बजट की पूर्व-संध्या पर लोक-माध्यमों (सोशल मीडिया) में एक चुटकुला खूब बँटा। इसमें बताया गया था कि अगले दिन बजट पेश होने के बाद आने वाली संभावित प्रतिक्रियाएँ क्या रहेंगी।
इसमें कहा गया कि भाजपा इसे नयी राह बनाने वाला और समाज के सबसे कमजोर व्यक्ति की मदद करने वाला बजट बतायेगी। कांग्रेस कहेगी कि यह गरीब विरोधी बजट है जिससे महँगाई बढ़ेगी। आम आदमी पार्टी कहेगी कि यह अदाणी-अंबानी के फायदे वाला बजट है। सीपीआई-सीपीएम कहेंगी कि इस बजट से अमेरिकी हितों को लाभ पहुँचाया गया है और इससे बेरोजगारी काफी बढ़ेगी। और इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि सभी तरफ से रटी-रटायी प्रतिक्रियाएँ ही सामने आती हैं!
बाजार का छलका उत्साह
शेयर बाजार ने इस बजट को खुल कर सराहा और बजट के दिन सेंसेक्स में 486 अंक या 1.76% की जबरदस्त उछाल दिखी। दरअसल बाजार को इस बजट से यह भरोसा चाहिए था कि विकास दर को नोटबंदी के चलते जो झटका लगा है, वह तात्कालिक ही रहेगा। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने न केवल बजट भाषण में आश्वस्त किया कि नोटबंदी का असर अगले वित्त वर्ष में नजर नहीं आयेगा, बल्कि विकास दर को सहारा देने के लिए बुनियादी ढाँचा क्षेत्र में होने वाले खर्च में 79% की जबरदस्त वृद्धि करने की घोषणा भी की। हालाँकि इस 79% के आँकड़े को देखते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि अब रेलवे बजट भी आम बजट में जुड़ चुका है। इसके बावजूद बुनियादी ढाँचे के लिए आवंटन में हुई कुल वृद्धि बाजार को यह विश्वास दिलाने में सक्षम रही है कि निवेश चक्र में तेजी लाने के लिए पर्याप्त सरकारी खर्च किया जा रहा है।
बुनियादी ढाँचे पर बढऩे वाला खर्च बाजार की नजर से सबसे सकारात्मक पहलू है। पिछले बजट में बुनियादी ढाँचे पर 221,246 करोड़ रुपये के खर्च का प्रावधान रखा गया था, जबकि इस बजट में 396,135 करोड़ रुपये का प्रावधान हुआ है। उद्योग क्षेत्र और बाजार की सबसे मुख्य माँग यही थी कि सरकारी खर्च में बढ़ोतरी की जाये, जिससे निवेश चक्र को फिर से तेज किया जा सके। अभी अर्थव्यवस्था केवल खपत वाली माँग के दम पर बढ़ रही है, जबकि निवेश माँग सुस्त पड़ी हुई है। बुनियादी ढाँचे में यह बढ़ोतरी निवेश माँग को तेज करने में सहायक होगी।
कई बार बजट के अगले दिन भी बाजार में उठा-पटक दिख जाती थी, क्योंकि बजट भाषण में हुई अच्छी-अच्छी घोषणाओं से अलग बजट के बारीक विवरणों में बाजार को चिंतित करने वाली कुछ बातें सामने आ जाती थीं। पर इस बार का बजट नकारात्मक खबरों के लिहाज से घटनाहीन बजट है। सरकार ने यह भी ध्यान रखा है कि नोटबंदी के चलते पहले से कुछ असहज चल रहे जनमानस को नाराजगी का कोई नया मौका न मिले। ट्रेनों के यात्री किराये नहीं बढ़ाना और सर्विस टैक्स को यथावत रखना इसके मुख्य उदाहरण हैं।
इस बार के बजट में जहाँ एक तरफ कोई खास नकारात्मक झटका नहीं था, वहीं यह आश्वासन और आत्मविश्वास भी था विमुद्रीकरण या नोटबंदी के चलते अर्थव्यवस्था की गति में जो धीमापन आया वह केवल फौरी तौर पर ही रहेगा। इसीलिए बजट के दिन हमें शेयर बाजार में अच्छी तेजी देखने को मिली और उसके बाद भी बाजार सकारात्मक रुझान पर ही है।
कॉर्पोरेट क्षेत्र में बड़ी कंपनियों को कॉर्पोरेट टैक्स में राहत नहीं मिली है, लेकिन सालाना 50 करोड़ रुपये तक के कारोबार वाली छोटी कंपनियों के लिए कॉर्पोरेट टैक्स में 5% की कमी छोटे-मँझोले उद्यमों और छोटी कंपनियों के लिए अच्छी रियायत है। एक आशंका थी कि जीएसटी की प्रस्तावित दरों के करीब जाने के लिए सर्विस टैक्स की दर में बढ़ोतरी हो सकती है, पर सरकार ने ऐसा नहीं किया है। यह सर्विस टैक्स के दायरे में आने वाले लोगों के लिए फौरी राहत ही है।
वोट लुभावन राजनीतिक संदेश
इस बजट में लॉलीपॉप भले न बाँटे गये हों, पर इसमें निश्चित रूप से मोदी सरकार का एक राजनीतिक संदेश है। इसमें कृषि और ग्रामीण क्षेत्र पर काफी जोर दिया गया है, मध्यम वर्ग को रिझाया गया है और समाज के विभिन्न वर्गों को खुश करने की कोशिश की गयी है, पर साथ ही अच्छे अर्थशास्त्र को छोड़ा नहीं गया है। वित्त मंत्री ने मोदी सरकार की राजनीतिक बिसात मजबूत करने के साथ-साथ अर्थव्यवस्था की मजबूती का भी ख्याल रखा है।
एक संभावना यह थी कि उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य समेत पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों के मद्देनजर मोदी सरकार लोक-लुभावन घोषणाओं की झड़ी लगा सकती है, जिससे केंद्र सरकार के खजाने पर बोझ बढ़ सकता है। लेकिन वित्त मंत्री इस प्रलोभन से साफ तौर पर बचे हैं। कृषि एवं ग्रामीण क्षेत्र, दलित उत्थान, मनरेगा और अन्य सामाजिक योजनाओं के लिए आवंटन में अच्छी वृद्धि हुई है, मगर लोक-लुभावन होने के चक्कर में सरकार ने अपना बजट नहीं बिगाड़ा है।
विश्लेषकों को आशंका थी कि इस बार नोटबंदी के चलते अर्थव्यवस्था को लगे झटके और साथ में चुनावी नजरिये से लोक-लुभावन होने के चलते बजट में राजकोषीय घाटे या फिस्कल डेफिसिट का आँकड़ा बढ़ा हुआ रह सकता है। फिस्कल रेस्पॉन्सिबिलिटी ऐंड बजट मैनेजमेंट ऐक्ट में तय लक्ष्यों के मुताबिक 2017-18 में इसे 3 प्रतिशत पर लाने की बात थी, पर माना जा रहा था कि तात्कालिक रूप से इस बार छूट लेते हुए 3.5 या 3.6 प्रतिशत राजकोषीय घाटा रखा जा सकता है। मगर बजट में 2017-18 के लिए 3.2% का राजकोषीय घाटा दिखाया गया है, जिससे बाजार को भरोसा मिला है कि सरकार राजकोषीय समझदारी के रास्ते से अलग नहीं हटेगी।
बाजार पर नहीं बढ़ा कर का बोझ
शेयर बाजार पर करों का कोई नया बोझ नहीं डाला गया है। बाजार को यह चिंता सता रही थी कि कहीं लॉन्ग टर्म कैपिटल गेन्स टैक्स लागू न कर दिया जाये या सिक्योरिटीज ट्रांजैक्शन टैक्स (एसटीटी) में वृद्धि न हो जाये या कोई नया कर न आ जाये। अभी शेयरों को खरीद कर एक साल या इससे अधिक समय तक रखने पर उससे हुए लाभ पर शून्य लॉन्ग टर्म कैपिटल गेन्स टैक्स रखा गया है।
प्रधानमंत्री के एक बयान के चलते यह आशंका बनी थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि बाजार के सहभागियों का राष्ट्रीय खजाने में योगदान कम है। इसका सीधा मतलब यही निकाला गया था कि सरकार लॉन्ग टर्म कैपिटल गेन्स टैक्स (एलटीसीजी) की दर बढ़ायेगी, या इसकी समय-सीमा एक साल से बढ़ा कर तीन साल कर देगी। हालाँकि प्रधानमंत्री की टिप्पणी के एक दिन बाद ही वित्त मंत्री ने सफाई दे दी थी कि सरकार का इरादा एलटीसीजी लागू करने का नहीं है, लेकिन बाजार में थोड़ी आशंकाएँ बनी हुई थीं। मगर इस बजट में न केवल लॉन्ग टर्म कैपिटल गेन्स के प्रावधानों को यथावत रखा गया, बल्कि सिक्योरिटीज ट्रांजैक्शन टैक्स (एसटीटी) या किसी अन्य रूप में भी बाजार पर कोई नया बोझ नहीं डाला गया है।
मगर जिन शेयरों को एसटीटी का भुगतान किये बिना (यानी स्टॉक एक्सचेंज से बाह) खरीदा गया हो, उन पर 10% एलटीसीजी लगाया गया है। जान पड़ता है कि यह प्रावधान खोखा कंपनियों के जरिये एलटीसीजी दिखा कर हेराफेरी को रोकने के लिए लाया गया है।
सस्ते आवासों को बुनियादी ढाँचे का दर्जा दे कर सरकार ने जहाँ रियल एस्टेट क्षेत्र की एक बड़ी माँग पूरी कर दी है, वहीं राजनीतिक लिहाज से भी यह एक फायदेमंद कदम है। बुनियादी ढाँचा का दर्जा मिलने से रियल एस्टेट डेवलपरों को ऐसी परियोजनाओं के लिए बैंकों से पैसे आसानी से मिल सकेंगे और बैंकों की रिस्क वेटेज कम होगी जिससे बैंकों से मिलने वाला यह कर्ज सस्ता भी होगा। कुल मिला कर इस कदम से रियल एस्टेट क्षेत्र को मंदी से बाहर निकलने के लिए एक नया अवसर मिल सकता है।
इससे पहले भी नव वर्ष की पूर्व-संध्या पर प्रधानमंत्री ने देश को संबोधित करते हुए सस्ते आवास के लिए ऋण पर ब्याज में छूट की घोषणाएँ की थीं। यानी एक तरफ कम ब्याज दर के चलते सस्ते आवास की माँग बढ़ेगी, वहीं बुनियादी ढाँचा का दर्जा मिलने से अब काफी डेवलपर सस्ते आवासों की परियोजनाएँ शुरू करेंगे और इनकी आपूर्ति बढ़ेगी। निर्माण गतिविधियाँ बढऩे से न केवल लोगों को ज्यादा रोजगार मिलेगा, बल्कि तमाम अन्य संबंधित क्षेत्रों में भी तेजी आयेगी।
गाँवों, किसानों को उपहार
ग्रामीण, कृषि क्षेत्र एवं संबंधित उद्योगों के लिए कुल आवंटन 24% बढ़ा कर 1.87 लाख करोड़ रुपये कर दिया गया है। पिछले साल के बजट में भी गाँवों और किसानों को सबसे ज्यादा प्रमुखता दी गयी थी। मनरेगा के लिए आवंटन भी लगभग 25% बढ़ा कर 48,000 करोड़ रुपये कर दिया गया है। इस साल अच्छे मॉनसून के चलते कृषि उत्पादन बढ़ा है। साथ ही सरकारी योजनाओं से ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक गतिविधियाँ बढऩे से ग्रामीणों की आय पर काफी सकारात्मक असर होना चाहिए।
करदाताओं को मिली कुछ राहत
नोटबंदी की पृष्ठभूमि में सभी यह आशा कर रहे थे कि आय कर (इन्कम टैक्स) छूट की सीमा को बढ़ाया जायेगा, पर यह उम्मीद पूरी नहीं हुई है। हालाँकि मध्यम वर्ग को राहत देने के लिए 2.5 लाख से 5 लाख रुपये तक की सालाना आय पर आय कर देनदारी को 10% से आधा घटा कर 5% कर दिया गया है। पर इसके साथ ही धारा 87ए में कर देनदारी पर मिलने वाली 5,000 रुपये की कटौती को घटा कर 2,500 रुपये कर दिया गया है। इन दोनों बातों मिला कर देखें, तो सालाना तीन लाख रुपये तक की आय वालों के लिए शून्य आय कर रहेगा। पर यही स्थिति अब भी थी। यानी तीन लाख रुपये तक की सालाना आय वालों को कोई अतिरिक्त फायदा नहीं मिला है। तीन लाख से पाँच लाख रुपये तक की सालाना आय वालों को जरूर घटी हुई आय कर दर का लाभ मिलेगा। जिन लोगों की सालाना आमदनी ठीक पाँच लाख रुपये हो, उन्हें 12,500 रुपये का फायदा मिलेगा। जिनकी आमदनी 5 लाख रुपये से ज्यादा हो, उन्हें भी 2.5-5 लाख रुपये तक की आय पर कर की दर घटने से 12,500 रुपये का फायदा तो मिलेगा ही।
दर घटाना क्यों बेहतर?
वित्त मंत्री ने आय कर छूट की सीमा बढ़ाने के बदले 2.5-5 लाख रुपये की आय पर दर घटाने को प्राथमिकता क्यों दी? ध्यान दें कि वित्त मंत्री बार-बार करदाताओं की संख्या बढ़ाने पर जोर देते रहे हैं। कर छूट की सीमा बढ़ाने से काफी लोग दायरे से बाहर ही जाते। तीन लाख रुपये तक की आय पर शून्य कर पहले भी था, अब भी है। इसके ऊपर किसी की आमदनी अगर 3.5 लाख रुपये हो तो अभी उसकी आय कर देनदारी होगी 2500 रुपये। अगर 10% आय कर बनाये रखते हुए कर छूट की सीमा 3.5 लाख रुपये कर दी जाती तो उसे शून्य आय कर चुकाना होता। यानी ऐसा व्यक्ति तो कर के दायरे से बाहर हो जाता, मगर 3.50 लाख रुपये से 5 लाख रुपये तक की आय वालों को कोई राहत नहीं मिलती।
सवाल है कि सालाना 3.50 लाख रुपये यानी मासिक लगभग 30,000 रुपये कमाने वाले व्यक्ति के लिए क्या साल में 2500 रुपये या महीने में लगभग 208 रुपये का आय कर कोई बड़ा बोझ है? जाहिर है कि उसे यह बोझ जरा भी महसूस नहीं होगा। लेकिन हाँ, उसे आय कर रिटर्न दाखिल करना होगा और वह कर के दायरे में आ जायेगा। वहीं कर की न्यूनतम दर घटा कर वित्त मंत्री ने सभी करदाताओं को कुछ राहत दे दी है।
ऊँची दरों से कर-चोरी
पाँच लाख से 10 लाख रुपये की सालाना आय पर 20% आय कर है। यानी अब पाँच लाख तक केवल 5% कर चुकाने के बाद 5-10 लाख रुपये की आय पर कर की दर सीधे चौगुनी हो जायेगी। सीधे 5% से 20% कर श्रेणी में जाने का असर अधिक कर-चोरी के रूप में सामने आ सकता है। खुद वित्त मंत्री ने बजट भाषण में आँकड़ों से दिखाया है कि आय न छिपा सकने वाले नौकरीपेशा वर्ग को हटा दें तो देश में कर चुकाने वालों की संख्या बहुत छोटी रह जाती है। ऐसे में, नौकरीपेशा वर्ग से अलग जिन अन्य लोगों की आय 5-10 लाख रुपये के बीच हो, वे सोच सकते हैं कि पाँच लाख रुपये तक की सीमा में मामूली दर से कर चुका दिया जाये, पर इससे ऊपर की राशि छिपा ली जाये क्योंकि उस पर सीधे 20% कर लगेगा। पहले भी वे इसी दर की श्रेणी में थे, पर अब मनोवैज्ञानिक रूप से उन पर यह बात भारी रहेगी कि पाँच लाख रुपये तक 5% तक कर है और उसके बाद सीधे 20% लगना है।
इसलिए अगर 5 लाख रुपये से अधिक की आय वालों के लिए भी टैक्स की दर में कुछ कमी की जाती तो बेहतर होता। खुद वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में कहा कि उनकी सरकार टैक्स दरों को तार्किक बनाने के लिए प्रतिबद्ध है और इस दृष्टिकोण के चलते पैसे का रंग बदलेगा। यानी वे खुद मानते हैं कि टैक्स दरें घटाने से काला धन सफेद बनेगा। आयकर की ऊच्चतम सीमा को 30% से कुछ नीचे लाकर इस दृष्टिकोण पर अमल किया जा सकता है। मगर इसके विपरीत सरकार ने ज्यादा धनी लोगों पर उच्च आयकर के साथ-साथ अतिरिक्त सेस भी लगाने का नजरिया अपनाया है। यानी सरकार एक तरफ जहाँ कहती है कि तुलनात्मक रूप से कम आय वाले लोगों पर कर का बोझ घटने से कर अनुपालन बढ़ेगा, ज्यादा लोग कर के दायरे में आयेंगे, लेकिन उच्च आय वाले लोगों के लिए उसी तर्क को नहीं अपना रही है। क्या सरकार सोचती है कि उच्च आय श्रेणी में कर की दरें तार्किक बनाने यानी कुछ घटाने से भी अनुपालन नहीं बढ़ेगा?
निवेश पर नहीं मिली नयी छूट
धारा 80सी के तहत 1.50 लाख रुपये के निवेश पर मिलने वाली आय कर छूट जस-की-तस रखी गयी है। यदि इस सीमा को बढ़ाया जाता तो बाजार के लिए ज्यादा उत्साहजनक हो जाता। खास कर म्यूचुअल फंडों के माध्यम से शेयर बाजार में होने वाले निवेश को अच्छी गति मिलती। इस समय बाजार की चाल भी ठीक है और म्यूचुअल फंडों की ओर निवेशकों का झुकाव भी बढ़ा हुआ है। ऐसे में 80सी के तहत अतिरिक्त छूट मिलने से ऐसे निवेशकों को और अधिक प्रोत्साहन मिलता।
चंदे पर चकरघिन्नी
राजनीतिक दलों को नकद चंदे की सीमा को 20,000 रुपये से एकदम 90% घटा कर सीधे 2,000 रुपये कर देना भी एक राजनीतिक संदेश देने वाला कदम ही है। यह केवल कागजी चकरघिन्नी है, जिससे चुनावी राजनीति में काले धन के उपयोग पर कतई अंकुश नहीं लग सकेगा। ऐसा नहीं लगता कि इससे राजनीतिक दलों के तौर-तरीकों पर कोई खास असर पडऩे वाला है। पहले जो काम एक फर्जी रसीद काट कर चल जाता था, उसके लिए उन्हें अब 10 फर्जी रसीदें काटनी पड़ेंगी। जब तक राजनीतिक दलों को नकद चंदे पर पूरा प्रतिबंध नहीं लगता, तब तक चंदे में काले धन की खपत नहीं रोकी जा सकती। दलों को एक रुपये का चंदा भी लेना हो, तो चेक या डिजिटल भुगतान से ही लेने का नियम बनना चाहिए।
हालाँकि जेटली ने बजट के बाद दिये गये साक्षात्कारों में कहा है कि 2,000 रुपये की सीमा लगाने का सुझाव चुनाव आयोग का था और अगर चुनाव आयोग नकद चंदा लेने पर रोक का सुझाव दे तो सरकार उस पर भी विचार कर सकती है। लेकिन चुनाव आयोग के सुझाव से एक कदम आगे बढ़ जाने से सरकार को किसी ने रोका भी नहीं था। नोटबंदी के बाद के माहौल में अगर सरकार यह कदम उठा लेती, तो उस पर राजनीतिक दलों के प्रतिरोध की संभावना भी न्यूनतम रहती। कह सकते हैं कि सरकार एक अच्छा मौका चूक गयी है।
नोटबंदी के बाद सरकार नकद लेन-देन को हतोत्साहित करने की नीति पर आगे बढ़ी है। इसी के तहत व्यक्तियों के लिए तीन लाख रुपये से अधिक का नकद लेन-देन करने पर रोक लगा दी गयी है। यह काले धन के प्रवाह पर अंकुश लगाने की दिशा में एक और कदम है। ऐसा नहीं है कि इससे पूरा अंकुश लग जायेगा, लेकिन एक छेद जरूर बंद होगा या पहले से छोटा जायेगा।
(निवेश मंथन, फरवरी 2017)