डॉ. बिबेक देबरॉय, सदस्य, नीति आयोग:
भारत अब भी मोटे तौर पर एक अनौपचारिक और असंगठित अर्थव्यवस्था है।
इस अर्थव्यवस्था का 90% हिस्सा अनौपचारिक और असंगठित ही है। इसमें बहुत बड़े स्तर पर स्वरोजगार है। आँकड़ों के संदर्भ में भी इस बात को याद रखना महत्वपूर्ण है। जब भी कोई श्रम और रोजगार के आँकड़ों की बात करता है, तो वे मूल रूप से दो तरह के स्रोतों से आते हैं। इनमें पहला स्रोत है हाउसहोल्ड सर्वे यानी घरेलू सर्वेक्षण का। भारत जैसे देश में घरेलू सर्वेक्षण की एक समस्या यह है कि पारंपरिक घरेलू सर्वेक्षण को नेशनल सैंपल सर्वे (एनएसएस) करता है। एनएसएस के पास काफी बड़ा सैंपल होता है, जो अमूमन पाँच साल पर इक_ा किया जाता है। पिछला एनएसएस सर्वे 2011-12 में किया गया था। मेरे पास उसके बाद का कुछ नहीं है। अगला एनएसएस 2017-18 में होना है। अब यह जरूर किया गया है कि श्रम और रोजगार के लिए एक अलग एनएसएस होगा, जिसके आँकड़े 2018 में आयेंगे।
इसके साथ, हमारे पास श्रम (लेबर) ब्यूरो है जो उद्यमों का सर्वे करता है। याद रखना चाहिए कि श्रम ब्यूरो की कवायद कैसे शुरू हुई थी। इसे 2007-08 में वैश्विक मंदी के बाद शुरू किया गया था। मूल रूप से इसका मुख्य ध्यान निर्यात आधारित क्षेत्रों पर रखा गया था ताकि उन क्षेत्रों पर वैश्विक घटनाक्रम के असर को समझा जा सके। बाद में उसमें श्रम और रोजगार वगैरह को जोड़ा गया। लेकिन श्रम ब्यूरो का सैंपल आकार, सैंपलिंग डिजाइन वगैरह ऐसा नहीं है, जिससे श्रम और रोजगार के बारे में बहुत कुछ जाना जा सके। उसके आँकड़ों से कभी एक रिपोर्ट निकाल कर कहा जाता है कि रोजगार विहीन विकास हो रहा है, कभी दूसरी रिपोर्ट निकाल कर कहा जाता है कि बिना विकास के रोजगार पैदा हो रहा है।
स्वरोजगार और असंगठित क्षेत्र के मद्देनजर यह समझना होगा कि रोजगार और नौकरियों पर भरोसेमंद आँकड़े तभी मिल सकते हैं, जब उद्यम आधारित सर्वेक्षणों के अतिरिक्त घरेलू सर्वेक्षण भी किया जाये। ऐसा नहीं करने से हमेशा गलत तस्वीर ही मिलेगी।
भारत में कुल श्रम-शक्ति कितनी है - लगभग 47-50 करोड़ लोगों की। इनमें से कितने संगठित क्षेत्र में हैं - केवल 3 करोड़। संगठित क्षेत्र की परिभाषा को कुछ विस्तार दे कर ईपीएफओ को शामिल कर लिया जाये, तो भी यह संख्या 4.5 करोड़ तक पहुँचती है। भारत में रोजगार क्यों नहीं बढ़ रहा है, यह बहस बहुत पुरानी है। पहले की कमी और श्रम-शक्ति में जुडऩे वाले नये लोगों की संख्या को देखते हुए सालाना 1-1.2 करोड़ लोगों को रोजगार दिये जाने की जरूरत है। पर हम कितने नये रोजगार पैदा कर पा रहे हैं? हमें मालूम ही नहीं! लेकिन अगर श्रम ब्यूरो के आँकड़ों पर विश्वास करें, तो यह संख्या लगभग 10 लाख की है। मुझे इस पर विश्वास नहीं है।
भारत में मैन्युफैक्चरिंग खास तौर पर पूँजी-केंद्रित क्यों है? लोगों से पूछें तो जवाब मिलेगा - श्रम कानूनों के चलते। उनका मतलब मुख्य रूप से औद्योगिक विवाद अधिनियम की कुछ धाराओं से होता है। श्रम कानूनों को कब सख्त बनाया गया था - 1977-78 में या 1984-85 में। सवाल है कि 1991 के बाद क्या स्थिति बिगड़ी है? यह तर्क नहीं दिया जा सकता कि 1991 के बाद से श्रम कानून ज्यादा सख्त हुए हैं। तब से उनमें ज्यादा नहीं तो थोड़ा सुधार ही हुआ है, स्थिति बिगड़ी तो नहीं है। तो फिर 1991 के बाद पूँजी पर निर्भरता और ज्यादा क्यों बढ़ी है?
मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र ऐतिहासिक रूप से ही पूँजी-केंद्रित रहा है, पर कुछ अध्ययन बताते हैं कि 1991 के बाद से खास तौर पर संगठित मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र पहले से ज्यादा पूँजी-केंद्रित हुआ है। इस वजह से मैन्युफैक्चरिंग से रोजगार पैदा होने की संभावनाएँ अब उतनी नहीं रहती हैं, जितनी पहले होती थीं। पूँजी और श्रम के बीच का चयन एक तुलनात्मक चयन है। यह श्रम की कुल लागत या पूँजी की कुल लागत पर निर्भर नहीं है, बल्कि इनके अनुपात पर निर्भर है। 1991 के सुधारों से श्रम लागत में कमी नहीं आयी है, पर पूँजी की लागत निश्चित रूप से घटी है। इसलिए श्रम कानूनों के असर के साथ-साथ इस कारण से भी चयन श्रम के बदले पूँजी की ओर झुका है।
हमारे पास सरकारी आँकड़े नहीं हैं। लेकिन सरकारी क्षेत्र से बाहर हमारे पास आँकड़ों के ठीक-ठाक स्रोत हैं, जिनके सैंपल का आकार भी ठीक-ठाक है। सीएमआईई का सर्वेक्षण हमें एक दिलचस्प बात बताता है। सीएमआईई सर्वेक्षण बताता है कि भारत में अनैच्छिक बेरोजगारी नहीं, बल्कि स्वैच्छिक बेरोजगारी बढ़ी है। अनैच्छिक बेरोजगारी बहुत नहीं बढ़ी है, पर स्वैच्छिक बेरोजगारी बहुत नाटकीय ढंग से बढ़ी है।
यहाँ सवाल है कि बाजार को क्यों नहीं माँग और आपूर्ति के बीच संतुलन स्थापित करना चाहिए? पूर्वी भारत में ऐसे लोग मिलेंगे जो कहेंगे कि उन्हें काम नहीं मिल रहा है। लेकिन पंजाब, केरल या हरियाणा में ऐसे लोग मिलेंगे जो कहेंगे कि मुझे अद्र्ध-प्रशिक्षित कामगार भी नहीं मिल पा रहा है। कामगारों की माँग देश के एक हिस्से में है और श्रम की उपलब्धता दूसरे हिस्से में है।
अगर पर्याप्त संख्या में रोजगार सृजन नहीं हुआ, तो इससे भारी असंतोष पनपेगा। इस युग में आकांक्षाएँ तुलनात्मक हैं। आँकड़ों के बारे में जो भी स्थिति हो, धारणा बहुत साफ है कि पर्याप्त रोजगार सृजन नहीं हो रहा है।
(निवेश मंथन, जून 2017)