राजेश रपरिया, सलाहकार संपादक
वित्त मंत्री अरुण जेटली के पेश बजट 2017 में विधानसभा चुनावों की छाप देखी जा सकती है। अरुण जेटली के पेश पिछले बजटों को देखें तो उनमें कृषि, गाँव और सामाजिक क्षेत्र को फंड आवंटन करने में उनका हाथ तंग रहा है।
बजट में वित्त मंत्री ने कृषि और ग्रामीण क्षेत्र के आँकड़ों का बड़े चमत्कारिक ढंग से प्रयोग किया है, जिसमें यह आभास होता है कि बजट में इन दोनों क्षेत्रों के लिए खजाना लुटाया गया है। कृषि में प्रधानमंत्री सिंचाई योजना में शामिल सूक्ष्म कृषि विकास (प्रति बूंद अधिक फसल) एकीकृत जल संभरण योजना, त्वरित सिंचाई लाभ और बाढ़ प्रबंधन कार्यक्रम को पहले से अधिक धन दिया गया है। बीज, खाद आदि की सब्सिडी में बढ़ोतरी की गयी है। पशुधन विकास योजना में शामिल कार्यक्रमों के लिए आवंटन बढ़ाया गया है। डेयरी विकास के लिए नाबार्ड के तहत विशेष फंड बनाने के लिए दो हजार करोड़ रुपये दिये गये हैं।
पर ग्रामीण विकास की योजनाओं के आवंटन में वित्त मंत्री ने काफी चालाकी बरती है, जिसका फायदा इस विधानसभा चुनावों में ही नहीं बल्कि 2019 में लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री मोदी को मिल सकता है। मसलन प्रधानमंत्री आवास योजना में लगभग 9,००० करोड़ की वृद्धि की गयी है। इस योजना के तहत निर्बल आय वर्ग के लिए 2019 तक एक करोड़ आवास बना कर देने का लक्ष्य है। पर प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के आवंटन को नहीं बढ़ाया गया है, जो प्रधानमंत्री मोदी का प्रमुख कार्यक्रम है। बजट भाषण में वित्त मंत्री ने इस कार्यक्रम की उपलब्धियों का पूरा बखान किया है। सीधे लाभ का ज्यादा असर होता है, यह चुनाव के रणनीतिकार जानते हैं। इस वर्ग के सस्ते आवास निर्माण को वित्त मंत्री ने इन्फ्रास्ट्रक्चर उद्योग का दर्जा देने की घोषणा वित्त मंत्री ने बजट में की है। इससे इस क्षेत्र से जुड़े उद्यमियों को बैंकों से कर्ज लेने में आसानी होगी और मकान निर्माण की रफ्तार में तेजी आयेगी।
साल 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का दिवास्वप्न प्रधानमंत्री का है। इस लक्ष्य को पाने के लिए सिंचाई को हर साल 40-50 हजार करोड़ रुपये आवंटन की जरूरत है। सिंचाई सुविधा बढऩे से पैदावार में 60-70% की वृद्धि हो जाती है। पर सिंचाई योजनाओं के लिए इस बजट में कोई खास बढ़ोतरी नहीं की गयी है, न ही कृषि की लाभप्रदता बढ़ाने का कोई खाका पेश किया गया है। मनरेगा की अहमियत अब प्रधानमंत्री मोदी को समझ में आ गयी है। इस योजना को वे कांग्रेसी राज की नाकामियों का स्मारक बताया करते थे। मनरेगा को पिछले साल के बजट आवंटन से तकरीबन 10,000 करोड़ रुपये इस बजट में बढ़ाये गये हैं। इससे ग्रामीण मजदूरों को काफी राहत मिलेगी। कम और मध्यम आय वर्ग के लोगों को आय कर में राहत दी गयी है। पर भारी उम्मीदों के बीच यह राहत काफी मामूली है। वोट लुभावन प्रस्तावों से मतदाता कितने रिझेंगे, इसका पता विधानसभा चुनावों के परिणामों से ही चलेगा, विशेष कर उत्तर प्रदेश और पंजाब के चुनावी नतीजों से।
चुनाव की छाया सेवा कर पर भी साफ देखी जा सकती है। सेवा कर में बढ़ोतरी और भुगतान से हर आदमी का मिजाज खिन्न हो जाता है। इस लिए सेवा कर में कोई बढ़ोतरी बजट में नहीं की गयी है। पर सेवा कर संग्रह में 11% की बढ़ोतरी बजट गणनाओं में है। जाहिर है कि सेवा कर में बढ़ोतरी भविष्य के लिए टाल दी गई है। विधानसभा चुनावों से ऐन पहले बजट लाने की सरकारी आकुलता से केंद्रीय वित्त विभाग आर्थिक सर्वेक्षण का काम भी पूरा नहीं कर पाया। बजट से पहले वित्त मंत्री को आधा-अधूरा आर्थिक सर्वेक्षण जारी करना पड़ा। अब इसका दूसरा भाग गर्मियों के सत्र में लाया जायेगा। कम-से-कम पिछले 25-30 सालों में ऐसा कभी नहीं हुआ। बजट के संशोधित अनुमान भी दो तिमाहियों के आधार पर तय हुए हैं। बजट आ गया, पर तीसरी तिमाही के सकल घरेलू उत्पाद के अनुमान अभी केंद्रीय सांख्यिकी संगठन को जारी करने हैं।
अधिक नीतियों और निर्णयों का राजनीतिक इस्तेमाल कोई नयी बात नहीं है। पूर्व में तमाम सरकारें ऐसा करती रही हैं। चुनाव साल में किसान, गरीब और गाँव की याद सब राजनीतिक दलों को आती है और वे प्राथमिकताओं की अंतिम पायदान से पहले पायदान पर आ जाते हैं। कुछ अरसे से मुफ्त में सामान बाँटने की होड़ राजनीतिक दलों में बेइंतहा बढ़ चुकी है। इससे कोई राजनीतिक दल अछूता नहीं है। क्षेत्रीय दल इस होड़ में सबसे आगे हैं, जिनका असर राष्ट्रीय दलों पर भी साफ दिखाई देता है। किसानों, गरीबों और गाँवों को चुनावों का कृतज्ञ होना चाहिए। कम-से-कम इस बहाने राजनीतिक दलों को इनकी याद तो आ जाती है।
(निवेश मंथन, फरवरी 2017)