढ़ाव आता है।
दरअसल जोखिम तो बिल्कुल सुरक्षित माने जाने वाले बैंक जमाओं में भी होता है, क्योंकि अगर कोई बैंक डूब जाये तो भारत के बैंकिंग नियमों के मुताबिक खाताधारक को अधिकतम एक लाख रुपये की ही राहत मिल सकती है, भले ही उसके करोड़ों रुपये उस बैंक में जमा रहे हों। सौभाग्य से भारत में ऐसी स्थितियाँ देखने को नहीं मिली हैं, पर अमेरिका जैसे विकसित देश में बैंकों के डूबने से जो वित्तीय संकट 2008 में आया था, उसके किस्से सबको पता हैं। निवेश की दुनिया में शून्य जोखिम जैसी सुरक्षा केवल सार्वभौम (सरकारी) गारंटी वाले बॉन्ड ही दे सकते हैं।
जब बैंक जमाओं के ब्याज से अधिक प्रतिफल (रिटर्न) पाने के साथ-साथ लगभग उतनी ही तरलता (जब चाहें पैसा निकालने की सुविधा) की जरूरत हो, तो बैंक जमाओं के बदले लिक्विड फंड में निवेश की सलाह दी जाती है। वहीं बैंक एफडी के मुकाबले आप इन्कम फंड चुन सकते हैं। मगर इन ऋण फंडों में निवेश करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि इनमें भी थोड़ा जोखिम तो रहेगा ही। लिहाजा इस जोखिम को सँभालने और कम करने के लिहाज से अपना पोर्टफोलिओ बनाना चाहिए।
ऋण फंडों के निवेशकों के सामने दो तरह के जोखिम होते हैं - एक तो क्रेडिट रिस्क यानी मूलधन पर जोखिम, और दूसरे ब्याज दर जोखिम। दरअसल ऋण फंड निवेशकों से मिली राशि का निवेश विभिन्न ऋण प्रपत्रों में करते हैं। ये ऋण प्रपत्र सरकारी प्रतिभूतियों (जी-सेक) से लेकर निजी कंपनियों के बॉन्ड और कॉर्पोरेट एफडी तक अलग-अलग तरह के और अलग-अलग जोखिम वाले होते हैं। लिहाजा, निवेश के लिए ऋण फंडों को चुनते समय उन फंडों के पोर्टफोलिओ को देखना चाहिए कि उनमें कितना प्रतिशत हिस्सा सरकारी प्रतिभूतियों का है और बाकी पोर्टफोलिओ में कितनी रेटिंग वाले प्रपत्र हैं।
कई बार निजी कंपनियों और उनके ऋण प्रपत्रों की रेटिंग में अचानक बदलाव के चलते उनमें निवेश करने वाले ऋण फंडों की एनएवी में उतार-चढ़ाव आ जाता है। ऐसी घटनाएँ क्रेडिट रिस्क का हिस्सा हैं। वहीं अचानक ब्याज दरों में उतार-चढ़ाव आने से भी ऋण फंडों के प्रदर्शन पर असर पड़ता है। अचानक ब्याज दरें बढ़ जायें तो इससे ऋण फंडों का प्रतिफल घटता है।
जब अर्थव्यवस्था में ब्याज दरें बढ़ती हैं, तो लंबी अवधि के ऋण प्रपत्रों की कीमतों में गिरावट आती है। ऐसे में जिन ऋण फंडों ने उन प्रपत्रों में निवेश कर रखा है, उनकी एनएवी भी घटती है। ऐसे उतार-चढ़ाव का असर लॉन्ग टर्म बॉन्ड फंड और लॉन्ग टर्म गिल्ट फंड आदि पर तो दिखता ही है, सुरक्षित समझे जाने वाले अल्ट्रा शॉर्ट टर्म बॉन्ड फंड भी कुछ हद तक प्रभावित होते ही हैं। ऐसा खास तौर पर तब होता है, जब अल्ट्रा शॉर्ट टर्म बॉन्ड फंड के पोर्टफोलिओ में उसके नाम के विपरीत कुछ लंबी अवधि के बॉन्डों को भी घटती ब्याज दरों का फायदा उठाने के लिए जोड़ा गया हो, और फिर ब्याज दरें घटने के बदले बढऩे लग जायें। ध्यान रखें कि जब अर्थव्यवस्था में ब्याज दरें घटती हैं तो लंबी अवधि के बॉन्डों की कीमतें बढ़ती हैं, जबकि ब्याज दरें बढऩे पर लंबी अवधि के बॉन्डों की कीमतें घटती हैं।
वहीं दूसरी ओर जब अर्थव्यवस्था में ब्याज दरें घटने का दौर होता है, तब ऋण फंडों के निवेशकों को कहीं ज्यादा आकर्षक प्रतिफल मिलता है। मगर निवेशकों को पिछले समय में मिले प्रतिफल के बदले भविष्य की संभावना को देख कर अपनी निवेश रणनीति बनानी चाहिए। जब ब्याज दरों का चक्र बदल रहा हो और दरें घटने का दौर थम रहा हो, तो जानकारों की सलाह होती है कि ऐसे समय में निवेशकों को लॉन्ग टर्म गिल्ट फंडों से पैसे निकाल कर शॉर्ट टर्म या अल्ट्रा शॉर्ट टर्म बॉन्ड फंडों में लगाना चाहिए।
(निवेश मंथन, मार्च 2017)