सुनील कुमार सिन्हा, प्रधान अर्थशास्त्री इंडिया रेटिंग्स :
नोटबंदी के बाद कितने पैसे बैंकों में आये, और कितने नये नोट बाजार में लाये गये इसको लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है। शुरुआत में आरबीआई इसके आँकड़े जारी कर रहा था, पर अब उसके ताजा आँकड़े उपलब्ध नहीं है। पर समझा जा रहा है कि जितने पैसे बैंकों में वापस आ गये हैं, वे नोटबंदी के समय प्रचलन में रहे नोटों के मूल्य के काफी करीब हैं।
लोग 90-95% तक के पुराने नोट बैंकों में जमा हो जाने के कयास लगा रहे हैं। अगर 85% से ज्यादा पुराने नोट भी वापस आ गये हैं, तो सवाल है कि अर्थव्यवस्था को जो कीमत चुकानी पड़ी, क्या उसके बदले कोई लाभ मिला है? इसका सारा उद्देश्य काले धन को बाहर निकालना था। लेकिन भारतीयों की मिली-भगत और जुगाड़ क्षमता ऐसी है कि व्यवस्था से बच निकलना और अपना काम बना लेना आसान रहा। संभवत: सरकार ने व्यवस्था के बीच से अपना रास्ता निकाल लेने की भारतीय कुशलता को कम आँक कर देखा।
कोई व्यक्ति इस योजना के उद्देश्य पर संदेह और सवाल नहीं कर रहा है। लेकिन लोक-वित्त (पब्लिक फाइनेंस) में यह भी पढ़ाया जाता है कि उद्देश्य सही या गलत होना ही सबसे बड़ी बात नहीं है। देखा यह जाता है कि किस लागत पर आप उस उद्देश्य को हासिल कर पा रहे हैं। मान लें कि अगर पूरे कर भुगतान की आदर्श स्थिति लाना चाहें, लेकिन ऐसी आदर्श स्थिति में 100 रुपये के कर संग्रह के लिए मुझे 90 रुपये खर्च करने पड़ सकते हैं।
दूसरी ओर एक स्थिति है कि आप पूरे 100 रुपये का कर संग्रह नहीं कर सकते, शायद 80-85 रुपये ही जुटा सकें, लेकिन उस कर संग्रह के लिए किया जाने वाला खर्च 30 रुपये हो। दोनों में अंतर देखा जाता है।
अभी तक जिस तरह चीजें चली हैं, नोटबंदी की तात्कालिक लागत लोगों के सामने आ गयी है। मगर इसके जो लाभ हासिल करने का उद्देश्य है, वह लाभ कहाँ तक मिलेगा या नहीं मिलेगा यह कोई नहीं जानता। यह भविष्य की बात है।
(निवेश मंथन, जनवरी 2017)