वित्त मंत्री ने सरकारी खर्च पर नियंत्रण रख कर राजकोषीय अनुशासन का जो रास्ता चुना है, वह बाजार के साथ-साथ रेटिंग एजेंसियों को भी खूब पसंद आया है।
मगर आय कर में भारी वृद्धि के अनुमान एक रहस्य की तरह सामने आये हैं। सरकारी आय और घाटे के नियंत्रण से जुड़े अनुमानों का लेखा-जोखा कर रहे हैं राजेश रपरिया।
वित्त मंत्री अरुण जेटली के पेश बजट में किसानों और गाँवों को सरकार की प्राथमिकताओं में शीर्ष पर रखा गया है। उन्होंने कहा है कि कृषि, गाँव, सामाजिक क्षेत्र, अवसंरचना (इन्फ्रास्ट्रक्चर) और रोजगार सृजन में निवेश बढ़ाने के लिए सरकार दृढ़ प्रतिज्ञ है। बजट में उन्होंने कृषि, ग्रामीण और संबंधित क्षेत्रों के लिए 1.87 लाख रुपये दिये हैं जो पहले से 24% अधिक है, जबकि सरकार के कुल खर्च में 6.5% की वृद्धि हुई है, जो पहले 12.5% थी। सरकारी व्यय के मामलों में यह एक महत्वपूर्ण पहल मानी जा सकती है। पर बजट में कॉरपोरेट क्षेत्र और शेयर बाजार के लिए वित्त मंत्री ने आतिशी घोषणाएँ नहीं की, फिर भी बजट के दिन शेयर बाजार में तेज उछाल आयी। ऐसा 12 साल बाद हुआ है कि बजट के दिन शेयर सूचकांक इतना बढ़ कर बंद हुआ हो। इससे पहले 2005 के बजट के दिन बीएसई का सेंसेक्स 2.19% बढ़ कर बंद हुआ था। उस बजट में तत्कालीन वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने आय कर छूट की सीमा को एक झटके में 100% बढ़ा कर 50,000 रुपये सालाना से एक लाख रुपये सालाना कर दी थी। इस बजट में अरुण जेटली ने ऐसा कुछ नहीं किया है। आय कर में मामूली राहत दी है, जिससे महज 26,000 करोड़ रुपये की राहत आय कर दाताओं को मिली, जबकि आय कर संग्रह को 25% वृद्धि के साथ लक्ष्य 4,41,255 करोड़ रुपये रखा है, जबकि वित्त मंत्री का कुल कर राजस्व लक्ष्य महज 12% है।
पहली बार ही ऐसा हुआ है जब बजट को किसान-गाँव प्रधान बताया गया है, और फिर भी इसे शेयर बाजार का इतना जबरदस्त समर्थन मिला है। पिछले साल भी बजट में गाँव और किसानों को सर्वोच्च प्राथमिकता बताया गया था, पर सेंसेक्स 0.66% गिर कर बंद हुआ था। शेयर बाजार का यह रुख विस्मयकारी माना जा सकता है।
शेयर बाजार के इस विस्मयकारी रुख की कई वजह हैं। शेयर बाजार का सबसे बड़ा हौवा कैपिटल गेन टैक्स था। प्रधानमंत्री मोदी ने एक भाषण में कहा था कि शेयर बाजार के लोग कर राजस्व में कम योगदान करते हैं। प्रधानमंत्री मोदी की छवि को लेकर आम धारणा है कि उन्होंने कहा है, तो करके अवश्य दिखायेंगे। इसलिए बजट को लेकर बाजार और कंपनियाँ डरी हुई थीं कि दीर्घकालिक पूँजीगत लाभ कर आ सकता है, जो अभी नहीं लगता है। पर बजट में ऐसा कुछ नहीं हुआ है। इससे शेयर बाजार का फौरी तौर पर चहकना स्वाभाविक था।
लेकिन देशी-विदेशी निवेशकों का बजट में सरकार की वित्तीय अनुशासन और सरकारी घाटे को कम करने के प्रति उसकी संकल्पशक्ति से भरोसा बढ़ा भी है और लौटा भी है। इसका स्थायी और दीर्घकालिक लाभ सरकार को मिलेगा। नोटबंदी के दर्द और उससे उपजी भारी उम्मीदों के बीच एक आशंका थी कि सरकार राजकोषीय घाटे (फिस्कल डेफिसिट) के घोषित लक्ष्य को इस बार छोड़ सकती है। पर इस बजट में वित्त मंत्री ने 2017-18 के लिए सरकारी घाटे का यह लक्ष्य सकल घरेलू उत्पाद का 3.2% रखा है, जो पहले से तय लक्ष्य 3% से महज 0.2% ज्यादा है। फिच, मूडीज, डेलॉयट जैसी वैश्विक कंपनियों को भरोसा है कि कच्चे हिसाब के रहते हुए भी वित्त मंत्री यह लक्ष्य हासिल कर सकते हैं। इसका एक बड़ा कारण और भी है। चालू वित्त वर्ष में सरकारी घाटे का लक्ष्य 3.5% था। इस पर वित्त मंत्री टिके हुए हैं, जबकि इस साल बजट अनुमानों में सरकार का व्यय तकरीबन 46,000 करोड़ रुपये ज्यादा हुआ है। इससे वित्त मंत्री के आकलन पर इन एजेंसियों का भरोसा बढ़ा हुआ है।
मूडीज इन्वेस्टर्स सर्विस का आकलन है कि वित्त मंत्री अरुण जेटली के चौथे बजट में राजकोषीय अनुशासन पर काफी जोर है, जबकि अधिक सार्वजनिक निवेश (पूँजीगत व्यय) भारत की सार्वभौमिक रेटिंग के लिए सकारात्मक है। बजट पर फिच की प्रतिक्रिया भी उत्साहवर्धक है कि राजकोषीय मजबूती और बड़े सुधारों के एजेंडे के प्रति संकल्प बना हुआ है। इस एजेंसी का कहना है कि सरकार के सकल घरेलू उत्पाद के 3% लक्ष्य को एक और साल बढ़ा दिया गया है। पर मध्यम अवधि में कमजोर वित्तीय स्थिति के बावजूद राजकोषीय मजबूती का सामान्य लक्ष्य अब भी बना हुआ है। मूडीज का कहना है कि राजकोषीय मजबूती का संशोधित खाका पिछले घोषित खाके और उद्देश्यों में व्यावहारिक रूप से अलग नहीं है। मूडीज को उम्मीद है कि बजट में कही गयी बातों पर अमल हो सकेगा और वित्तीय अनुशासन से सरकार घाटे के लक्ष्य को प्राप्त कर लेगी। कुछ ढाँचागत दिक्कतें राजस्व संग्रह में हैं, फिर भी लक्ष्य से भटकने की गुंजाइश कम है। इसने राजकोषीय दायित्व और बजट प्रबंधन (एफआरबीएम) अधिनियम के तहत साल 2023 तक देश के कर्ज को सकल घरेलू उत्पाद के 60% के स्तर पर लाने की सिफारिश को बड़े सुधार के रूप में देखा है। यह सुधार भारत की सार्वभौमिक रेटिंग बढ़ाने में कारगर भूमिका निभा सकता है, जिसकी मोदी सरकार को अरसे से प्रतीक्षा है।
असल में सरकारी घाटा राजा से लेकर रंक तक को प्रभावित करता है। बेलगाम सरकारी घाटे से महँगाई बेकाबू हो जाती है और ब्याज दरें बढ़ाने का भारी दबाव बन जाता है। बेकाबू महँगाई आम आदमी की जेबों पर डकैती डाल देती है और इसका पता भी नहीं चलता। महँगी ब्याज दरों और क्रयशक्ति में गिरावट से विकास दर पर प्रतिकूल असर पड़ता है, जिससे सरकार के सारे आकलन ध्वस्त हो जाते हैं। नियमित और लक्ष्य के अनुरूप सरकारी घाटा वरदान माना जाता है और बेकाबू सरकारी घाटा अभिशाप। इसलिए अब दुनिया की तमाम सरकारें नियंत्रित सरकारी घाटों को सर्वोच्च प्राथमिकता देती हैं।
कितना कच्चा-पक्का है हिसाब
वैसे वित्त मंत्री ने बताया है कि व्यय का लक्ष्य 21 लाख 471 करोड़ रुपये रखा गया है, और पूँजीगत व्यय में 25.4% की वृद्धि की गयी है। पूँजीगत व्यय (निवेश) से विकास दर और रोजगार सृजन की रफ्तार तय होती है। पर आय-व्यय के नये वर्गीकरण से पूँजीगत व्यय में भारी वृद्धि दिखाई देती है, जबकि असल में पूँजी व्यय में 11% वृद्धि की वृद्धि हुई है। साल 2016-17 में भी पूँजीगत व्यय 11% बढ़ाने का लक्ष्य था। सरकारी घाटे को कम करने की अनिवार्यता के चलते वित्त मंत्री पूँजीगत व्यय में कोई खास वृद्धि नहीं कर पाये हैं, पर बजट की एक ठोस उपलब्धि यह है कि सरकार के कुल व्यय में 6.5% बढ़ोतरी हुई है, जो पिछले साल 12.5% थी। पर इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि राजस्व व्यय की बढ़ोतरी घट कर 6% रह गयी है, जो पहले तकरीबन 13% थी। राजस्व व्यय से देश की संपदा में कोई वृद्धि नहीं होती है। इस खर्च का ज्यादा बढऩा आर्थिक स्वास्थ्य के लिए खराब माना जाता है। राजस्व व्यय की बढ़ोतरी पर काबू के कारण ही वित्त मंत्री सार्वजनिक निवेश के स्तर को बनाये रखने में कामयाब हुए हैं।
पर राजस्व प्राप्तियों (सरकारी आय) का हिसाब-किताब परेशान करने वाला है। इस बार अंकित (नोमिनल) विकास दर का आकलन 11.75% है, पर सकल कर संग्रह में वृद्धि का आकलन महज 12% है, जो 2016-17 में अनुमानित 17% राजस्व संग्रह वृद्धि से काफी कम है, जबकि इस साल अंकित विकास दर 11% ही रहने का अनुमान है। अंकित विकास दर महँगाई दर समेत होती है।
राजस्व वृद्धि में निगम कर (कॉर्पोरेट टैक्स) में 9%, उत्पाद (एक्साइज) शुल्क में 5% और सेवा कर (सर्विस टैक्स) में 11% बढ़ोतरी का अनुमान बजट में लगाया गया है, जिसे प्राप्त कर सकने में किसी को कोई संशय नहीं है। पर आय कर संग्रह में अप्रत्याशित रूप से लगभग 25% की बढ़ोतरी दिखायी गयी है। इस लक्ष्य को लेकर गहरे मतभेद हैं। यह बढ़ोतरी कैसे होगी और क्यों होगी, इसका जिक्र न वित्त मंत्री के बजट भाषण में है और न ही बजट दस्तावेजों में। इसे लेकर सबको गहरा संशय है।
इसी प्रकार विनिवेश के लक्ष्य में भारी बढ़ोतरी कर 72,500 करोड़ रुपये कर दिया गया है, जो पिछले लक्ष्य से 60% ज्यादा है। विनिवेश के इतिहास में आज तक कोई सरकार अपने घोषित लक्ष्यों को हासिल नहीं कर सकी है। सरकारी उपक्रमों में रणनीतिक बिक्री (निजीकरण) से 15,000 सार्वजनिक उपक्रमों की इक्विटी बेच कर 46,500 करोड़ रुपये और बीमा कंपनियों के सूचीकरण (लिस्टिंग) से 11,000 करोड़ रुपये हासिल करने का लक्ष्य है, जो महत्वाकांक्षी जान पड़ता है। लेकिन सरकार ज्यादा-से-ज्यादा इक्विटी बेच कर विनिवेश के इस लक्ष्य को हासिल करने की कोशिश कर सकती है। विनिवेश के लक्ष्य को लेकर वैश्विक वित्तीय संस्थान और रेटिंग एजेंसियाँ भी सतर्क हैं।
पर सरकार को है भरोसा
वैसे बजट में सामान्य या अंकित (नोमिनल) विकास दर का आकलन 11.75% है। इसको लेकर भी भारी संदेह व्यक्त किया जा रहा है। यदि यह विकास दर अनुमान से पीछे रह जाती है, तो बजट के सारे हिसाब किताब गड़बड़ाने में देरी नहीं लगेगी और मोदी सरकार की साख पर बहुत बड़ा सवालिया निशान लग जायेगा, खास तौर पर नोटबंदी के फैसले पर।
पर सरकार को भरोसा है कि बजट अनुमानों और लक्ष्यों को हासिल करने में कोई दिक्कत नहीं है। सरकार का यह आत्मविश्वास दो बड़े तथ्यों पर खड़ा है, जिसका बजट भाषण और बजट दस्तावेजों में लेशमात्र भी जिक्र नहीं है। केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सीबीडीटी) के चेयरमैन सुशील चंद्रा ने बताया है कि खोखा कंपनियों या बोगस कंपनियों को 80,००० करोड़ रुपये का पूँजीगत लाभ होता है। यह कोई छोटी रकम नहीं है। कुछ कंपनियाँ खोखा कंपनियाँ बना कर नाममात्र का निवेश करती हैं और उनमें भारी अभिवृद्धि दिखा कर पूँजीगत लाभ भुना लेती हैं। देश में तकरीबन 15 लाख कंपनियाँ हैं, जिनमें आधी रिटर्न दाखिल नहीं करती हैं, जो काले-सफेद का धंधा करती हैं। चंद्रा का कहना है कि असल में ये खोखा कंपनियाँ मंडियाँ बन गयी हैं, जहाँ आप पूँजीगत लाभ और नुकसान बेच-खरीद सकते हैं। इनको गिरफ्त में लाना ही हमारा ध्येय है।
हाल में ऐसी खबरें आयी हैं कि नोटबंदी के दौरान बैंकों में तकरीबन 18 लाख खातों में पाँच लाख रुपये से अधिक रकम जमा करायी गयी है। यह राशि 4.82 लाख करोड़ बैठती है। इनमें से 1.4 लाख ऐसे लोग हैं, जिन्होंने 80 लाख रुपये से ज्यादा जमा कराया है। वित्त मंत्रालय को इन दोनों से बड़ी आस है। इस गुप्त लाभ को बजट के हिसाब-किताब में शामिल नहीं किया गया है। वित्त मंत्री को पूरा विश्वास है कि किसानों, गाँवों पर भारी खर्च से माँग बढ़ेगी। बुनियादी ढाँचे पर व्यय से रोजगार भी बढ़ेगा और माँग भी, इससे निजी क्षेत्र के निवेश को प्रोत्साहन मिलेगा। छोटे उद्यमियों को निगम कर की छूट देने से भी आर्थिक गतिविधियों में रफ्तार आयेगी। इससे विकास दर के लक्ष्य को भी हासिल किया जा सकेगा और राजस्व के लक्ष्य को भी।
(निवेश मंथन, फरवरी 2017)