अगर मोदी सरकार और भाजपा का यह कहना है कि सत्ता में उसके तीन साल यूपीए के बनाये गड्ढे भरने में ही निकल गये,
तो फिर नयी इमारत बनाने के लिए कितने साल चाहिए होंगे? मोदी सरकार को यह ध्यान रखने की जरूरत है कि मौजूदा कार्यकाल के अब दो ही साल बचे हैं, और अपने वादे के मुताबिक मोदी जी को 2019 में पूरा रिपोर्ट-कार्ड प्रस्तुत करना है। उस रिपोर्ट कार्ड को देख कर ही जनता आगे का फैसला करेगी। दरअसल हाल में विपक्ष की दयनीय हालत देख कर सरकार, सत्तारूढ़ दल के विस्तृत संगठन और राजनीतिक-आर्थिक विश्लेषकों के एक बड़े वर्ग को भी लगने लगा है कि 2019 का लोकसभा चुनाव जीतना भाजपा के लिए बहुत आसान होगा। पर चुनाव कभी आसान नहीं होते। जनता का मिजाज तेजी से बदलता भी है।
हर बात पर यूपीए को उलाहना देने के बदले मोदी सरकार को यह बताना होगा कि उसकी अपनी उपलब्धियाँ क्या हैं। यह सच है कि मोदी सरकार इन तीन वर्षों की उपलब्धियाँ गिनाने में भी पीछे नहीं है। पर जब भी वह किसी बात पर कहती है कि तीन साल गड्ढे भरने में निकल गये, तो ऐसा ध्वनित होता है मानो वह सफलता न मिलने के बहाने बना रही है।
भाजपा सरकार ने तीन साल पूरे होने पर देश भर में जश्न का एक सरकारी और दलीय आयोजन कर डाला। सरकार ने इस जश्न को मेकिंग ऑफ डेवलपिंग इंडिया फेस्टिवल या मोदी फेस्टिवल का ही नाम दे दिया। दूसरी ओर कांग्रेस ने तीन साल 30 तिकड़म का जुमला उछाला। मगर राजनीतिक नारेबाजियों से अलग हट कर देखते हैं कि इन तीन सालों में क्या बदला है और कितना काम हुआ है।
भ्रष्टाचार पर अंकुश
कौटिल्य ने कहा था कि जिस तरह मछली पानी में रहते हुए कब पानी पीती है इसका पता नहीं चलता, इसी तरह शासन के कर्मचारी कब भ्रष्टाचार कर जाते हैं यह पता नहीं चलता। लेकिन यह अवश्य कहा जा सकता है कि घोटालों का पर्याय बन गयी यूपीए सरकार की तुलना में मोदी सरकार पर इन तीन सालों में भ्रष्टाचार का कोई गंभीर आरोप नहीं लगा है। अगर वित्त मंत्री अरुण जेटली और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह दोनों ही तीन साल की उपलब्धियों में यह बात प्रमुखता से रखते हैं कि इस दौरान केंद्र सरकार पर भ्रष्टाचार का दाग नहीं लगा, तो इस दावे में वजन लगता है। उल्टे, मोदी सरकार ने पिछली सरकार के %कारनामोंÓ पर ही अपनी एजेंसियों को खूब सक्रिय कर रखा है, जिससे विपक्षी कांग्रेस ही लगातार बचाव की मुद्रा में दिखती है। कांग्रेस के खास सहयोगी लालू प्रसाद यादव भी स्वयं और अपने परिवार के ऊपर लगने वाले नये-पुराने आरोपों की जद में हैं।
काला धन : आधी हकीकत, आधा फसाना
काले धन के विरुद्ध मोदी सरकार ने सबसे सख्त कदम उठाये हैं, मगर यह भी सच है कि उनकी तुलना में अब तक जो नतीजे सतह पर दिख रहे हैं वे काफी हल्के हैं। विदेश में अघोषित खाते या संपत्ति रखने के विरुद्ध इस सरकार ने कठोरतम कानून बनाया है। मगर विदेश से काला धन वापस ला सकने के मामले में इसे बुरी तरह मुँह की खानी पड़ी है। यदि हम यह मान भी लें कि सरकार की नीयत ठीक रही है, तो इसका मतलब है कि विदेश चले गये काले धन की पड़ताल कर पाना और उसे वापस ला सकना बेहद मुश्किल साबित हुआ है। विपक्ष में रह कर मुद्दे उछालने और सरकार में रह कर किसी काम को पूरा करने के बीच का व्यावहारिक अंतर क्या होता है, यह इस बात से साफ दिखता है।
मोदी सरकार ने नोटबंदी का जो ऐतिहासिक फैसला लिया, वह भी देश के अंदर छिपे काले धन को बाहर निकालने के मकसद से था। मगर अंत में आरबीआई के पास जमा कुल रकम और जुर्माना दे कर काला धन घोषित करने की योजना के तहत जमा हुए पैसों की कुल राशि के आधार पर जो नतीजे सामने हैं, उनसे साफ है कि काला धन सफेद बनाने वाले खिलाड़ी सरकारी मशीनरी से ज्यादा तेज निकले।
नोटबंदी पूरी होने के इतने समय बाद भी आरबीआई ने यह जानकारी सार्वजनिक नहीं की है कि रद्द किये गये पुराने नोटों में से कितने उसके पास वापस लौट आये। यह आम धारणा है कि नाम-मात्र के पुराने नोट ही आरबीआई के पास आने से बचे रह गये। वहीं प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना में केवल 5,000 करोड़ रुपये जमा हुए। सरकार को भी मानना पड़ा है कि इस योजना पर मिली प्रतिक्रिया अच्छी नहीं रही। काला धन रखने वालों के न तो नोट रद्दी हुए, न उन्होंने जुर्माना भरा।
तो कुल मिला कर काले धन के मोर्चे पर इन तीन सालों में हासिल क्या हुआ? क्या सब कुछ फसाना ही साबित हुआ? नहीं। हकीकत यह है कि काला धन विदेश ले जाना या विदेश से वापस लाना पहले की तुलना में काफी मुश्किल हो चुका है। देश के अंदर नकद लेन-देन पर काफी सख्ती हो चुकी है, जो काले धन की जड़ है। बीते वित्त वर्ष में कर संग्रह में आयी तेजी से यह संकेत मिलता है कि काले धन को सफेद बनाने के लिए ज्यादा आमदनी घोषित की गयी और जाहिर है कि उस पर कर चुकाया गया। काला धन नोटबंदी के जरिये बिछाये गये जाल में नहीं फँसा, पर रंग बदल कर बैंकिंग प्रणाली में प्रवेश कर गया।
अर्थव्यवस्था पटरी पर
तीन साल पहले की तुलना में आज भारतीय अर्थव्यवस्था कहीं ज्यादा मजबूत नजर आती है। यह जरूर है कि 2016-17 की चौथी तिमाही में भारत की आर्थिक विकास दर या जीडीपी वृद्धि घट कर केवल 6.1% रह गयी है। मगर इससे पहले लगातार बीते तीन साल के सालाना आँकड़ों को देखें तो विकास दर 2014-15 में 7.3%, 2015-16 में 8% और 2016-17 में 7.1% रही है। इससे ठीक पहले यूपीए के अंतिम दो वित्त वर्षों में विकास दर 5.5% और 6.5% पर थी।
निर्यात में मंदी की स्थिति भी सुधरती दिख रही है। निर्यात वृद्धि दर 2016-17 की पहली तिमाही में महज 2.0% और दूसरी तिमाही में 1.5% थी, जो तीसरी तिमाही में बढ़ कर 4.0% और अब चौथी तिमाही में 10.3% हो गयी है।
सरकारी घाटा (फिस्कल डेफिसिट) अच्छी तरह नियंत्रण में है और यह बात घरेलू-विदेशी निवेशकों के साथ-साथ रेटिंग एजेंसियों को भी सुकून देने वाली है। वित्त वर्ष 2011-12 में सरकारी घाटा जीडीपी के 5.9% पर था, जो तब से घटते हुए 2016-17 में 3.5% पर आ गया और 2017-18 में 3.2% रहने का अनुमान है।
एक दिलचस्प रुझान चालू खाते के घाटे (सीएडी) के बारे में दिखता है। वाजपेयी सरकार के अंतिम वित्त वर्ष 2003-04 में चालू खाते में घाटे के बदले 2.3% अधिशेष (सरप्लस) था। यूपीए सरकार के प्रथम वित्त वर्ष में 0.3% का घाटा (सीएडी) रहा, जो निरंतर बढ़ते हुए 2012-13 में 4.8% पर पहुँच गया। यह स्वतंत्र भारत का अधिकतम चालू खाता घाटा था। मोदी सरकार के तीन वर्षों में सीएडी लगातार घटा है और 2016-17 में केवल 0.6% पर आ गया है।
बुनियादी ढाँचे में सरकारी निवेश
मोदी सरकार ने सत्ता सँभालते ही अर्थव्यवस्था को मजबूती देने के लिए बुनियादी ढाँचे में बड़े स्तर पर सरकारी निवेश की रणनीति अपनायी। यूपीए सरकार के अंतिम दो वर्षों में सड़क निर्माण के ऑर्डर 2012-13 में 2,198 किलोमीटर और 2013-14 में 2,114 किलोमीटर के थे। मोदी सरकार के आने पर यह बढ़ कर 2014-15 में 7,336 किलोमीटर, 2015-16 में 10,098 किलोमीटर और 2016-17 में 16,271 किलोमीटर के रिकॉर्ड स्तर पर पहुँच गया। सड़क निर्माण पूरा होने के आँकड़े भी देखें तो 2016-17 में इसमें 35% वृद्धि हुई और 22 किलोमीटर प्रति दिन के औसत से 8,231 किलोमीटर सड़क निर्माण हुआ।
रेलवे में भी बुनियादी ढाँचे पर खर्च बढ़ाया गया है। 2014-18 के वित्त वर्षों में रेलवे के लिए बजट आवंटन में 25% वृद्धि हुई है। एक आकलन के मुताबिक 2015-19 के वित्त वर्षों में रेलवे 8,560 अरब रुपये का पूँजीगत खर्च करने जा रहा है।
महँगाई से राहत
पिछले तीन वर्षों की एक खास बात यह है कि इस दौरान महँगाई दर लगातार नियंत्रण में रही है। हालाँकि इसमें कच्चे तेल की निचली वैश्विक कीमतों से भी मदद मिली है। साथ ही सब्जियों के दाम भी कम रहे हैं। खुदरा महँगाई दर (सीपीआई) अप्रैल 2014 में 8.5% के स्तर पर थी, जो अप्रैल 2017 में 3% पर है। खाद्य महँगाई दर यूपीए के अंतिम वर्षों में वित्त वर्ष 2011-12 से 2013-14 के दौरान दो अंकों में बनी रही थी। यह वित्त वर्ष 2014-15 में 6.4%, 2015-16 में 4.9% और 2016-17 में 4.2% रही। अप्रैल 2017 के महीने में खुदरा महँगाई दर केवल 2.99% रही और खाद्य महँगाई दर महज 0.61% रही।
हालाँकि जानकार आगाह करते हैं कि आने वाले महीनों में फिर से महँगाई दर सिर उठा सकती है। खाद्य महँगाई अभी काफी नीचे है। सब्जियों के भावों में तो 8.6% की गिरावट आयी है। दालों के भाव 15.9% घटे हैं। अगर भविष्य में खाद्य महँगाई दर वापस 5% की ओर लौटेगी तो जानकारों का आकलन है कि इससे महँगाई दर में 1.7% अंक की वृद्धि हो सकती है।
जीएसटी लागू होने के बाद महँगाई की चाल पर सरकार को खास नजर रखनी होगी। ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, जापान, मलयेशिया और सिंगापुर जैसे देशों में जीएसटी दर पिछले करों की तुलना में कम रखे जाने के बावजूद जीएसटी लागू होने के बाद महँगाई दर बढ़ गयी। मलयेशिया ने तो मुनाफाखोरी रोकने के लिए काफी सख्ती दिखायी, फिर भी महँगाई बढ़ी।
विदेशी निवेश में तेजी
मोदी सरकार के तीन वर्षों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) में भी अच्छी वृद्धि हुई है। 2013-14 के 36 अरब डॉलर की तुलना में 2014-15 में 45 अरब और 2015-16 में 55.6 अरब डॉलर का एफडीआई आया। वर्ष 2016-17 में एफडीआई निवेश पिछले साल से 9% बढ़ कर 60.1 अरब डॉलर के उच्चतम स्तर पर पहुँच गया। इसमें मोदी सरकार की एफडीआई-अनुकूल नीति का स्पष्ट योगदान माना जा सकता है। इस सरकार ने बीते तीन वर्षों में 21 क्षेत्रों में एफडीआई के नियमों में ढील दी है।
मेक इन इंडिया कार्यक्रम ने भी एफडीआई निवेश में तेजी लाने में मदद की है। अक्टूबर 2014 से मार्च 2017 के दौरान कुल एफडीआई निवेश 99.72 अरब डॉलर का रहा, जो इससे पिछले 30 महीनों की अवधि में आये 61.41 अरब डॉलर के निवेश की तुलना में 62% ज्यादा है। एफडीआई के साथ-साथ फॉरेन पोर्टफोलिओ निवेश (एफपीआई) के आँकड़े भी अच्छे रहने से डॉलर की तुलना में रुपया भी मजबूत चल रहा है। साल 2017 में अब तक डॉलर के मुकाबले अपनी मुद्रा की मजबूती के मामले में भारत रूस के बाद दूसरे स्थान पर है।
सुधारों की झड़ी
इस बाद में संदेह नहीं कि वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को आगे बढ़ाने का काम वाजपेयी सरकार के समय से ही चल रहा है और यूपीए ने भी इस दिशा में काफी काम किया। मगर अंतत: सभी पक्षों को सहमति के बिंदु पर ला कर इसे अमल में लाने का श्रेय मोदी सरकार को ही मिलने जा रहा है और 1 जुलाई 2017 से इसके लागू होने पर अब कोई संदेह नहीं रह गया है। उद्योग संगठन फिक्की के पंकज पटेल उम्मीद जताते हैं कि जीएसटी का लागू होना पूरे खेल को बदलने वाला साबित होगा।
एफडीआई नियमों में ढील, प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (डीबीटी) के माध्यम से सब्सिडी व्यवस्था में सुधार, जन धन योजना के माध्यम से 25 करोड़ नये बैंक खाते, मेक इन इंडिया, उज्ज्वला योजना, बिजली क्षेत्र की वित्तीय समस्याओं को सुलझाने के लिए उदय योजना, पेट्रोल एवं डीजल की कीमतों से सरकारी नियंत्रण हटाने, कोयला, स्पेक्ट्रम आदि प्राकृतिक संसाधनों के लिए पारदर्शी नीलामी, व्यापार सुगमता (ईज ऑफ डूइंग) जैसे प्रयासों ने दिखाया है कि यह सरकार आर्थिक सुधारों की दिशा में तेजी से बढ़ रही है। पंकज पटेल कहते हैं कि सुधार के लिए उठाये गये विभिन्न कदम भविष्य के लिए एक मजबूत नींव रख रहे हैं।
मोदी सरकार ने उज्ज्वला योजना के तहत 2019 तक पाँच करोड़ नये गैस कनेक्शन बीपीएल कार्डधारकों और ग्रामीण गरीबों को देने का वादा किया है। ताजा सरकारी आँकड़ों के मुताबिक इनमें से दो करोड़ से अधिक गैस कनेक्शन दिये जा चुके हैं। अमित शाह इसे सामाजिक सशक्तीकरण का औजार बताते हैं, जो एक समूचे परिवार को प्रभावित करता है। जब वे कहते हैं कि उनकी सरकार ने गरीब की झोपड़ी को धुआँमुक्त करने का काम किया है, तो इस बात पर तालियाँ भी बजती हैं। अगर इस सरकार ने साढ़े चार करोड़ शौचालय बनवाये तो यह समझा जा सकता है कि इसने इतने ही गरीब परिवारों की जिंदगी को छुआ है।
निजी निवेश और एनपीए बड़ी चुनौतियाँ
इस समय सरकार के सामने दो बड़ी चुनौतियाँ निजी निवेश में सुस्ती और बैंकों के फँसे ऋणों (एनपीए) के रूप में हैं। निजी निवेश में अगर तेजी नहीं आ रही है, तो इसके लिए भी अमित शाह यूपीए के 10 वर्षों के शासन पर प्रहार करना नहीं भूलते। उनका कहना है कि यूपीए के इन 10 वर्षों में बैंकिंग व्यवस्था चरमरा कर रह गयी, जिसे मरम्मत करने में समय लग रहा है। निजी निवेश नहीं बढ़ पाने के लिए वे अदालती मुकदमों, आर्बिट्रेशन, एनपीए आदि को मुख्य वजह बताते हैं और साथ में गिनाते हैं कि किस तरह मोदी सरकार ने कोयला क्षेत्र को मुकदमों के जाल से बाहर निकाला। यह बात सच है कि कोयले की जो तंगी 2014 में दिख रही थी, वह आज नहीं है और कोयले के आयात पर निर्भरता खत्म हो गयी है। खानों और स्पेक्ट्रम की पारदर्शी और बाजार प्रक्रिया आधारित नीलामी ने यूपीए के दौर की तुलना में एक अलग तस्वीर पेश की है।
अमित शाह मोदी सरकार को इस बात का भी श्रेय देते हैं कि बैंकों के कामकाज में राजनीतिक दखलअंदाजी खत्म हो गयी है। वे साफ कहते हैं कि सरकार बैंकिंग क्षेत्र के लिए नीतियाँ बना रही है, मगर उन पर अमल में कोई राजनीतिक हस्तक्षेप अब नहीं हो रहा है। उनके इस दावे का कोई गंभीर प्रतिवाद नजर नहीं आता।
इन तीन सालों में मोदी सरकार की खास उपलब्धि यह भी है कि उसने अपनी अर्थनीति से राजनीति को पलट कर रख दिया है। इस सरकार के बनने के साथ ही विपक्ष ने हमला बोल दिया था कि यह उद्योगपतियों की सरकार है। दक्षिणपंथी रुझान वाली भाजपा पर यह आरोप लगाना विपक्ष के लिए आसान और सहज था। मगर तीन साल बाद अमित शाह खम ठोक कर कहते हैं कि यह गरीबों की सरकार है और विपक्ष इस दावे पर केवल तिलमिला कर रह जाता है। गरीब-गुरबे तक बैंक खाते, रसोई गैस, गाँवों तक बिजली, ग्रामीण सड़क, शौचालय जैसी चीजें पहुँचा कर मोदी सरकार ने अंबानी-अदाणी की सरकार होने का जुमला अपने सिर से उतार दिया है।
(निवेश मंथन, जून 2017)