राजेश रपरिया, सलाहकार संपादक :
भारतीय जनता पार्टी को उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में अभूतपूर्व बहुमत मिला है।
लोकसभा में भी भाजपा का प्रचंड बहुमत है। देश ने चुनावों में भाजपा, विशेषकर मोदी और उनकी सरकार पर भरोसा जताया है। इसके बाद भी मोदी सरकार संसद में बहस से क्यों मुँह चुराती है, यह सवाल संसदीय लोकतंत्र का सम्मान और उसमें विश्वास रखने वाले हर नागरिक को परेशान कर रहा है। बजट संसद में पारित हो गया, पर अंतिम समय में डाले गये 32 संशोधनों पर बहस का मौका ही वित्त मंत्री अरुण जेटली ने देना मुनासिब नहीं समझा। इससे संसदीय लोकतंत्र और उसके सम्मान के प्रति मोदी सरकार की नीति और नीयत पर संदेह पनपना स्वाभाविक है।
1 फरवरी को वित्त मंत्री ने बजट भाषण पढ़ा और बजट दस्तावेज संसद में पटल पर रखे। इस दिन पेश वित्त विधेयक में 8-10 कानून संशोधनों का प्रस्ताव था। 21 मार्च को वित्त विधेयक को दोबारा लोकसभा में पेश किया गया और 22 मार्च को पारित कर दिया गया। राज्य सभा में 27 मार्च को इस संशोधित विधेयक पर बहस हुई। पाँच संशोधन राज्यसभा में पारित हुए। पर लोकसभा में इन संशोधनों को खारिज कर दिया गया। अंतिम क्षणों में इतने संशोधन क्यों किये गये, जिससे इन पर लोकसभा को चर्चा का समय ही नहीं मिला। महज 48 घंटों में लोकसभा इसे समेट दिया गया, जिसमें सांसद और उत्तर प्रदेश के नये मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी का लंबा-चौड़ा भाषण भी शामिल है। इसका वित्त विधेयक से कोई वास्ता नहीं था। इसके अलावा और भी व्यवधान इन 48 घंटों में शामिल हैं। डरावनी बात है कि लोकसभा के तमाम सांसदों को वित्त विधेयक का नया प्रारूप भी उपलब्ध नहीं कराया गया।
गौरतलब यह है कि इन 40 संशोधनों में कई ऐसे संशोधन हैं जो धन विधेयक दायरे में नहीं आते हैं। धन विधेयक में कराधान और वित्त से जुड़े विषय ही होते हें। पर इस विधेयक में अन्य मंत्रालयों से जुड़े कानूनों में बदलाव भी किये गये हैं, जो संसदीय लोकतंत्र के लिए खतरनाक प्रवृत्ति है। ये तिकड़में संसदीय लोकतंत्र को कमजोर करती हैं। वित्त मंत्री पिछले बजट में भी ऐसा कर चुके हैं। इस संदर्भ में लोकसभा अध्यक्ष का रवैया भी संसदीय परंपरा और गरिमा के अनुरूप नहीं है। कौन-सा विधेयक धन विधेयक होगा, इसका अंतिम निर्णय करना लोकसभा अध्यक्ष का विशेषाधिकार है, जिसे अदालत में भी चुनौती नहीं दी जा सकती है। पर इसका दायरा संविधान के अनुच्छेद 110 के प्रावधानों के अधीन है, जो धन विधेयक को निर्धारित करते हैं।
राजनीतिक चंदे को लेकर जो बदलाव किये गये हैं, वे संसदीय लोकतंत्र के लिए दुर्घात हैं। इन बदलावों ने मोदी सरकार के राजनीतिक पार्टियों के वित्तपोषण के पारदर्शी, निष्पक्ष और स्पष्ट चुनाव प्रणाली के वायदों-वचनों को ही धराशायी कर दिया है, जिसका जिक्र वित्त मंत्री ने 1 फरवरी को अपने बजट भाषण में बड़े जोर-शोर से किया था। एक राजनीतिक पार्टी को एक व्यक्ति से नकद चंदे पर अधिकतम 2,000 रुपये की सीमा लगा देने से लगा था कि मोदी सरकार की मंशा राजनीति और चुनावों में पारदर्शिता लाने की है। चुनावी बॉन्ड को भी सकारात्मक कदम माना गया। लेकिन अंतिम समय में धन विधेयक में कंपनियों पर राजनीतिक दलों को चंदा देने की सीमा को समाप्त कर दिया गया।
पहले नियम था कि कंपनियाँ अपने मुनाफे का अधिकतम 7.5% चंदा ही राजनीतिक दलों को दे सकती थीं, चाहे वह एक लाख रुपये हो या 1,000 करोड़ रुपये। पर अब कंपनियाँ सारा मुनाफा राजनीतिक चंदे के रूप में दे सकती हैं। इससे भी भयावह बदलाव यह है कि कंपनियों को नाम बताने की कोई कानूनी बाध्यता नहीं है कि चंदा किस राजनीतिक दल को दिया गया है, चुंनाव आयोग को भी नहीं। अब राजनीतिक चंदा देने के लिए कंपनी को न निदेशक मंडल से स्वीकृति लेने की जरूरत है, न कंपनी के शेयरधारकों को बताने की बाध्यता रह गयी है।
सब जानते हैं कि कारोबारी सबसे ज्यादा चंदा सत्ताधारी दल को ही देते हैं। कई बार जबरिया वसूली भी होती है। अब सरकारी ठेका लेने वालों, सरकार से लाभ उठाने वालों की मौज हो जायेगी। वित्त मंत्री के इन फैसलों से काला धन समाप्त करने की मोदी सरकार की मुहिम पर पानी फिर गया है। इससे कर चोरों और अवैध कमाई करने वालों को काला धन कमाने और खपाने का सुरक्षित रास्ता भी मुहैया हो गया है। इससे राजनीति और भ्रष्टाचार के कॉरर्पोरेट गठजोड़ को दोगुनी ताकत मिलना तय है, जिसके खात्मे के लिए देश ने मोदी को सत्ता पर बैठाया था। 1975 में बॉम्बे हाईकोर्ट के तत्कालीन मुख्यन्यायाधीश एम.पी. छागला ने एक निर्णय में चेताया था कि कॉरर्पोरेट चंदा अदम्य खतरा है, जो लोकतंत्र का गला घोंट सकता है। क्या यह नये भारत का आगाज है?
(निवेश मंथन, अप्रैल 2017)